उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव नेताओं की अनापशनाप बयानबाजियों में निपट गया. न कोई मुद्दा सामने आया, न कोई ठोस योजना सामने आई. लोगों को घूस का प्रलोभन देकर वोट हासिल करने की मनोवृत्ति खुल कर अभिव्यक्त हुई. स्थानीय भाषा में कहें तो यूपी का चुनाव नेताओं के अल्ल-बल्ल-सल्ल में निपट गया. समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने घोषणा पत्र जारी किए, लेकिन बसपा का घोषणा पत्र नहीं आया.

घोषणा पत्र में भी मुद्दे कम और घूस का प्रलोभन अधिक था. लोगों को मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त स्मार्ट फोन, मुफ्त प्रेशर कूकर, 25 रुपए किलो देसी घी और सस्ती दरों पर बिजली-पानी देने जैसे वायदे तो शामिल हुए, लेकिन व्यापक नीतियों पर आधारित कार्यक्रमों का अभाव रहा. कोई भी दल अपने चुनाव प्रचार अभियान में उत्तर प्रदेश के बुनियादी मुद्दों का जिक्र नहीं कर रहा, जिक्र कर भी रहा तो उसमें समस्या के निपटारे की कम दूसरे पर प्रहार करने की मंशा अधिक जाहिर हुई.

बिजली पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई तो वह हिंदू-मुसलमान में बंट गई और बौखलाए अखिलेश यादव गुजरात के गधों की चर्चा के स्तर पर आ गए. इस चुनाव में राजनीति ने अपना स्तर खोने का भी रिकॉर्ड ही बनाया. किसी ने खूब कहा, सियासत इतनी गिरी कि बे-ईमान हो गई / यूपी में बिजली भी हिंदू मुसलमान हो गई / लोकतंत्र तो भइया तबेला हो गया / सियासत में गधों पर झमेला हो गया…

उत्तर प्रदेश की समस्याएं बड़ी और जटिल हैं, लेकिन चुनाव अभियान के दौरान नारे, जुमले और आरोप-प्रत्यारोप के शोर में इस राज्य के सारे बुनियादी मसले ताक पर चले गए. तकरीबन 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में घनघोर आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, खेती, कानून-व्यवस्था जैसे गंभीर सवाल सामने खड़े हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के चुनाव-प्रचार में इन सवालों को कायदे से तरजीह नहीं मिली. अगर किसी ने इनका जिक्र भी किया तो बेहद सतही अंदाज में.

सपा-कांग्रेस गठबंधन समेत सभी दल अपनी रैलियों और सभाओं में जुटी और जुटाई गई भीड़ को अपनी लोकप्रियता का पैमाना मानकर मस्त रहे. नेताओं के छिछले और निम्नस्तरीय कटाक्षों की होड़ लगी रही. मुद्दों की चर्चा करने के नाम पर सारे नेता असंगत बातें करते रहे. नोटबंदी से लेकर कानून व्यवस्था और सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर कब्रिस्तान और श्मशान तक के मसले केवल राजनीतिक जुमलेबाजियों से ही अभिव्यक्त हुए. यह मुद्दा नहीं बना. किसी भी नेता ने यह नहीं कहा कि राज्य की बदहाल कानून व्यवस्था, कृषि, किसानों की बदहाली, बीमार स्वास्थ्य सेवा और सड़ियल शिक्षा व्यवस्था के सुधार के उनके पास क्या उपाय हैं.

चुनाव प्रचार में जिस भी नेता को देखें, वह व्यक्तिगत आक्षेपों और व्यक्तिपरक तुलना में ही लगा रहा. एक केंद्रीय मंत्री ने यह जरूर कहा कि उत्तर प्रदेश में लघु उद्योग की विशाल संभावनाएं हैं, लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से ऐसी कोई ठोस योजना सामने नहीं रखी, जो उन संभावनाओं को पुख्ता करने की बात कहती हो. उत्तर प्रदेश का वस्त्र, मूर्ति, लकड़ी, पीतल, पत्थर, कालीन, दरी जैसे लघु उद्योगों का भट्‌ठा बैठता जा रहा है, लेकिन इस पर किसी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं है.

