parsa_protest11सितंबर 2016 को सरगुजा ज़िले के हसदेव अरण्य क्षेत्र स्थित पर्सा ईस्ट केंटे बासन कोल माइन के विस्तार के लिए पर्यावरणीय जनसुनवाई का आयोजन किया गया. अदानी कंपनी द्वारा संचालित राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड की इस खदान की क्षमता 10 एमटीपीए से बढ़ाकर 15 एमटीपीए किये जाने को लेकर यह जनसुनवाई हुई. परंतु इस संबंध में तैयार की गई पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट में कई अहम तथ्यों को छुपाया गया और इस परियोजना की एनजीटी द्वारा वन स्वीकृति के निरस्तीकरण या इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस का कोई ज़िक्र ही नहीं किया गया.

पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नोटिफिकेशन नियमों के अनुसार परियोजना से संबंधित गलत या भ्रामक जानकारी देना या किसी अहम जानकारी को छुपाना कानूनी अपराध है और परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के निरस्तीकरण का अपने आप में ही पूर्ण आधार है. इस संबंध में यह बात नोट करने लायक है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 23 मार्च 2014 को पर्सा ईस्ट केंटे बासन खदान की वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति को निरस्त कर दिया था और आदेश दिया था कि पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति इस परियोजना की पुनः जांच करे. साथ ही एक समग्र अध्ययन करे कि क्या यह क्षेत्र पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण है कि कोयला खनन के लिए इसका विनाश नहीं किया जा सकता. गौरतलब है कि एनजीटी ने अपने फैसले में इस बात का विशेष उल्लेेख किया था कि वन सलाहकार समिति लगातार इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए कोयला खनन का विरोध करती रही है. इस सलाह के उलट परियोजना को मिली वन डायवर्सन की स्वीकृति ना सिर्फ गैर कानूनी है, परन्तु इसमें कई अहम सवालों की अनदेखी की गयी है. एनजीटी ने कहा था कि इस क्षेत्र में भरपूर जैव विविधता, दुर्लभ पशु-पक्षी तथा हाथी कॉरीडोर होने की जानकारी के चलते खनन स्वीकृति से पूर्व इसका समग्र अध्ययन अत्यंत आवश्यक है.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2014 को निर्देश दिए कि मामले की सुनवाई पूरी होने तक और पर्यावरण मंत्रालय की जांच के पश्‍चात नए निर्देश आने तक मौजूदा खनन कार्य जारी रह सकता है. परन्तु सुप्रीम कोर्ट में चल रही कानूनी प्रक्रिया को नज़रंदाज़ कर और पर्यावरण मंत्रालय के वन सलाहकार समिति के किसी अध्ययन एवं अंतिम निर्देश के पूर्व ही इस खनन परियोजना का विस्तार किया जा रहा है. साथ ही कम्पनी के निर्देश पर तैयार पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट ने यह तक बताना ज़रूरी नहीं समझा कि इस संबंध में कोई भी नई प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से प्रभावित होगी. साथ ही इस परियोजना विस्तार के कारण वन सलाहकार समिति का लंबित अध्ययन ही बेमानी  हो जाएगा क्यूंकि जांच का मूल आधार ही जांच से पूर्व नष्ट हो जाएगा. सा़ङ्ग है कि परियोजना विस्तार की यह मंशा कानूनी प्रक्रिया का एक भद्दा मज़ाक है और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के प्रति कंपनी की अत्यंत असंवेदनशीलता का गहरा उदाहरण है .

पर्यावरणीय स्वीकृति के संबंध में हुई जनसुनवाई से एक और अहम सवाल उत्पन्न होता है. क्या ऐसे किसी परियोजना को नई पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है जिसकी वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति ही निरस्त हो चुकी हो या फिर क्या संवेदनशील इलाकों में वन स्वीकृति के बिना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है. इसका जवाब शायद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के  31 नवम्बर 2011 के निर्देश में ढूंढा जा सकता है जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि वन स्वीकृति के बिना या उसकी प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है और ना ही इस संबंध में कोई कार्यवाही की जा सकती है. गौरतलब है कि इस निर्देश वाले पत्र का ज़िक्र तो कंपनी की रिपोर्ट में किया गया है लेकिन इस निर्देश के पालन की दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया क्यूंकि कानूनी रूप से इस परियोजना की वन स्वीकृति निरस्त की जा चुकी है और उस पर सुप्रीम कोर्ट में केस लंबित है. छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन ने 11 सितम्बर को होने वाली जनसुनवाई निरस्त करने की मांग की थी. इस आंदोलन की मांग थी कि कंपनी द्वारा जनता को भ्रमित करने के प्रयासों को तुरन्त रोका जाए. साथ ही केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय कानूनी निर्देशों का पालन करते हुए वन सलाहकार समिति को इस क्षेत्र के संपूर्ण समग्र अध्ययन के तुरंत निर्देश दे, जिसमें एनजीटी द्वारा निर्देशित सभी 7 मुद्दों और प्रश्‍नों की जांच शामिल हो. छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से पूर्व इस परियोजना का कोई विस्तार नहीं किया जाना चाहिए अन्यथा इस क्षेत्र के पर्यावरण, जैव विविधता और आदिवासी संस्कृति का विनाश हो जायेगा.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के कोरबा, सरगुजा एवं रायगढ़ जिलों में फैला हसदेव अरण्य वन एवं आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है. यह क्षेत्र संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत आता है. यहां पर रहने वाले आदिवासियों की आजीविका, संस्कृति और जीवन-शैली पूर्ण रूप से जंगल और खेती पर निर्भर है, जिसका वो पीढ़ियों से संरक्षण एवं संवर्धन करते आए हैं. यह इलाका बहुत ही समृद्ध तथा जैव विविधता से परिपूर्ण है और कई महत्वपूर्ण वन्य-जीवों का आवास स्थल भी है. इसलिए यह वन सम्पदा न सिर्फ स्थानीय, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. 2009 में इस सम्पूर्ण कोल फील्ड को खनन के लिए नो गो क्षेत्र घोषित किया गया था. लेकिन, इसके बाद भी इस इलाके  में कोयला खदानों का आवंटन किया गया. छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन इस मसले पर कई वर्षों से विरोध करता रहा है.

इसकी मांग है कि हसदेव अरण्य क्षेत्र में आवंटित कोयला खदानों को तुरंत निरस्त किया जाए और पूरे हसदेव अरण्य को खनन से मुक्त रखा जाए. इसके साथ ही हसदेव अरण्य क्षेत्र के करीब 20 ग्राम सभाओं ने एक प्रस्ताव पारित कर यह साफ़ कर दिया था कि वे अपने क्षेत्र में होने वाले कोल ब्लॉक आवंटन और कोयला खनन का विरोध करेंगे. लेकिन कोल ब्लॉक आवंटन के वक्त ग्राम सभाओं के इस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. यहां के निवासियों  का कहना है कि चूंकि हमारे क्षेत्र में पेसा एक्ट (पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया एक्ट, जो आदिवासी इलाकों को विशेषाधिकार देता है) लागू है, इसलिए किसी भी कोल ब्लॉक के लिए जमीन अधिग्रहण करने से पहले सरकार को यहां की ग्राम सभाओं की अनुमति लेनी जरूरी है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

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