bakckk-copyसमाजवादी पार्टी और समाजवादी सरकार, दोनों चलती हुई तो दिख रही है, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों चलने का उपक्रम कर रही है. दोनों यह दिखाने का निरर्थक प्रयास कर रही है कि सब कुछ सामान्य चल रहा है, लेकिन असलियत यही है कि कुछ भी सामान्य नहीं चल रहा है. अब सरकार अलग है और पार्टी अलग. शिवपाल यादव सरकार में मंत्री हैं यह अखिलेश की विवशता है और अखिलेश यादव पार्टी में हैं, यह शिवपाल की विवशता है. दोनों एक दूसरे के समर्थकों को बाहर का रास्ता दिखा कर एक दूसरे को निकालने का मनोवैज्ञानिक सुख प्राप्त कर रहे हैं. शिवपाल अखिलेश विवाद में मुलायम भी पार्टी हैं और रामगोपाल भी. मुलायम शिवपाल की तरफ खड़े हैं और रामगोपाल अखिलेश की तरफ. रामगोपाल और अखिलेश ने विवाद के लिए मबाहर का आदमीफ अमर सिंह को दोषी बताया, तो मुलायम सिंह ने अमर को महासचिव बना कर मअंदर के आदमीफ की मान्यता दे दी. पार्टी के नेता कहते हैं कि अब तो बड़ा कन्फ्यूजन है, अंदर का आदमी कौन है और बाहर का आदमी कौन, इसका पता ही नहीं चल रहा. संशय का ऐसा माहौल बना हुआ है कि कोई भी नेता या कार्यकर्ता किसी से भी मिलने से कतरा रहा है कि पता नहीं कौन किस खेमे में डाल दे और अंदर वाला बाहर हो जाए और बाहर वाला अंदर. चुनाव के वक्त ऐसा डरावना माहौल है, तो परिणाम के भी भयानक ही होने का अंदेशा है. सियासी फायदे और नुकसान के बरक्स प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सामाजिक तौर पर लाभ की तरफ हैं, क्योंकि ओछी सियासत देख-भांप रहे आम लोग अखिलेश की तरफ नैतिक पलड़ा भारी देख रहे हैं.

यों तो अखिलेश तनातनी के बीच ही सरकार चलाते रहे, लेकिन चुनाव नजदीक आने के साथ ही सारे तनाव सतह पर आ गए, क्योंकि मकौन किसके साथफ, इसे तय करने का यही सटीक समय था. कौमी एकता दल का सपा में विलय-प्रसंग लिटमस टेस्ट था. इस टेस्ट में ही अखिलेश का प्रतिकारी स्टैंड स्पष्ट हो गया. हालांकि बर्खास्त किए गए मंत्री बलराम यादव मंत्रिमंडल में फिर से वापस आ गए, लेकिन तनातनी और बढ़ती ही चली गई. अब शिवपाल ने आखिरी अस्त्र का इस्तेमाल किया. लखनऊ में नहीं, मैनपुरी जाकर सरकार के प्रति अपना शोक ज्ञापित किया और इस्तीफा देकर वृष्टि-छाया-क्षेत्र में चले जाने की इच्छा जताते हुए मुलायम के निर्णयों पर सारा दारोमदार रख दिया. शिवपाल की यह सही और सटीक चाल थी. 15 अगस्त को पार्टी के लखनऊ मुख्यालय में स्वतंत्रता दिवस समारोह में ही मुलायम ने मुख्यमंत्री अखिलेश के समक्ष आपा खो दिया. मुलायम ने बिल्कुल खम ठोकते हुए कहा कि शिवपाल नहीं तो पार्टी नहीं. इसके बाद फिर से संधि का उपक्रम चला. लेकिन इन्हीं उपक्रमों में एक-दूसरे पर तीखे-मीठे कटाक्ष और व्यंग्यात्मक प्रहार भी जारी रहे. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अचानक आक्रामक तेवर दिखाते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव दीपक सिंघल को बाहर का रास्ता दिखा दिया. अभी सब हतप्रभ ही थे कि प्रदेश के खनन मंत्री गायत्री प्रजापति के भ्रष्टाचार की सीबीआई से जांच कराने का आदेश जारी कर सुप्रीम कोर्ट ने अखिलेश को एक और मौका दे दिया. अखिलेश ने गायत्री प्रजापति को कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया. अर्थ के इतने बड़े स्रोत पर सीधा हमला! नेतृत्व बिफर पड़ा. मुलायम अपना गुस्सा रोक नहीं पाए और कह ही डाला कि प्रजापति की बर्खास्तगी के बारे में उन्हें भी मीडिया से ही पता चला है.