लघु, कुटीर और सूक्ष्म उद्योग से जुड़े लोगों को भीषण परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. जब यूपी में छोटे उद्योग धंधे ही मार खा रहे हैं, तब आईटी, बीपीओ, लॉजिस्टिक्स, हॉस्पिटैलिटी, पर्यटन विकास की बड़ी-बड़ी बातें कहने का कोई औचित्य नहीं है. हालांकि इनके बारे में इस चुनाव में किसी भी नेता ने कोई ठोस बात नहीं की.

उद्योग धंधों की सबसे बड़ी परेशानी बिजली है. आजादी के इतने वर्षों बाद भी उत्तर प्रदेश के ढेर सारे गांव और कस्बे बिजली के बिना हैं, तो विकास को लेकर की जा रही बड़ी-बड़ी बयानबाजियों का बेमानीपन समझ में आता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिजली के मसले पर हाथ रखा तो परस्पर हमले शुरू हो गए. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बनारस में 24 घंटे बिजली सप्लाई होने की बात कहने लगे तो योगी आदित्यनाथ ने यह कह कर पोल खोल दी कि बनारस के मशहूर काशी-विश्वनाथ मंदिर में चार घंटे से अधिक नियमित बिजली नहीं दी जाती. इसी तरह देवा शरीफ में 24 घंटे बिजली मिलती है जबकि महादेवा में चार घंटे बिजली मिलती है.

पर्व-त्यौहार पर बिजली में धार्मिक भेदभाव किया जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में यह बात कही थी. इस पर अखिलेश ने बौखला कर गुजरात के गधों पर बात शुरू कर दी और राजनीति के स्तर को काफी नीचे ले गए. मुख्यमंत्री के बयानों की असलियत यही है कि सोनिया गांधी राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली-अमेठी के कुछ गांवों में आज भी बच्चे लालटेन की रौशनी में पढ़ते हैं और महिलाएं मिट्टी के तेल की ढिबरी की रौशनी में खाना पकाती हैं. इसी तरह मुख्यमंत्री अखिलेश के ग्रामीण जनपद इटावा और मुलायम परिवार के गढ़ मैनपुरी के कई गांव अंधेरे में रहते हैं.

अमेठी जिले के औद्योगिक क्षेत्र जगदीशपुर के तहत आने वाले ग्रामसभा कठोरा के मेढ़ाई लोध का पुरवा गांव में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण के अंतर्गत खंभे खड़े कर तार दौड़ा दिया गया था, लेकिन बिजली नहीं दौड़ी. बिजली कनेक्शन के लिए गांव के लोगों ने शुल्क भी जमा कर दिए थे और मीटर भी लगा दिया गया, लेकिन बिजली नहीं आई. बिजली के खंभे, तार और घरों में लगे मीटर दर्शनीय सामग्री बन कर रह गए. कोई नेता यह नहीं कह पाया कि वे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित कराएंगे.

हालांकि सपा और भाजपा दोनों ने अपने घोषणा पत्र में अधिक बिजली देने की बात कही है, लेकिन बिजली का उत्पादन और उपलब्धता बड़ा सवाल है. सपा ने अपने घोषणा पत्र में कहा है कि शहरों के साथ ही अब गांवों को भी 24 घंटे बिजली देंगे. भाजपा ने भी अपने घोषणा पत्र में प्रदेश में सरकार बनने पर गांव और शहर दोनों में 24 घंटे बिजली देने का वादा किया है. असलियत यह है कि हर बार चुनाव से पहले नेताओं को बिजली की याद आती है और चुनाव के बाद वे इसे भूल जाते हैं. मुलायम के प्रभावक्षेत्र मैनपुरी के ही लोग कहते हैं कि बिजली दो से चार घंटे ही मिलती है, इसमें क्या काम होगा.

यूपी में निवेश करने के इच्छुक उद्यमियों ने मुख्यमंत्री के सामने ही बिजली और कानून व्यवस्था का मुद्दा उठाया था और कहा था कि उत्तर प्रदेश में कारोबारी माहौल नहीं है. सरकार बड़ी-बड़ी योजनाओं और अनेक सुधार कार्यक्रमों की घोषणा करती है पर लाल फीताशाही के कारण वे मुश्किल से जमीन पर पहुंचते हैं. सरकार की तमाम योजनाओं की प्रगति भी बहुत धीमी है. कई योजनाओं का अस्तित्व सिर्फ कागजों पर ही है. ऐसा लगता है कि योजनाओं की समीक्षा के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति होती है या फिर सरकारी काम की निगरानी का तंत्र ऐसा होता है जिसकी खुद निगरानी की जरूरत है.

