हम भला क्या कर सकते हैं? सरकार ही नियम बनाती है और हमें उसे मानना पड़ता है. सरकार तक हम अपनी आवाज कैसे पहुंचाएं, ये कहते हुए बिहार के जुनैद आलम की आंखें भर आती हैं. जुनैद दिल्ली में बुराड़ी स्थित एकफैक्ट्री में साड़ी में जरी लगाने का काम करते थे. नोटबंदी के दौरान उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया, तब से वे अच्छे दिनों की आस में रैन बसेरे में शरण लिए हैं.

उन्हें उम्मीद है कि सरकार जल्द ही उन जैसे कामगारों के लिए कुछ राहत की घोषणाएं करेगी. नोटबंदी की मार झेल रहे अलीगढ़ के ताला उद्योग व कानपुर के चमड़ा उद्योग में मातम पसरा है. कमोबेश यही स्थिति सोलापुर व सूरत के सूती कपड़ा उद्योग, कोलकाता के जूट उद्योग, मिर्जापुर के कालीन व बनारस के साड़ी उद्योग की भी है. हर जगह काम ठप पड़ा है. दिहाड़ी मजदूरों को भुगतान नहीं दे पाने की स्थिति में उन्हें फैक्ट्री से निकाल दिया गया है. हालत ये है कि असम के चाय बागानों के मालिक व ठेकेदार, मजदूरों को भुगतान देने के डर से बागान छोड़कर चले गए हैं.

नोटबंदी के सर्जिकल स्ट्राइक ने देश में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे कामगारों व माइनॉरिटी तबके की कमर तोड़ कर रख दी है. ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 80 फीसदी लोगों के लिए असंगठित क्षेत्र ही रोजगार व आमदनी का जरिया है. लेकिन हाल ये है कि देश भर में 27 करोड़ दिहाड़ी मजदूरों में से अधिकतर बेगार हो चुके हैं. एक अनुमान है कि गुरुद्वारों में होने वाले लंगर में दो महीनों के भीतर तीस फीसद का इजाफा हुआ है.

उठ गया सरकार का इकबाल

नोटबंदी के दौरान सरकार ने अपनी विश्वसनीयता खोई है और बैंकों ने अपनी साख. नोटबंदी के बाद देश जिस हालात में पहुंच गया है, वहां से निकलने के लगभग सभी रास्ते बंद हैं. इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर के निदेशक प्रणब सेन बताते हैं, इस फैसले ने सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र को प्रभावित किया है. इसे लगभग स्थायी रूप से बर्बाद कर दिया है. कानपुर में जमाल एक जूते की फैक्ट्री में काम करते थे. बताते हैं, दिसंबर महीने में ठेकेदार ने 500 रुपए के पुराने नोट वेतन के रूप में दिए थे. उसी समय कई कामगारों से हिसाब कर लेने के लिए कह दिया गया.

जब हाथ में नोट ही नहीं हैं, तो फिर काहे कि नोटबंदी? नोटबंदी ने तो हमारी नौकरी ही छीन ली. सरकार हमें नौकरी क्या देती, चलती हुई नौकरी भी चली गई. मुसलमान कामगार नोटबंदी से ज्यादा परेशान हैं. सूद को हराम समझने के कारण ज्यादातर मुस्लिम कामगार बैंक खाता नहीं रखते हैं. इतना ही नहीं, कैश पर व्यापार करने वाले मुस्लिम व्यापारी भी नोटबंदी से परेशान हैं.

नवंबर में नोटबंदी के कारण टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि की बिक्री 38 फीसदी तक घट गई. जूते, कपड़े बनाने वाली फैक्ट्रियों में ताले लटक गए. छोटे-मंझोले कल-कारखाने बंद हो गए. तांबे की चीजों के लिए मशहूर मुरादाबाद, साइकल व खेल का सामान बनाने वाला लुधियाना, चूड़ियों का शहर फिरोजाबाद व गंजी के कपड़ों के शहर तिरुपुर में मुर्दानगी छाई है.

इन उद्योगों में मंदी पहले से थी, अब नोटबंदी ने और हालत खराब कर दी है. इस कहर ने हजारों मजदूरों को शहरों से भाग कर फिर से गांवों में पनाह लेने के लिए मजबूर कर दिया. वहीं, शहरों में दुकानें तो खुली हैं, लेकिन बाजारों में सन्नाटा पसरा है. दिल्ली में एक गारमेंट विक्रेता ने बताया कि लोग 2000 रुपए के नोट लेकर आ रहे हैं. बाजार में छुट्‌टा है नहीं. हालत ये है कि अब कारोबार बंद करने की नौबत आ गई है.

