भारत और पाकिस्तान भौगोलिक तौर पर अविभाज्य देश हैं, जिन्होंने इतिहास के गर्भ से एक साथ जन्म लिया है. अब नतीजा चाहे कुछ भी हो, इन दोनों देशों का भविष्य हमेशा एक दूसरे से जुड़ा रहेगा. आज इन दोनों देशों में से एक का भविष्य गहरे संकट में है. पठानी कबाइलियों के कट्टरपंथी आतंकवादियों ने मैदानी इलाक़ों और पूरे देश की ओर रुख़ कर लिया है. जबकि यही लोग पहले वज़ीरिस्तान और स्वात के सुनसान पहाड़ी इलाक़ों में अपना अड्डा जमाए रहते थे. पाकिस्तान के हर शहर में लगातार हमले किए जा रहे हैं. आतंक, अपहरण और रोज़मर्रा के आत्मघाती हमलों के ज़रिए चरमपंथियों ने व्यापक तौर पर पाकिस्तानियों की ज़िंदगी बदल दी है.
अभी कुछ महीने पहले की बात है, जब पाकिस्तानियों ने राहत की सांस ली थी. स्वात में तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) के ख़िला़फ सेना के सफल अभियान और अमेरिकी ड्रोन हमले में टीटीपी सरगना बैतुल्लाह मेसूद के मारे जाने के बाद कुछ समय तक इस इलाक़े में शांति बनी रही. कुछ अक्खड़ विश्लेषक जो पाकिस्तान के कई निजी चैनलों पर लगातार बकवास कर रहे थे, उनका मानना था कि टीटीपी बहुत बुरी तरह बिखर चुकी है. लेकिन वे सरासर ग़लत थे. टीटीपी लगातार विभिन्न शहरों में धमाके कर रही है, नतीजतन इस्लामाबाद पूरी तरह ख़ौ़फजदा हो चुका है. सड़कों पर यातायात व्यवस्था रेंग रही है, लेकिन सेना अपनी मशीनगनों के साथ आपको ज़रूर नज़र आ जाएगी. यहां बमुश्किल ही रेस्टोरेंट खुलते हैं. हालत यहां तक है कि बाज़ार सुनसान नज़र आते हैं. अभी भी हमलावरों को रोकना मुश्किल हो रहा है. उन्होंने पेशावर शहर को अपने हमलों से पूरी तरह पैरालाइज़्ड कर दिया.

सुरक्षा की तमाम कोशिशों के बावजूद हाल के कई हमले तो और भी नाटकीय थे. कुछ दिन पहले की बात है, जब तालिबानी आतंकवादी सुर्ख़ियों में छाए हुए थे. दरअसल इन आतंकियों ने इस्लामाबाद के पड़ोसी शहर रावलपिंडी में अभेद्य कहे जाने वाले पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पर हमला कर दिया था.

दूसरे हमलों के मुक़ाबले कुछ हमले कहीं अधिक बड़े और भयावह थे, लेकिन एक और बड़े हमले के बाद पहले वाले को भुला दिया जाता है. कार में भरे विस्फोटक ने पेशावर के भीड़भाड़ वाले मीना बाज़ार की दुकानों को उड़ा दिया. एक आत्मघाती हमलावर ने इस्लामाबाद में अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक विश्वविद्यालय के गर्ल्स कैफेटेरिया को उड़ाया. लाहौर के पुलिस संस्थान के पास ताबड़तोड़ तीन हमले हुए. खोत में विस्फोटक जैकेट के ज़रिए हुए धमाके से स्कूली लड़कियों को जान गंवानी पड़ी.