उस बैठक में अधिकारियों को चुस्त और चौकन्ना रहने के निर्देश दिए गए और बस इतिश्री हो गई. सारे सख्त निर्देश ढाक के तीन पात होकर रह गए और विकास वहीं का वहीं ठहर गया. आंकड़ा विश्लेषक कंपनी फोर्थलायन टेक्नोलॉजीज के एक सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में बिजली कटौती सबसे बड़ा मुद्दा है. यूपी के करीब 20 फीसदी लोगों ने रोजगार, अर्थव्यवस्था और विकास को सबसे बड़ा मुद्दा बताया, जबकि 10 फीसदी लोगों ने कहा कि साफ पानी की कमी सबसे बड़ा मुद्दा है.

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या को देखते हुए बिजली को ऊर्जा के प्रमुख स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने वाले घरों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि साल 2016 के अंत तक उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के 1,77,000 घरों में बिजली नहीं थी. मार्च 2014 में इसकी संख्या 1,85,900 थी.

सर्वेक्षण में यह बात उभरी कि जिन घरों में बिजली है, उन्हें भी बिजली नहीं मिल पा रही है. इसी तरह यूपी के लोगों के लिए सड़क, भोजन, नोटबंदी, अपराध, भ्रष्टाचार, कृषि, स्वच्छता, स्वास्थ्य और शिक्षा जरूरी मुद्दे हैं. रोजगार बड़ा मुद्दा है. श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार राज्य में कामगार आबादी की संख्या 2009 से 2015 के बीच प्रति 1,000 व्यक्ति पर 82 से घटकर 52 रह गई. बेरोजगार युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है. 2015-16 में 18-29 के उम्र वर्ग में प्रति 1,000 व्यक्तियों पर बेरोजगारों की संख्या 148 थी.

देश को कई प्रधानमंत्री देने वाला उत्तर प्रदेश विकास के केवल नारे ही सुनता रहा है. विकास की गति यूपी में मंद है, जबकि विकास पर बयानबाजी की गति बहुत तेज. प्रत्येक चुनाव में उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की बातें कही जाती रही हैं, चाहे वह मुलायम रहे हों या अखिलेश, उत्तर प्रदेश कभी उत्तम प्रदेश नहीं ही बन पाया. वर्ष 2007 में मायावती आईं तो पूरे पांच साल स्मारकों, पार्कों और मूर्तियों के निर्माण में ही उलझी रह गईं.

इसके बाद फिर समाजवादी पार्टी की सरकार आई. लेकिन अखिलेश शासनकाल की भी अधिकांश योजनाएं अधर में ही लटकी रह गईं. आप याद करें, अखिलेश ने उत्तर प्रदेश के विकास का जो एजेंडा पेश किया था, उसमें विकास के 165 मुद्दे शामिल थे. उनमें कृषि, ऊर्जा, अवस्थापना, सुविधाओं का सृजन, मानव संसाधन विकास, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, नगर विकास, ग्राम्य विकास, कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा, श्रम, प्रशासन तंत्र को कुशल, पारदर्शी एवं प्रभावी बनाए जाने के नए प्रयासों का उल्लेख था. मेट्रो परियोजना भी शामिल थी. इसी तरह आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे का काम भी एजेंडे में शुमार था. मेट्रो और आगरा एक्सप्रेस-वे पर काम तो हुआ, लेकिन अधिकांश अन्य मसले ऐसे ही रह गए. आम शहरी कहते हैं कि उन्हें ठीक सड़क, दुरुस्त बिजली और पुख्ता कानून व्यवस्था चाहिए. लेकिन उन्हें ये चीजें नहीं मिलीं.

किसान कहते हैं कि चीनी मिलों से उनके बकाये का भुगतान हो, उनकी फसलों का उचित दाम तय हो और उन पर कर्जों का बोझ न हो, जिससे आत्महत्याएं न हों. लेकिन किसानों की अपेक्षा पर कोई काम ही नहीं हुआ. कृषि और किसानों के विकास की कोई योजना ठोस शक्ल नहीं ले सकी. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत उत्पादन बढ़ाने के लिए किसान खेत योजना बनाई गई थी. इसके तहत किसानों को खेतों में ही जाकर प्रशिक्षित किया जाना था.