फिर तो एक दूसरे को औकात दिखाने की कार्रवाई चल पड़ी. मुलायम भी अब सीधे पार्टी बन गए. उन्होंने अखिलेश को सपा के प्रदेश अध्यक्ष से पद से हटा कर शिवपाल को अध्यक्ष बना डाला. इस पर अखिलेश ने मंत्रिमंडल से शिवपाल के महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. शिवपाल ने फिर से इस्तीफे का दाव चला. फिर संधि के लिए शिखर वार्ताएं होने लगीं. अखिलेश को समझौता करना पड़ा. उन्होंने शिवपाल के विभाग (लोक निर्माण छोड़ कर) लौटा दिए. लेकिन अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष का पद वापस नहीं मिला. अखिलेश प्रदेश संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बना दिए गए. सार्वजनिक तौर पर दिखाया जाने लगा कि विवाद निपट गया और संधि हो गई. कैमरे के सामने साझा-मुस्कान का प्रहसन भी खेला गया. लेकिन महाभारत तो चालू ही था. शिवपाल ने प्रदेश अध्यक्ष बनते ही अखिलेश के तमाम समर्थकों को पार्टी से निष्कासित करने का जैसे अभियान ही चला दिया. शिवपाल ने विधान परिषद सदस्य सुनील सिंह यादव, आनंद भदौरिया और संजय लाठर समेत मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष गौरव दुबे और प्रदेश अध्यक्ष मोहम्मद एबाद, युवजन सभा के प्रदेश अध्यक्ष बृजेश यादव और समाजवादी छात्रसभा के प्रदेश अध्यक्ष दिग्विजय सिंह देव को पार्टी से बाहर निकाल दिया. प्रो. रामगोपाल यादव के भांजे और विधान परिषद सदस्य अरविंद सिंह यादव को पार्टी से बाहर निकाल कर शिवपाल आमने-सामने के युद्ध की शुरुआत पहले ही कर चुके थे. शिवपाल ने बाद में बयान दिया कि निकाले गए नेता सपा प्रमुख के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने के आरोपी हैं. इस निष्कासन से सपा के घरेलू विवाद ने राजनीतिक तूल पकड़ लिया. सपा संगठन के प्रदेश भर के युवा नेताओं ने अखिलेश के समर्थन में अपने इस्तीफे दे दिए. सड़कों पर भी उग्र विरोध हुए.