सुरक्षा की तमाम कोशिशों के बावजूद हाल के कई हमले तो और भी नाटकीय थे. कुछ दिन पहले की बात है,
जब तालिबानी आतंकवादी सुर्ख़ियों में छाए हुए थे. दरअसल इन आतंकियों ने इस्लामाबाद के पड़ोसी शहर रावलपिंडी में अभेद्य कहे जाने वाले पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पर हमला कर दिया था. बीस घंटे की छानबीन से ज़ाहिर हो गया कि बंधक बनाने और हत्या की वारदात की योजना का़फी सूक्ष्म तौर पर बनाई गई और उसे अंजाम दिया गया. यही नहीं, हाल ही में पेशावर में सख्त सुरक्षा बंदोबस्त के साये में रहने वाले आर्ईएसआई मुख्यालय को एक आत्मघाती कार हमलावर ने उड़ा दिया था. संदेश सा़फ था, पाकिस्तान में कोई भी इलाक़ा अब ज़्यादा मह़फूज नहीं है. पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी का यह बयान अविश्वसनीय लगता है कि पाकिस्तान के पब्लिक और सैनिक ठिकानों पर आतंकवादी हमलों में भारत का हाथ है और पाकिस्तान इन हमलों में भारत के शामिल होने के सबूत इकट्ठा कर रहा है. यदि क़ुरैशी और आंतरिक सुरक्षा मंत्री सही हैं तो हमें यह ज़रूर समझना चाहिए कि भारतीय इच्छा मृत्यु की मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं या शायद बिल्कुल ही बेवकूफ हैं.
एक के बाद एक हमलों से पाकिस्तान में हलचल होने पर ज़रूर कुछ भारतीय मन ही मन ख़ुश होते होंगे. निस्संदेह, कभी-कभी यह भी चर्चा होती है कि यह लश्कर-ए-तैय्यबा द्वारा मुंबई पर ख़ौ़फनाक हमले का बदला है? क्या भारत को इस बात से संतोष महसूस नहीं करना चाहिए कि पाकिस्तान आंतरिक तौर पर अपने ही पाले सांपों के ज़हर को निगल रहा है? लेकिन अधिकांश भारतीय यह कम ही चाहते होंगे कि दोनों तऱफ की सीमाओं से फायरिंग हो. दरअसल, बहुसंख्यक आबादी पाकिस्तान के बारे में सोचना भी नहीं चाहती होगी.
जिस मुल्क की विकास दर छह फीसदी हो, जो उच्च तकनीकों का निर्यात करता हो और जिसे अर्द्ध महाशक्ति का दर्ज़ा मिला हो, वहां की बहुसंख्यक आबादी तो यही चाहती होगी कि पाकिस्तान जो ख़ुद की अंतहीन समस्याओं से जूझ रहा है, उससे उलझने की कोई ज़रूरत नहीं है.
सौभाग्य से आज उक्त छोटे तत्व अप्रासंगिक हैं. अपने हितों के मुताबिक़ देखें तो भारत जिहादियों की मदद नहीं करता है. ज़रा सोचिए, यदि पाकिस्तान में केंद्रीय सत्ता का कोई अस्तित्व न हो या वह तेज़ी से कमज़ोर पड़ जाए तो इसके क्या नतीजे होंगे. यदि पाकिस्तान की सत्ता लश्कर के सौ जिहादियों में बंट जाए, जिनकी रणनीति और एजेंडा भी अलग हो. तो ऐसे में भारत के लिए पाकिस्तान हमेशा के लिए भयानक सपना बन जाएगा. यदि मुंबई हमले की घटना दोहराई जाती है, जिसकी ऐसे हालात में पूरी आशंका है तो न्यूक्लियर शक्ति से लैस पाकिस्तान के साथ भारत गंभीरता से निपटेगा, लेकिन सीमित दायरे में. यानी भारतीय सेना शक्तिविहीन होगी.