उन्हें फसलों की बुआई, रोगों का उपचार, फसल कटाई और मड़ाई आदि की तकनीकी जानकारी दी जानी थी. किसानों को खाद के प्रयोग और भूमि की उर्वरा शक्ति परीक्षण के लिए भी जागरूक करने की योजना थी. साथ ही किसानों को गोबर और जैविक खाद के लाभ भी बताए जाने थे, लेकिन इस योजना को अधिकारियों ने जमीन पर ही नहीं उतरने दिया.

किसान पूछते हैं कि वे मेट्रो रेल खाएं या एक्सप्रेस-वे चबा जाएं. दूसरी तरफ खेतों में घटता मानव श्रम भी विकट समस्या है. इसका भी कोई निराकरण नहीं हो रहा. इसका मुकाबला करने के लिए आधुनिक कृषि यंत्रों के प्रचार-प्रसार के साथ ही छोटे और मंझोले किसानों को ये उपकरण सस्ती दर पर उपलब्ध कराए जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

हमेशा पराजित ही होता रहा है बुंदेलखंड

कसभा या विधानसभा चुनाव अपने अंतराल पर होते ही रहते हैं. सांसद और विधायक चुनते ही रहे हैं. केंद्र से लेकर प्रदेश में किसी न किसी पार्टी की सत्ता बनती ही रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड कभी नहीं जीतता. उसे नोच-नोच कर खाने वाले नेता जीत-जीत कर सत्ता का उपभोग करते रहते हैं.

यह सवाल भले ही बुंदेलखंड के माहौल में तिर रहे हों कि चुनाव के बाद सत्ता में बुंदेलखंड की भागीदारी क्या होगी या जो सरकार बनेगी वह बुंदेलखंड की सुध लेगी भी या नहीं? बुंदेलखंड के अनुभव उन सवालों का जवाब खुद ब खुद दे देते हैं. उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल के सात जिलों बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और ललितपुर की कुल 19 सीटों में से पांच सीटें सुरक्षित श्रेणी में हैं.

इनमें बांदा की नरैनी, हमीरपुर की राठ, जालौन की उरई सदर, ललितपुर की महरौनी और झांसी की मऊरानीपुर सीट शामिल हैं. इसी चुनावी माहौल और नेताओं की बयानबाजियों के बरक्स स्वराज अभियान के 2015 के उस सर्वे का स्मरण करते चलें, जिसमें यह कहा गया था कि बुंदेलखंड के 53 प्रतिशत गरीब परिवारों ने पिछले आठ महीने से दाल नहीं खाई थी. 69 प्रतिशत लोगों ने दूध नहीं पिया था और हर पांचवां परिवार कम से कम एक दिन भूखा सोने पर विवश हुआ था.

उस साल (2015) की होली के बाद से 60 प्रतिशत परिवारों ने गेहूं-चावल की जगह मोटे अनाज और आलू से भूख मिटाई और हर छठे घर ने फिकारा (एक घास) की रोटी खाई. उस अवधि में बुंदेलखंड में 40 प्रतिशत परिवारों ने अपने पालतू पशु बेच डाले. 27 प्रतिशत ने जमीन बेच दी या गिरवी रख दी और 36 प्रतिशत गांव में सौ से अधिक गाय-भैंसें चारे की कमी के कारण लावारिस छोड़ दी गईं. इस सार्वजनिक जानकारी के बावजूद कोई राजनीतिक दल और उसका नेता विकास की बेशर्म घोषणाएं करता है तो लोकतंत्र की घुटी हुई चीख पूरे बुंदेलखंड में सुनाई पड़ती है.

उत्तराखंड में भी जुमलों और नारों में दब गए जरूरी मसले

छोटे से पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में भी यही हुआ. सारे जरूरी मसले जुमलों, नारों और आपसी सिर-फुटौव्वल में ही गौण रह गए. किसी भी पार्टी या नेता ने पर्वत प्रदेश के बुनियादी मसलों पर हाथ नहीं रखा. उत्तराखंड राज्य के निर्माण की प्रक्रिया या उस दौर में चलें तो याद आएगा कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन दरअसल आरक्षण के विरोध में खड़ा हुआ था जो बाद में पृथक राज्य के आंदोलन में बदल गया.