इस बीच मुलायम ने राज्यसभा सदस्य अमर सिंह को राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर विवाद को और भी गहरा कर दिया. एक दिन पहले ही राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने मीडिया के सामने यह बयान दिया था कि बाहरी आदमी अमर सिंह ही पार्टी में सारी गड़बड़ी के जिम्मेदार हैं. अखिलेश ने भी मीडिया के सामने बाहरी आदमी की पुष्टि की थी और कहा था कि अब वे अमर सिंह को अंकल नहीं बोलेंगे. मुलायम को यह नागवार गुजरा, उन्होंने आनन-फानन अमर सिंह को अंदर का आदमी बना कर रामगोपाल और अखिलेश दोनों का मुंह बंद कर दिया. राजनीतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि सपा का यह संक्रमण काल है. कौन किसके समक्ष आत्मसमर्पण कर देगा, किन शक्तियों के हाथ में सपा का नेतृत्व होगा और पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा यह सब तय होने का समय आ गया है. अखिलेश ने अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में ही सही, अपना कद बड़ा दिखाने का काम तो किया ही है. मुलायम के पसंदीदा मंत्री गायत्री प्रजापति को बर्खास्त करना और शिवपाल के पसंदीदा मुख्य सचिव दीपक सिंघल को पद से बाहर कर देना यही बताता है. अखिलेश ने सियासत की दुनिया को यह भी दिखाया कि मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता को भी चुनाव जीतने के लिए अमर सिंह की जरूरत महसूस होती है, लेकिन वे (अखिलेश) अकेले अपने और अपने कार्यकर्ताओं के बूते चुनाव जीतने का दम रखते हैं. शिवपाल जैसे कद्दावर मंत्री के विभाग छीन कर भी अखिलेश ने अपनी दृढ़ता और मजबूती का प्रदर्शन किया. शिवपाल जैसे नेता को भी अपने बचाव के लिए मुलायम का सहारा लेना पड़ा. इसे आम लोगों ने समझा और परखा है. सब कुछ हो जाने के बावजूद अखिलेश ने शिवपाल को लोक निर्माण विभाग जैसा दुधारू विभाग वापस नहीं दिया, उसे अपने पास ही रखा. प

सपा के टूटने के बोल, भाजपा का क्या रोल!

राजनीतिक गलियारे की अंदरूनी खबर रखने वालों का यह भी कहना है कि सपा के विवाद को भाजपा हवा दे रही है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ऐसे तोड़फोड़ और तिकड़मों में माहिर माने जाते हैं. भाजपा के समर्थन से सुभाष चंद्रा के राज्यसभा का सदस्य बनने की खुशी में अमर सिंह ने दिल्ली में पंचसितारा भव्यता वाला कार्यक्रम क्यों रखा था? पार्टी-लाइन के पार जाती इस खुशी की वजह केवल मित्रता थी या भाजपा? फिर इस पार्टी में शरीक होने पर अखिलेश यादव इतने नाराज क्यों हो गए कि उन्होंने दीपक सिंघल को मुख्य सचिव के पद से फौरन खदेड़ भगाया! अखिलेश भी इस पार्टी में शरीक नहीं हुए, जबकि उनके पिता मुलायम और चाचा शिवपाल मौजूद थे. भाजपा बसपा में भगदड़ मचा चुकी है. बसपा के कद्दावर नेता भाजपा में शरीक हो चुके हैं. सपा ही अकेली ऐसी पार्टी बची थी, जिससे भाजपा को सीधा खतरा था. सपा में कलह-वाइरस से घबरा कर कई नेताओं के भाजपा में खिसकने की चर्चा है. सपा के कई नेताओं को यह आशंका है कि अखिलेश के हाथ से प्रदेश अध्यक्ष का पद चले जाने से उनका टिकट कट सकता है. लिहाजा, ऐसे नेताओं को भाजपा अपने पाले में लाने की तैयारी में है. विरोधी दलों को हतोत्साहित करने की अमित शाह की रणनीति बसपा के बाद सपा पर कारगर होती दिख रही है. कम संख्याबल वाली कांग्रेस का भी एक विधायक भाजपा में शामिल हो चुका है.