ताला उद्योग तो जाने दें, ईंट भट्‌ठा भी बंद

अलीगढ़ मशहूर है ताला उद्योग के लिए, लेकिन एक और कारोबार है, जिसमें 95 हजार से अधिक कामगार दिन-रात काम में जुटे रहते हैं. जिले में 750 से ज्यादा ईंट-भट्‌ठे हैं. मोहम्मद शरीफ बताते हैं कि वे झारखंड से हैं. यहां बैंक खाता तो है नहीं. अगर खाता होता, तब भी भट्‌ठा मालिक काम छोड़कर जाने नहीं देगा. नगदी में भुगतान होता था, अब वह भी काम नहीं मिलने से बंद हो गया है. घर लौटने के अलावा कोई चारा नहीं है. वहीं भट्‌ठा मालिकों की अलग पीड़ा है. भट्‌ठा मालिक शमशेर बताते हैं नोटबंदी के कारण ईंट की बिक्री पर असर पड़ा है. हाथ में नगदी है नहीं, तो मजदूरों को कहां से वेतन दें. मजबूरन ईंट-भट्‌ठा बंद करना पड़ा है.

मालेगांव में थम गए हैंडलूम्स के पहिए

महाराष्ट्र का टेक्स्टाइल शहर मालेगांव अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा, महंगे बिजली बिल और लेबर लॉज के कारण पहले ही मंदी की मार झेल रहा था. अब नोटबंदी की मार ने यहां के 80 हजार कामगारों को नाउम्मीदी के अंधेरे में धकेल दिया है. चौबीस घंटे चलने वाले हैंडलूम्स कैश के अभाव में अब सप्ताह में तीन दिन ही चलते हैं. पावरलूम उद्योग में कॉटन खरीदने से लेकर कामगारों को पगार देने व तैयार माल बेचने तक का काम कैश में ही होता है.

सौ साल से ज्यादा पुराना यह उद्योग, जहां कभी दस करोड़ रुपए प्रतिदिन की आमदनी थी, आज बंद होने के कगार पर है. टाटा इंस्टीट्‌यूट ऑफ सोशल साइंस के एक सर्वे के अनुसार, हैंडलूम सेक्टर में कामगारों को औसतन 911 रुपए मासिक पगार मिलती है, लेकिन नौकरी छूटी, तो अब कामगारों को उसका भी आसरा नहीं रहा.

मनरेगा मजदूरों के हाथ खाली

शहरी गरीबों के लिए सरकार के पास रोजगार नहीं है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में भी मनरेगा के तहत अब कामगारों को काम नहीं मिल रहा है. नोटबंदी के दौरान मनरेगा मजदूरों की हालत बदतर हो गई है. उन्हें भुगतान देने के लिए स्थानीय प्रशासन के पास नकदी उपलब्ध नहीं है. अगर आंकड़ों की बात करें तो अक्टूबर माह के मुकाबले नवंबर में मनरेगा के तहत 23 फीसद रोजगार घट गया था.

दिसंबर तक यह आंकड़ा 55 फीसद को पार कर गया. सवाल ये है कि अगर ग्रामीण व शहरी इलाकों के करोड़ों मजदूरों को रोजगार न मिले, तो फिर वे करें क्या? इस अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए सरकार विकल्पहीनता की स्थिति में आ चुकी है.

सरकार को अंदेशा है कि अगर हालात जल्द नहीं सुधरे, तो उसे लोगों के आक्रोश का शिकार होना पड़ सकता है. वहीं अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि मुद्रा का चलन सामान्य स्थिति में आने में कम-से-कम 6 माह लग सकते हैं. आगामी चुनाव को देखते हुए मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं, लोक-लुभावन घोषणाएं की जा रही हैं.

झोलाछाप अर्थशास्त्रियों ने किया बेहाल

हाल में नोटबंदी के फायदे गिनाते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली कह रहे थे कि इस फैसले के 50 दिन बाद आलोचक गलत साबित हो रहे हैं. हालात उतने खराब नहीं हैं, जितने आलोचक बता रहे हैं. नोटबंदी का एकाध तिमाही में आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

वहीं अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि अगर किसी के शरीर से 86 प्रतिशत खून निकाल दिया जाए, तो मल्टी ऑर्गन फेल्यूर होना लाजिमी है. ठीक ऐसा ही भारत की अर्थव्यवस्था के साथ हो रहा है. अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक कहती हैं कि पेशेवर अर्थशास्त्रियों की जगह झोलाछाप किस्म के लोगों की सलाह पर चलने के कारण सरकार ने यह आत्मघाती कदम उठाया है.

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