राज्य बनने से पहले यहां के लोगों को बेरोजगारी की समस्या का सामना करना पड़ता था क्योंकि लखनऊ दूर होने के कारण उत्तर प्रदेश में होने वाले विकास का लाभ उन्हें नहीं मिल पाता था. पहाड़ के लोगों को लगता था कि इसे समझे बिना लखनऊ में बैठकर पहाड़ के लिए योजनाएं बना दी जाती हैं, जिनका पहाड़ को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाता है.

लेकिन जब पहाड़ में खुद की सरकार बन गई, तब भी सरकारों का रवैया वैसा ही रहा जैसा लखनऊ में रहता था. पृथक राज्य बनने के बाद जिन स्थितियों में सुधार आना था वह अब भी जस की तस हैं. उत्तराखंड बनने के बाद लोग चाहते थे कि उत्तराखंड की जमीन पर उनका अधिकार होगा. वे चाहते थे कि भूमि सुधार पर काम हो और सरकार चकबंदी लागू करे. लोगों के पास रोजगार के साधन उपलब्ध हों. लेकिन कुछ बड़ी सियासी ताकतों के कारण सब ठप्प ही रहा. आज पहाड़ के लोगों को लगता है कि पृथक राज्य बनाने के नाम पर उन्हें ठग लिया गया. भ्रष्टाचार चरम पर है और गरीबी व बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है. पंचायती राज व्यवस्था मजबूत होने के बजाय उपेक्षित रह गई.

चकबंदी पर भी कोई काम नहीं हुआ. आज जल, जंगल और जमीन का बंदोबस्त निजी हाथों में जाता जा रहा है और इन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है. जबकि जल, जंगल, जमीन जैसे स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय जनता का अधिकार होना चाहिए था, जिससे गांव से लेकर राज्य तक का विकास होता. अंग्रेजों की तरह यहां की सरकार ने भी जंगलों से आम नागरिक का अधिकार छीन लिया. पहाड़ के मूल निवासी जंगलों से जुड़े रहे हैं, उनका पूरा रोजगार जंगल से जुड़ा रहा है, वे वहां पशुपालन करते रहे हैं और फिर उन पशुओं के माध्यम से दूध, ऊन और कपड़े वगैरह प्राप्त करने के साथ-साथ उन जानवरों की मदद से अपनी खेती का व्यवसाय भी करते रहे हैं. लेकिन सरकार ने लोगों को यह अधिकार देने के बजाय उसे अपनी ही कमाई का जरिया बना लिया.

साधारण नागरिक को वनों का प्रयोग करने की इजाजत नहीं है. कोई लकड़ी नहीं काट सकता. पहाड़ पूरी दुनिया को लकड़ी दे रहा है, लेकिन खुद यहां के लोगों की जरूरत के लिए लकड़ियों का अभाव है. उत्तराखंड में पहले ही जमीन का अभाव था. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पौड़ी की सम्पूर्ण जमीन में 67 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल है, बची जमीन पर खेती होती है.

कुछ जमीन बंजर है और शेष 2-3 प्रतिशत जमीन पर लोग रहते हैं. लोगों के पास पहले से ही जमीन की कमी थी और ऊपर से जंगलों को सुरक्षित रखने के नाम पर लोगों से उनका रोजगार भी छीना जा रहा है. ऐसे में पहाड़ में एक और समानान्तर आंदोलन सुगबुगा रहा है. आज हालत यह है कि उत्तराखंड के जल, जंगल और जमीन पर बाहरी ताकतों का हस्तक्षेप बढ़ गया है.

श्रम की स्थिति चिंताजनक है. एक रिपोर्ट कहती है कि महज तीन साल में 5339 स्न्वायर किलोमीटर वन क्षेत्र विकास के नाम पर बलि चढ़ा दिए गए और करोड़ों की आर्थिक हानि हुई. दूसरी तरफ जंगल के मूल निवासियों को वन संरक्षण के नाम पर बेदखल किया जा रहा है. वनों के घटने के कारण हर साल वर्षा के दिनों में, भूस्खलन, बाढ़ वगैरह से करोड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है. 2013 में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से 5700 यात्रियों की मौत हुई थी और प्रभावित पर्वतीय क्षेत्र में सड़कों के टूटने, दुकानों और होटलों के नदी में बहने के कारण भी राज्य में भारी जान-माल की क्षति हुई थी.