अमेरिकियों ने बड़ी क़ीमत पर युद्ध के लिए विशालकाय हथियारों की खोज की है, लेकिन वह भी पवित्र योद्धाओं को सीमा पार करने से नहीं रोक सकता है. आंतरिक सहयोगी जिहादियों को बढ़ावा देंगे. उक्त सहयोगी अपने ही मुल्क की मुस्लिम आबादी है, जो महसूस करती है कि वह ख़ुद हिंदुओं से विमुख हो गई. नतीजतन, जब भारतीय सेना मासूमों और दूसरे मुसलमानों के ख़िला़फ जवाबी कार्रवाई करेगी तो यह मुल्क कार्रवाई और जवाबी कार्रवाई में तितर-बितर हो जाएगा.  आज पाकिस्तान इसका ख़ामियाज़ा भुगत रहा है. यहां की आवाम, सरकार और सेना दर्दनाक हमलों के साये में जीने को मजबूर हैं. दक्षिणी वज़ीरिस्तान में अन्य विकल्पों की अपेक्षा युद्ध ज़रूरी है और यह आख़िरी लड़ाई अथवा जगह नहीं होगी. यहां फतह हासिल कर आतंकवाद को ख़त्म नहीं किया जा सकता है, बल्कि इस एक गतिरोध से दक्षिणी पंजाब में लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद सहित दूसरे जिहादियों का मनोबल ही बढ़ेगा. धार्मिक उग्रवाद का कैंसर पूरे पाकिस्तान में फैल चुका है और इस पर फतह हासिल करने में दशकों बीत जाएंगे.
इस आतंकवाद की वजह स़िर्फ अमेरिका द्वारा अ़फग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करना ही नहीं है. यदि अमेरिका अ़फग़ानिस्तान से वापस चला भी जाता है, जिसका स्वागत किया जाएगा, तो इससे भी पाकिस्तान की समस्याएं ख़त्म होने वाली नहीं हैं. एक वैचारिक क्रांति के तहत जिहादी इस समाज को अपने व्यापक एजेंडे के मुताबिक़ ढालना चाहते हैं. जिहादी मुख्यधारा के अपने धार्मिक-राजनीतिक सहयोगियों मसलन जमात-ए-इस्लामी और जमात-ए-उलेमा-पाकिस्तान की पीठ पर सवारी करते हैं. इनमें से किसी ने भी पाकिस्तानी यूनिवर्सिटी, स्कूलों, बाज़ारों, मस्जिदों, पुलिस और आर्मी संस्थानों पर हमले की निंदा नहीं की है.
पाकिस्तान की दुर्दशा से भारत को ख़ुश नहीं होना चाहिए. हालांकि धार्मिक चरमपंथी आम मुसलमानों को मुना़फिक़ (ढोंगी) समझते हैं और इसीलिए वे बाज़ारों और मस्जिदों में धमाके करने से कतराते नहीं हैं. वे हिंदुओं से तो इससे भी अधिक ऩफरत करते हैं. उनकी रणनीति के मुताबिक़ पाकिस्तान की अपेक्षा भारत को ज़्यादा नुक़सान पहुंचा कर जन्नत के लिए अधिक से अधिक इंतज़ाम किया जा सकता है. वे भारत और पाकिस्तान दोनों समाज को बांटने या उनके बीच जंग के आग़ाज़ का सुनहरा सपना देखते हैं. पाकिस्तान के साथ कार्यकारी गठबंधन का भविष्य बनाने और बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों की क़द्र करने के लिए भारत को कश्मीर मुद्दे को सुलझाने की दिशा में सही मायनों में क़दम उठाना चाहिए. दो दशक से भी अधिक का व़क्त बीत चुका है, जब भारत नैतिक तौर पर ख़ुद को कश्मीरी मुसलमानों से अलग कर चुका है. कश्मीर में ग़ैर ज़रूरतन ही भारतीय जवान लगातार मरते हैं. फिर सेना कश्मीरियों पर अत्याचार करती है और बेग़ुनाह कश्मीरियों की हत्या करती है.
एलओसी को आवागमन के लिए अधिक से अधिक सुविधाजनक बनाने का व़क्त आ गया है. बलूचिस्तान के मसले पर भी भारत को पाकिस्तान की आशंका दूर करनी चाहिए. हालांकि पाकिस्तान का मौजूदा संघीय ढांचा ही उसकी समस्या है. किसी के पास जादुई छड़ी तो नहीं है, फिर भी विश्वास बहाली की नीति भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष कम करने के लिए जारी रहनी चाहिए. भारत पाकिस्तान के साथ और पाकिस्तान भारत के साथ मेलजोल चाहता है, तो इसकी वजह दोस्ती या अच्छी भावना नहीं है, बल्कि यह उनके अस्तित्व के लिए निहायत ज़रूरी है. और, पाकिस्तानियों के लिए यह और भी ज़रूरी है.

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