अभी हाल तक अखिलेश यादव और सरकार की उपलब्धियों का बखान करते सपा नेता अघा नहीं रहे थे. पूरी पार्टी अखिलेश के नेतृत्व में चुनाव में उतरने की पूरी तैयारी और जोश में थी, लेकिन अचानक ब्रेक क्यों लग गया? अब पार्टी में चुनाव के बजाय मकौन किस पाले मेंफ की चर्चा क्यों हावी है? अब अखिलेश के विकास के नारे और चुनावी चेहरे पर पार्टी आलाकमान ने चुप्पी क्यों साध रखी है? इन सवालों का अर्थ तलाशा जाना चाहिए. सपा का महाभारत महज सियासी वर्चस्व की वजह से है, यह बता कर इस गंभीर मसले का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता. इस विवाद की जड़ में कोई सिद्धांत नहीं, कोई विचार नहीं, कोई वर्चस्व की लालसा नहीं, बल्कि इसके पीछे नियोजित रणनीति है, जिसका विषाणु बाहर से घर में दाखिल होकर घर के लोगों को बाहर कर रहा है. इसके पीछे गहरे राजनीतिक लक्ष्य हैं. यह विषाणु इतना घातक है कि जिस पिता ने शिवपाल आजम जैसे दिग्गजों की राय दरकिनार कर बेटे को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया, वही अब उसे अपना विरोधी मान रहा है! वही पिता यहां तक कहने लगा कि अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा! वही पिता अपने मुख्यमंत्री पुत्र पर यह सार्वजनिक आरोप लगाने से नहीं हिचका कि पार्टी और सरकार में कुछ भी ठीक नहीं है. अखिलेश का कोई नियंत्रण नहीं है! वही पिता यह बोल गए कि शिवपाल नहीं तो पार्टी नहीं!

लब्बोलुबाव यह है कि सपा में कलह पसारने के लिए ऐसा ही संवेदनशील वक्त चुना गया, जब चुनाव सामने है. पार्टी के टूटने और बंटने की चर्चाएं मतदाताओं को तो बांटने का काम कर रही हैं. यह भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है. कुछ विश्‍लेषकों का यह भी चिंतन है कि चुनाव में कम सीटें मिलने पर भाजपा सपा के ही किसी एक धड़े को समर्थन देकर सरकार बनवा सकती है. पार्टी में अभी जिस तरह की कलह है, उससे चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने की दो-तीन महत्वाकांक्षाओं के टकराने की पूरी आशंका है, ऐसे में भाजपा किसी एक ममहत्वाकांक्षीफ के साथ सत्ता निर्माण का मखेलफकर सकती है.

एक सरपट चर्चा यह भी…

सपा में बड़ी तेज चर्चा है. छह अक्टूबर को आजमगढ़ रैली में मुलायम के सत्ता अधिग्रहण की घोषणा होगी. मुलायम के मुख्यमंत्रित्व और नेतृत्व में सपा चुनाव लड़ेगी. यह चर्चा भले ही चंडूखाने से निकली हो, लेकिन दौड़ सरपट रही है. यह भी शिगूफा उड़ रहा है कि अखिलेश मुख्यमंत्री का पद नहीं सौंपेंगे और विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर अपने मकेयर-टेकिंगफ में चुनाव कराएंगे. चर्चा तो चर्चा है, लेकिन बहुत दमदार है.

चुन-चुन कर मारेंगे, भले ही चुनाव हारेंगे

मचुन-चुन कर मारेंगे, भले ही चुनाव हारेंगेफ वाला हास्य संवाद सपा के गलियारे में खूब चल रहा है. यह चर्चा सरगर्म इसलिए भी है कि मुख्यमंत्री के पर कतरे जाने का सिलसिला तेजी से जारी है. मुलायम के आदेश पर अखिलेश यादव ने मंडी परिषद के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. लोक निर्माण विभाग की तरह ही बड़े बजट वाले विभाग के रूप में मंडी परिषद की पहचान है. मुलायम के करीबी काशीनाथ यादव को मंडी परिषद का नया अध्यक्ष बनाया गया है. अखिलेश को दरकिनार करके सपा में संगठनात्मक तौर पर बदलाव की गति तेज कर दी गई है. चार और विधायकों के निष्कासन की तैयारी है. संग्राम यादव, मुकेश श्रीवास्तव, राजू यादव और एमएलसी संतोष यादव सनी अब शिवपाल के निशाने पर हैं. इनके अलावा 60 अन्य लोगों को भी ठिकाने लगाने की भूमिका तैयार है. दरअसल, उन सारे सपाइयों को बाहर निकाला जा रहा है, जो अखिलेश के समर्थन में सड़कों पर उतर आए थे. उन्हें अनुशासनहीन करार दिया जा रहा है.

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