आपदा में 9510 पशुओं की जानें गईं थी, 175 पुल, 1307 सड़कें, 4207 घर और 649 पशुघर नष्ट हुए थे. इसके अतिरिक्त फसलों का भी भारी नुकसान हुआ था. आपदाओं के बढ़ने का मुख्य कारण वनों की अंधाधुंध कटाई है. अधिक धन कमाने के लिए वन माफियाओं द्वारा दुर्लभ जड़ी-बूटियों और लकड़ी की तस्करी के लिए पेड़ों को बड़े पैमाने पर काटा जा रहा है. इसके अलावा पर्यावरण संतुलन के मापदंडों की अवहेलना और अवैध निर्माण कार्यों से वन क्षेत्र लगातार घटते जा रहे हैं. लेकिन सरकारें या राजनीतिक दलों के लिए यह चिंता का विषय नहीं हैं.

उत्तराखंड में एक तरफ देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंहनगर जैसे मैदानी जिले आते हैं तो दूसरी तरफ उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौड़ागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, नैनीताल पर्वतीय जिले आते हैं. उत्तराखंड अपनी अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के कारण अलग-अलग किस्म की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं और चुनौतियों का सामना कर रहा है. इन चुनौतियों के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की बेरुखी के कारण लोगों में काफी असंतोष है.

विभिन्न सरकारों ने तमाम दावों और लोगों की बुनियादी जरूरतों की जानकारी होने के बावजूद उसे पूरा नहीं किया. हिमालय के बर्फ के ग्लेशियर केवल हिमालयी राज्यों के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए जीवन देने का काम करते हैं. इन ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियां पर्यावरण संतुलन बनाए रखती हैं. भारत की कृषि, वन, पशु-पक्षी, जीव-जन्तुओं का अस्तित्व इन्हीं नदियों के कारण है. ग्लेशियर नहीं होंगे तो देश रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा. राजनीतिक दल और जनप्रतिनिधि इस संवेदनशीलता को समझ ही नहीं पा रहे हैं.

उत्तराखंड संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय सीमांत प्रदेश भी है, इसकी अनदेखी भारत के लिए न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से, बल्कि देश की सुरक्षा के लिए भी घातक है. उत्तराखंड में भ्रष्टाचार में लिप्त जनप्रतिनिधियों, पूंजीपतियों और ठेकेदारों ने सरकारी तंत्र से मिलीभगत कर प्रकृति का घोर अनैतिक दोहन किया है. बारूदी विस्फोटों से सड़कें, भवन और सुरंगों का निर्माण पहाड़ी जिलों के लिए विनाशक साबित हुआ है. पहाड़ छलनी होकर दरक रहे हैं, इस वजह से बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं आम हो गई हैं और उत्तराखंड की जनता को बड़ी-बड़ी त्रासदियां झेलनी पड़ती हैं.

आजीविका और रोजगार के लिए स्थानीय लोगों का पलायन भी भीषण असंतुलन पैदा कर रहा है. उत्तराखंड का विकास प्राकृतिक संतुलन के साथ-साथ जन-हितकारी दृष्टिकोण से होना चाहिए. इसके लिए न्याय पंचायत स्तर पर मूलभूत सुविधाएं और रोजगार दिया जाना आवश्यक है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में छोटे-छोटे गांव हैं, उस पर पलायन के कारण परिवारों की संख्या बहुत कम रह गई है. ऐसे में प्रत्येक गांव में शिक्षा, चिकित्सा और वित्तीय सेवाएं पहुंचाना मुश्किल है.

इसलिए प्रत्येक न्याय पंचायत स्तर पर विकास का प्रारूप खड़ा किया जाना चाहिए. उत्तराखंड में कुल 670 न्याय पंचायतें हैं, जिसमें एक न्याय पंचायत के अंतर्गत 10 से 15 ग्राम पंचायतें आती हैं. स्थानीय जनता और कर्मचारियों को पर्यावरणीय संतुलित मूलभूत सुविधाएं और रोजगार के साधन न्याय पंचायत स्तर पर उपलब्ध करवाने होंगे.

