masjid-abdul-nabi-copyवक्फ जायदाद पर कब्जे की कहानी काफी पुरानी है. कभी ब्रिटिश सरकार ने तो कभी आजादी के बाद भारत सरकार ने, कभी मौकापरस्त तत्वों ने तो कभी खुद मुसलमानों ने इस पर कब्जा जमाया और इसका जमकर फायदा उठाया. इस पर मिर्जा गालिब का यह शेर पूरी तरह से सही बैठता है- मैंने माना कुछ नहीं गालिब/ मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है.

हद तो ये है कि इस जायदाद पर कब्जा जमाने में कोई किसी से कमतर नहीं है. इस हमाम में सभी नंगे हैं. ये अलग बात है कि कब्जे के तरीके अलग-अलग हैं, लेकिन इन कब्जों के कारण वक्फ जायदाद के जो उद्देश्य थे, वे धीरे-धीरे पीछे छूटते चले गए. अजीब बात तो यह है कि इन कब्जों के खिलाफ जो मुसलमान नेता आवाज उठाते दिखते हैं, वे भी इस धंधे में शामिल नजर आते हैं. जो मुस्लिम वकील वक्फ जायदाद के मुकदमों को देखते हैं, वे भी इन जायदाद के संरक्षकों से साठगांठ कर जायदाद से फायदा उठाने वालों में शामिल हो जाते हैं.

हैरानी की बात तो यह है कि नई दिल्ली में आईटीओ स्थित मस्जिद अब्दुन नवी और मस्जिद-ए-गौसीयान उर्फ झील की प्याऊ और इसके आसपास की जमीन का इस्तेमाल जमीयत उलमा-ए-हिंद के दोनों धड़े (मौलाना महमूद मदनी और मौलाना असद मदनी) बेधड़क कर रहे हैं. ये नामवर शख्सियत अपने इस्तेमाल में लाई जा रही इस जमीन के बारे में कुछ नहीं बोलते हैं. लेकिन वक्फ के दूसरी जायदाद पर से कब्जे हटाने के लिए डंके की चोट पर आवाज उठाते हैं. तभी तो 27 अगस्त 2016 को इस्लामिक फिका एकेडमी के तत्वावधान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्‍वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार का उद्घाटन करते हुए मौलाना असद मदनी ने ये मांग की कि सभी वक्फ जायदाद से कब्जा हटाया जाए और उसकी व्यवस्था दुरुस्त की जाए.

अब रही बात जमीयत के दूसरे धड़े के नेता मौलाना महमूद मदनी की. वे भी अपने भाषणों में अक्सर वक्फ जायदाद की वापसी की बात करते रहते हैं, लेकिन मस्जिद-ए-अब्दुन नवी के संबंध में कुछ नहीं बोलते. मौलाना महमूद मदनी के आधिपत्य में मस्जिद-ए-अब्दुन नवी के आसपास की जमीन का मामला हाल में उस वक्त सामने आया जब 30 अगस्त 2016 को दिल्ली वक्फ बोर्ड की तरफ से उन्हें एक खत में साफ तौर पर कहा गया कि दिल्ली सरकार के मुताबिक गजट नोटिफिकेशन में आईटीओ स्थित मस्जिद-ए-अब्दुन नवी वक्फ बोर्ड की जायदाद है और वहां के ट्रस्टी या प्रबंधन समिति में जमीयत के उलेमा का नाम लिखा है. सेक्शन ऑफिसर खुर्शीद आलम फारुकी के द्वारा लिखे गए पत्र में ये भी दर्ज है कि दिल्ली वक्फ बोर्ड को मालूम हुआ है कि मस्जिद-ए-अब्दुन नवी से संबंधित जो जायदाद हैं, वे प्रबंधन समिति द्वारा किराए पर दिए गए हैं. गौरतलब है कि इस खत के जरिए मौलाना महमूद मदनी को ये बताया गया है कि वक्फ अधिनियम 1995 के सेक्सन 47 में कहा गया है कि सभी ट्रस्टी और व्यवस्था समितियों को वक्फ जायदाद का हिसाब-किताब वक्फ बोर्ड में दाखिल कराना लाजिमी है. लेकिन 1970 के बाद से अबतक जमीयत उलमा-ए-हिंद ने अब तक ऑडिट नहीं कराया. लिहाजा वो जल्द दिल्ली वक्फ बोर्ड में अपनी हिसाब किताब का ऑडिट दाखिल करवाएं.

