बात उस दौर की है, जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं. एक दिन प्रधानमंत्री आवास पर एक शख्स एक ब्रीफकेस लेकर आया. उस समय की विपक्षी पार्टियों की मानें तो ब्रीफकेस नोटों से भरा हुआ था. पैसे के लेनदेन का यह सारा खेल उस समय पार्टी के लिए फंड जुटाने वाले नेता ललित नारायण मिश्र के ज़रिए हुआ. मुमकिन है कि प्रधानमंत्री को यह बात मालूम न हो कि यह पैसा कहां से आया और किसने दिया, लेकिन ललित नारायण मिश्र यह बात बख़ूबी जानते थे कि यह सोवियत पैसा है. लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि आख़िर सोवियत संघ से इतना पैसा कांग्रेस पार्टी के लिए क्यों आया? दरअसल, नोटों से भरा यह ब्रीफकेस सोवियत संघ की राजधानी मॉस्को से केजीबी ने भेजा था. यहां एक और सवाल उठता है कि आख़िर केजीबी क्या थी और भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी क्या दिलचस्पी थी?
केजीबी यानी कोमितयेत गोसुदारस्त्वजेनोज़ बिज़ोपासनोस्ती या आम हिंदी में कहें तो केजीबी का मतलब है सोवियत राज्य सुरक्षा समिति. लेकिन तीन अक्षरों के इस नाम का सही मतलब दरअसल रहस्य, ख़ौ़फ और आतंक है. अपने समय में केजीबी को दुनिया की सबसे ताक़तवर ख़ु़फिया सर्विस के तौर पर जाना जाता रहा है. इसके आतंक और असर को इसी से समझा जा सकता है कि अपने अंत के कई सालों बाद भी पूर्व सोवियत संघ की इस सीक्रेट एजेंसी का नाम आज भी अंतरराष्ट्रीय ख़ु़फिया षड्‌यंत्रों से जुड़ा है.
बात 1954 की है. उस दौरान यानी 1953 से 1964 तक सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे निकिता ख्रुश्चेव. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ की सत्ता संभालने के बाद उनको यह एहसास हो चला था कि साम्यवादी सरकार एवं विचारधारा को मज़बूती देने और प्रसार के लिए एक ऐसी एजेंसी की ज़रूरत है, जो उनके इस मक़सद में उनका साथ दे सके. हालांकि 1954 के पहले कई एजेंसियां सोवियत संघ के लिए काम करती थीं, लेकिन अपना प्रभाव बढ़ाते जा रहे इस साम्यवादी देश के लिए यह नाका़फी था. नतीजतन 1954 में ख्रुश्चेव ने पीपुल्स कमीशैरियत फॉर इंटरनल अफेयर्स संगठन को रद्द कर दिया. यही वह एजेंसी थी, जो केजीबी के अस्तित्व में आने से पहले सोवियत संघ को ख़ु़फिया जानकारियां मुहैया कराती थी, लेकिन इसकी जगह एक नई ख़ु़फिया एजेंसी केजीबी ने ले लिया. केजीबी का आतंक उन दिनों कुछ ऐसा था कि इसके बारे में यहां तक कहा जाने लगा कि यह राज्य के अंदर ख़ुद एक राज्य है. यानी सोवियत संघ ने इसको इतनी शक्तियां दे रखी थीं कि इसके ख़िला़फ लोग कुछ भी कहने की ज़हमत तक नहीं उठाते थे. केजीबी के सांगठनिक ढांचे की बात करें तो इसका प्रमुख चेयरमैन कहलाता था, जिसकी बहाली पोलित ब्यूरो द्वारा होती थी.

केजीबी के काम करने का तरीक़ा और उसका मुख्यालय इतने रहस्यमय होते थे कि इसकी जानकारी ख़ु़फिया दुनिया की किसी भी एजेंसी को नहीं होती थी. यहां तक कि केजीबी एजेंट को भी इसके मुख्यालय की जानकारी नहीं होती थी. केजीबी का ख़ौ़फ कुछ ऐसा था कि लोग इसके बारे में बात करने से भी डरते थे. इसी  से केजीबी के काम करने के रहस्यमयी अंदाज़ का अनुमान लगाया जा सकता है.