प्रदेश के सबसे अच्छी प्रतिभा वाले शिक्षक सबसे अधिक संख्या में शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं, लेकिन फिर भी शिक्षा का स्तर इतना गिर चुका है कि सरकारी शिक्षा को लगभग फेल करार किया जा रहा है. सरकारी स्कूल केवल गरीब वर्ग के बच्चों के लिए ही पढ़ाई का जरिया बने हुए हैं. निजी स्कूलों की चांदी है. इसमें नेताओं, नौकरशाहों और शिक्षा माफियाओं का गठजोड़ काम कर रहा है. सम्पूर्ण शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन की जरूरत है. उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवा का बुरा हाल है. आयुष के नाम पर सरकार जनता को धोखा दे रही है. सुविधाओं और रोजगार की तलाश में उत्तराखंड से लोगों का पलायन लगातार जारी है. पलायन रोकने के लिए रोजगार का ढांचा न्याय पंचायत स्तर पर खड़ा किया जाना जरूरी है.

उत्तराखंड में सड़कों के मौजूदा स्वरूप से सुविधा कम और नुकसान अधिक हो रहा है. कई क्षेत्र अभी भी सड़क मार्ग से नहीं जुड़ पाए हैं. दूसरी तरफ सड़क बनाने के तरीके पुरातन और नुकसानदायक हैं. सड़क बनाने के तौर-तरीके से उत्तराखंड में बहुत तबाही हो रही है. उत्तराखंड राज्य बने इतना अर्सा हो गया, लेकिन आज भी यहां सड़क निर्माण रोड मैपिंग के आधार पर नहीं किया जाता. निर्माण कार्यों में स्टोन कटर तकनीक का इस्तेमाल करने के बजाय विस्फोटकों का इस्तेमाल जमकर हो रहा है और मलबा पहाड़ों से नीचे गिरा दिया जाता है.

मलबा नीचे आने से नदी का प्रवाह बाधित होता है और जहां नदी नहीं, वहां पेड़-पौधों को भारी नुकसान पहुंचता है. दूसरी तरफ नदियों का पानी ऊपर पहुंचाने का कोई ठोस तकनीक लागू नहीं किया जा रहा. जंगलों में आग भी पर्वतीय प्रदेश की भारी समस्या बनी हुई है. राजनीतिकारों को इससे कोई लेना देना नहीं.

चीड़ के जंगलों में आग से जीव-जगत नष्ट हो रहा है और पर्यावरण के लिए अत्यधिक घातक साबित हो रहा है. उत्तराखंड के किसानों को फसल का उच्चतम मूल्य एवं समय से भुगतान नहीं मिल रहा है. किसान गांव छोड़ने के लिए मजबूर हैं. राजनीतिक दलों के नेता अपने भाषणों में उत्तराखंड में अलग से हिमालय नीति लागू करने की बात तो करते हैं, लेकिन उस दिशा में कोई काम नहीं होता.

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून समेत मैदानी इलाकों में अपराध, भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न, अनियंत्रित ट्रैफिक जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं. इसके अलावा नदी के कछारी इलाकों में रेत-पत्थर चुगान और अवैध खनन बेतहाशा हो रहा है. खनन के धंधे में माफिया शामिल हैं और नेता उनके संरक्षक हैं. बड़े पैमाने पर हो रहे गैरकानूनी खनन से नदियां हर साल अपना रास्ता बदल दे रही हैं. दूसरी तरफ निर्माण के लिए जरूरी रेत, रोड़ी, पत्थर वगैरह आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है.

इसके लिए प्रदेश में कोई प्रभावी खनन नीति नहीं है और अवैध खनन रोकने में सरकार की कोई रुचि नहीं है. लगातार आपदाओं की मार झेल रहे इस प्रदेश के भूस्खलन वाले क्षेत्रों और टिहरी बांध जैसी बिजली परियोजनाओं के कारण बेदखल लोगों के लिए अभी तक कोई ठोस पुनर्वास नीति का भी निर्माण नहीं हो पाया है. असंगत विकास की कठिनाइयां झेल रहा टिहरी और प्रतापनगर क्षेत्र नाकारे राजनीतिक प्रबंधन का उदाहरण है.

उत्तराखंड जल बिजली परियोजनाओं का केंद्र बना हुआ है, लेकिन इस पर्वतीय प्रदेश के सैकड़ों गांवों में बिजली नहीं है. प्रदेश में जहां बिजली लाइन है वहां भी घंटों तक बिजली गुल रहना आम बात है. विडंबना यह है कि जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के नुकसान तो उत्तराखंड ने झेले लेकिन विद्युत उत्पादन में उत्तराखंड का हिस्सा सिर्फ 12.5 प्रतिशत आता है, जबकि बिजली परियोजनाओं में उत्तराखंड का लाभांश दोगुना किया जाना चाहिए.

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