चौथी दुनिया की जांच के मुताबिक मस्जिद-ए-अब्दुन नवी और उसके आसपास की जमीन पर जमीयत उलेमा-ए-हिंद (महमूद मदनी) द्वारा निर्माण कराई गई इमारतें भी हैं. इन इमारतों का निर्माण भी इस अंदाज से कराया गया है कि आईटीओ चौक से ये दिखाई नहीं देती हैं. दिलचस्प बात ये है कि ये इमारतें दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर के करीब हैं. इस सिलसिले में जब भी जमीयत (महमूद मदनी) के किसी जिम्मेदार व्यक्ति से बात की गई तो जवाब मिला कि चौथी दुनिया ने ये बेवजह ये मसला छेड़ रखा है क्योंकि उसे ये अधिकार तो मुल्क के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने दिया था. सवाल ये है कि वक्फ जायदाद को मौलाना आजाद ने किस हैसियत से जमीयत को दिया था और आखिर क्यों जमीयत इस संबंध में कोई दस्तावेज दिखाने से आनाकानी करती है.

उसी तरह जमीयत (अरशद मदनी) के मौलाना फजलुर्रहमान मथुरा रोड पर लिंक हाउस के सामने मस्जिद-ए-गौवसियान (झील की प्याऊ) में समय समय पर जमे रहते हैं. यही हाल आजाद मार्केट रोड (पुरानी दिल्ली) स्थित मस्जिद-ए-तकिया वाली का है, जहां बाहर से तो लगता है कि सिर्फ मस्जिद है लेकिन अंदर जाते ही काफी बड़ी इमारत दिखाई देती है, जिसमें मदरसा तजवीदुल कुरान और बहुत ही खूबसूरत आरामदायक मेहमान खाना है.

गौरतलब है कि अमानतुल्लाह खान की अगुवाई में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वक्फ की जमीन लीज पर लेकर चलाए जा रहे शिक्षण संस्थानों और वक्फ की जमीन पर स्थित मस्जिदों के प्रांगण का किराया वसूल करने वालों पर शिकंजा कसा है. इस सिलसिले में न्यू होराइजन स्कूल और क्रिसेन्ट स्कूल के अलावा कस्तुरबा गांधी मार्ग स्थित मस्जिद-ए-कर्जन को भी नोटिस भेजा गया है.

दिल्ली वक्फ बोर्ड के हरकत में आने और खुद मुस्लिम संगठनों और संस्थानों के द्वारा वक्फ जायदाद को इस्तेमाल करने की बात उठने से संबंधित संगठनों और संस्थानों में खलबली मची हुई है. इस संबंध में चौथी दुनिया ने सबसे पहले एक विशेष रिपोर्ट (अंक 27 जनवरी से 2 फरवरी 2014) प्रकाशित की थी. उस वक्त ये रिपोर्ट दिल्ली के 123 वक्फ जायदाद की मालिकाना कब्जे से संबंधित फैसले की पृष्ठभूमि में तैयार की गई थी. इस रिपोर्ट में दिल्ली की 123 वक्फ जायदाद की सूची भी दी गई थी जो पहली बार किसी अखबार में छपी थी. दिलचस्प बात तो यह है कि जब इस संवाददाता ने बाद में दिल्ली वक्फ बोर्ड समेत कई संगठनों और संस्थानों से इस संबंध में जानकारी मांगी तो चौथी दुनिया की पहली रिपोर्ट के साथ-साथ यहीं प्रकाशित दूसरी रिपोर्ट दे दी गई.

बहरहाल, ये महत्वपूर्ण सवाल है कि 123 वक्फ जायदादों की क्या हैसियत है? साल 2014 में मनमोहन सिंह सरकार के वक्त 123 वक्फ जायदाद में 61 लैंड एंड डेवलपमेंट ऑफिस जबकि शेष 62 दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के कब्जे में थी जिनमें से कुछ तो सरकार के इस्तेमाल में थी तो कुछ मुस्लिम संगठनों और व्यक्तियों के कब्जे में थी. इन जायदाद में ज्यादातर कनॉट प्लेस, मथुरा रोड, लोधी रोड, मानसिंह रोड, पंडारा रोड, अशोक रोड, जनपथ, पार्लियामेंट हाउस, करोल बाग, सदर बाजार, आजाद मार्केट, दरियागंज, आईटीओ, निजामुद्दीन और जंगपुरा में स्थित है. हर जायदाद से एक मस्जिद लगी हुई है जबकि कुछ में दुकानें और मकान भी हैं.