यह पोलित ब्यूरो सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यकारी इकाई होता था. इस एजेंसी की अहम रणनीतियों में फैसला केजीबी कॉलेजियम लेती थी. केजीबी और दूसरे देशों की ख़ु़फिया एजेंसियों में जो सबसे बड़ा फर्क़ था, वह यह कि अमेरिकी एजेंसियों में एफबीआई और सीआईए क्रमश: आंतरिक और विदेशी मिशन की कमान संभालती हैं, जबकि केजीबी आंतरिक और विदेशी दोनों मिशन के दायित्वों को संभालती थी. लेकिन इन ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए केजीबी में कई निदेशालय होते थे, जो अलग-अलग क्षेत्रों के कार्यों की ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी निभाते थे. केजीबी का आतंक आधिकारिक तौर पर 14 ग़ैर सोवियत संघ देशों में फैला था. यह महज़ आधिकारिक जानकारी है, जबकि असल में इसके एजेंट दुनिया के हर कोने में मौजूद थे. एक व़क्त तो इसका ख़ौ़फ यहां तक बढ़ गया कि लोग इसका नाम ज़ुबां पर लाने से भी डरते थे. उन्हें इस बात का डर हमेशा सताता रहता कि कहीं कोई है, जो हमेशा उनकी हर गतिविधियों पर पैनी नज़र रखता है.
केजीबी की संरचना की बात करें तो इसमें कई निदेशालय होते थे और इन सभी का विभाजन इनके काम के आधार पर होता था. केजीबी का सर्वेसर्वा एक चेयरमैन होता था. उसके बाद फर्स्ट डिप्टी चेयरमैन, डिप्टी चेयरमैन का पद होता था. इसके अलग-अलग निदेशालयों की बात करें तो फर्स्ट ची़फ डायरेक्टोरेट सबसे अहम है. इसके तहत केजीबी विदेशों में जासूसी के काम को अंजाम देती थी. इसी तरह एक से लेकर कुल सोलह ची़फ डायरेक्टोरेट होते थे, जिनका कार्यक्षेत्र भी अलग-अलग होता था. इन सभी का मुख्यालय सोवियत संघ की राजधानी मॉस्को में था. कई जानकार मानते हैं कि केजीबी दुनिया की सबसे असरदार ख़ु़फिया सर्विस थी. इसके दो तरह के एजेंट होते थे. पहले वे, जो दुश्मन देशों में सोवियत संघ के लिए जासूसी करने के लिए अपना ठिकाना सोवियत एंबेसी को बनाते थे. ऐसा इसलिए कि यदि वे पकड़े भी जाएं तो उनकी सुरक्षा आसानी से हो सके. होता भी यही था. इन जासूसों के पकड़े जाने पर ज़्यादा से ज़्यादा इन्हें वापस सोवियत संघ भेज दिया जाता था.
दरअसल इस तरह के एजेंटों को वैध एजेंट का नाम दिया गया. यानी इस तरह के एजेंट अपने मिशन को अंजाम दूसरे देशों में रहकर ही देते थे. दूसरे तरह के जासूस अवैध एजेंट कहलाते थे. इन्हें सोवियत संघ के किसी भी संगठन का आधिकारिक सदस्य या एजेंट नहीं माना जाता था. केजीबी में इस तरह के एजेंटों की तादाद सबसे ज़्यादा थी. इस तरह के एजेंट होने के पीछे की वजह भी कुछ कम रोचक नहीं थी. यदि इस तरह के एजेंट अपने मिशन के दौरान पकड़े भी जाएं तो उसकी ज़िम्मेदारी सोवियत संघ की नहीं होती थी.
अब यदि केजीबी के मिशन की बात करें तो सोवियत संघ इसके ज़रिए दूसरे देशों की राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य गतिविधियों पर नज़र रखता था. इसके लिए केजीबी के जासूस दो समूहों में बंटे होते थे. पहला समूह एजेंटों का होता था, जिसका काम जानकारियां जुटाना और मुहैया करना होता था. जबकि दूसरा समूह कंट्रोलर कहलाता था, जिसकी ज़िम्मेदारी एजेंट द्वारा दी गई जानकारियों को सभी जगह भेजना होता था. इन्हीं जानकारियों के आधार पर केजीबी अपने मिशन को बख़ूबी अंजाम देती थी. दरअसल उक्त सभी बातें केजीबी के कारनामों के सामने कुछ भी नहीं हैं. केजीबी के मिशन ही उसके ख़ौ़फ और रहस्य की पूरी दास्तां बयां करते हैं.
केजीबी के बारे में इतनी जानकारी मिलने के बाद एक सवाल अभी भी अधूरा है कि आख़िर उसने नोटों से भरा ब्रीफकेस भारतीय प्रधानमंत्री के आवास पर क्यों भिजवाया था? दरअसल यह केजीबी की कोशिश थी भारत में घुसपैठ करने की. केजीबी किसी भी तरह पूरी दुनिया में साम्यवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना चाहती थी और उसका मुक़ाबला अमेरिकी अगुवाई वाली पूंजीवादी व्यवस्था से था. वह इस चुनौती में पिछड़ना नहीं चाहती थी. नतीज़तन भारत उस समय केजीबी के लिए सबसे माकूल जगह था. यानी इस बात से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सोवियत संघ की यह तेज़तर्रार एजेंसी किसी भी तरह किसी भी देश में घुसपैठ करने में कामयाब हो जाती थी.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here