वक्फ की जायदाद आम लोगों की भलाई के लिए एक बेहतरीन और कारगर जरिया होती है. भारत में कुल 60 लाख एकड़ जमीन पर 4.9 लाख रजिस्टर्ड वक्फ जायदाद है. इन जायदादों की व्यवस्था अगर बेहतर तरीके से की जाए तो विशेषज्ञों का कहना है कि हिंदुस्तान के मुसलमानों के हर क्षेत्र के पिछड़ेपन को आसानी से दूर किया जा सकता है. गौरतलब है कि 1980 के दशक में जब शाहबानो मुकदमे का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था तो मुसलमानों में बहुत बेचैनी पैदा हुई थी. तब मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मिले और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप बताते हुए उसे अध्यादेश के जरिए दुरुस्त करने की अपील की थी. राजीव गांधी उनकी बात से संतुष्ट तो हो गए मगर फौरन सवाल किया कि शाहबानो जैसी महिलाओं का क्या हश्र होगा? उनकी खबर कौन लेगा? तब मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी ने कहा था कि अगर वक्फ जायदाद की व्यवस्था को दुरुस्त कर लिया गया तो इस तरह की तमाम समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं. मौलाना की यही दलील थी जिससेे राजीव गांधी कुछ हद तक संतुष्ट हो गए और सुप्रीम कोर्ट की मुस्लिम पर्सनल लॉ पर लटकी तलवार टल गई थी. मगर 30 वर्ष बाद वक्फ कानून में कई बदलाव और कई प्रयासों के बाद आज भी वक्फ जायदाद की व्यवस्था की समस्या जस की तस बनी हुई है. तुर्रा ये कि इन जायदादों के साथ खिलवाड़ और राजनीति का बाजार गरम है और कुछ जायदादों के साथ तो सौदेबाजी तक हो रही है.

विडंबना तो यह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड भी इस संबंध में अपना रुख साफ नहीं करता है. तभी तो मुंबई में सुप्रसिद्ध उद्योगपति मुकेश अंबानी के 27 मंजिला इनटेलिया महल के संबंध में उनके हक में मुंबई हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था, उसे सुप्रीम कोर्ट में बार-बार स्टे मिलता जा रहा है. विडंबना यह है कि इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानूनी सलाहकार और मशहूर वकील युसूफ हातिम मछाला मुकेश अंबानी के वकील के तौर पर काम कर रहे हैं. मछाला ने इस मामले में मुंबई हाईकोर्ट में अंबानी की वकालत की थी और उनके एंटेलिया महल के हक में फैसला कराने में कामयाब हुए थे. और जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो वहां भी ये अंबानी को बार बार स्टे दिलाते आ रहे हैं.

कहानी ये है कि मुकेश अंबानी ने मस्जिद और यतीम खाने को तोड़ कर वक्फ की जमीन को खरीद लिया था और फिर उसपर 27 मंजिला एंटेलिया महल का निर्माण हुआ था. जब उस समय मुंबई में हो रहे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक कार्यक्रम में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की गई तो बोर्ड के जेनरल सेक्रेटरी मौलना सैयद निजामुद्दीन ने यह कहकर इसे उठाने से इनकार कर दिया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सिर्फ बाबरी मस्जिद और उसके साथ की वक्फ की जमीन के मामलों को देखता है, बाकी के अन्य मामलों को नहीं देखता. जाहिर है मौलाना निजामुद्दीन का यह रवैया युसूफ हातिम मछाला के मुकेश अंबानी के वकील होने के कारण था.

यह कैसी अजीब बात है कि ऐसे मुसलमान शख्सियत, जिनपर मुसलमान ही नहीं बल्कि संजीदा गैर मुस्लिमों को भी भरोसा है, सरकार और दूसरे स्वार्थी तत्वों के जरिए वक्फ जायदाद पर कब्जे की बात तो करते हैं, लेकिन जब मामला उन्हीं लोगों में से किसी एक से जुड़ा होता है तो अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और चुप्पी साध लेते हैं.

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