सरकार चलाने वाले दिमाग़ ज़रूर रखते हैं. कभी-कभी ज़्यादा भी रखते हैं. इसीलिए भारत सरकार उन परेशानियों में घिरती नज़र आ रही है, जिनमें उसे नहीं घिरना चाहिए. कांग्रेस पार्टी का दिमाग़ या तो सरकार इस्तेमाल नहीं कर रही है या फिर कांग्रेस पार्टी अपनी चाल चल रही है और सरकार अपनी.

सारे देश में अ़फवाह है कि जिस चीज़ की महंगाई बढ़ी, उसकी एसोसिएशन से बड़ा सौदा हो चुका होता है. यही वस्तुएं किसानों से, जो वास्तविक उत्पादक हैं, बहुत कम क़ीमत पर ख़रीदी जाती हैं और कुछ ही महीनों के भीतर जब वे उन्हें ख़रीदते हैं तो तीस से चालीस गुना बढ़े भाव पर उन्हें मिलती हैं. बाज़ार के हाथों में देश की क़िस्मत सौंपना का़फी भारी पड़ सकता है. राजनेता ऐसा होना चाहिए, जो देश के अगले बीस से पच्चीस साल के बारे में सोचे. अर्थशास्त्री भी ऐसा होना चाहिए, जो देश के सबसे कमज़ोर वर्ग, दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ों के बारे में सोचे, बल्कि उनके लिए लाभकारी योजनाएं बनाए. क्यों ऐसा विश्वास नहीं होता कि प्रधानमंत्री ऐसे राजनेता हैं.

कोई भी समझदार आदमी अभी तक इस तथ्य को नहीं पचा पाया है कि कैसे प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों को इतनी छूट दी कि वे प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करने लगे. गठबंधन का अलग धर्म होता है और सरकार का अलग धर्म. दोनों में बारीक़ रिश्ता होता है और इस बारीक़ रिश्ते की नज़ाकत न प्रधानमंत्री ने समझी, न उनके मंत्रियों ने. प्रधानमंत्री ने समझी होती तो वह अपने मंत्रियों की मनमानी को रोकते. और तब टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला नहीं होता और न ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहा व्यक्ति सीबीआई के दफ्तर जाता.
प्रधानमंत्री ने, वित्तमंत्री रहते हुए जिन आर्थिक नीतियों की नींव रखी, प्रधानमंत्री रहते हुए उन्हें तेज़ी से आगे बढ़ाया. इस बीच देश किस ओर गया, इस पर न उन्होंने ध्यान दिया और न उनकी पार्टी ने. क्या-क्या नहीं हुआ इन सालों में, इतने घोटाले हुए जितने पहले किसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नहीं हुए थे. इसकी शुरुआत मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री रहते हुई, जब विदेशी बैंकों ने देश का पांच हज़ार करोड़ रुपया देश से बाहर भेज दिया. अभी तक का आख़िरी घोटाला टू जी स्पेक्ट्रम का है, जो एक लाख सत्तर हज़ार करोड़ से ज़्यादा का है. न पहले कुछ हुआ और न अब कुछ होने वाला है.
कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जिस तरह की खुली छूट ऑरगनाइजिंग कमेटी ने ली तथा जिस तरह उसका बचाव सरकार ने किया, वह शर्मनाक था और अब सुरेश कलमाडी सीबीआई के दफ्तर जा रहे हैं. प्रधानमंत्री ने इससे उन हिस्सों को अलग कर दिया है, जिनका रिश्ता इंफ्रास्ट्रक्चर से है. विभिन्न विभागों ने जो निर्माण कार्य किए, वे गुणवत्ता की श्रेणी में बहुत निचले स्तर के हैं. अब तो इन कामों को करने वालों और ़फायदा उठाने वालों के बीच भी झगड़े शुरू हो गए हैं, पर इस बात की संभावना कम है कि सच्चाई बाहर आ पाएगी.
महंगाई बढ़ती रही, सरकार सोती रही. एक ऐसा कृषि मंत्री है, जो बोल-बोलकर महंगाई बढ़ाता है. सारे देश में अफवाह है कि जिस चीज़ की महंगाई बढ़ी, उसकी एसोसिएशन से बड़ा सौदा हो चुका होता है. यही वस्तुएं किसानों से, जो वास्तविक उत्पादक हैं, बहुत कम क़ीमत पर ख़रीदी जाती हैं और कुछ ही महीनों के भीतर जब वे उन्हें ख़रीदते हैं तो तीस से चालीस गुना बढ़े भाव पर उन्हें मिलती हैं. बाज़ार के हाथों में देश की क़िस्मत सौंपना का़फी भारी पड़ सकता है.
राजनेता ऐसा होना चाहिए, जो देश के अगले बीस से पच्चीस साल के बारे में सोचे. अर्थशास्त्री भी ऐसा होना चाहिए, जो देश के सबसे कमज़ोर वर्ग, दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ों के बारे में सोचे, बल्कि उनके लिए लाभकारी योजनाएं बनाए. क्यों ऐसा विश्वास नहीं होता कि प्रधानमंत्री ऐसे राजनेता हैं. देश के ज़िले के ज़िले नक्सलवादियों के प्रभाव में जा रहे हैं. ग़रीबों की संख्या बढ़ रही है. विभिन्न वर्गों के लोग असंतुष्ट हैं. किसानों का हाल तो और ख़राब है. किसानों के विभिन्न वर्ग देश के हर हिस्से में असंतुष्ट भी हैं और नाराज़ भी. वे अपना गुस्सा प्रगट भी कर रहे हैं. अभी-अभी राजस्थान में गूजरों का आंदोलन ख़त्म हुआ है तो जाटों ने ताल ठोंक दी है. लेकिन किसानों के या विभिन्न वर्गों के आंदोलनों का, या उनकी तकलीफ का हल कुछ और है, पर तलाशा कुछ और जा रहा है.
हल है रोज़ी रोटी के अवसर, हल है उत्पादनों का उचित मूल्य उत्पादकों को मिले, और हल है एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें सभी को हिस्सा मिल सके. लेकिन हल तलाशा जा रहा है आरक्षण में. हर वर्ग आरक्षण मांग रहा है. आरक्षण की मांग के पीछे मांग रहे वर्ग के प्रभुत्व वाले लोगों का स्वार्थ है, जिनके पास पैसा है और जिनके पास थोड़ी सी शिक्षा है. वे चाहते हैं सत्ता में हिस्सेदारी. सत्ता में हिस्सेदारी के बहाने भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी, क्योंकि अब तक जिन्हें आरक्षण के बहाने सत्ता में हिस्सेदारी मिली है उन्होंने अपने वर्गों के लिए, उनके आर्थिक विकास के लिए संघर्ष नहीं किया. अगर वे संघर्ष करते तो कुछ तो आर्थिक फायदा कमज़ोर वर्गों को मिलता.
गूजरों ने यही किया, उन्हें चार प्रतिशत आरक्षण मिल गया, अब दूसरे वर्ग भी वही करने की योजना बना रहे हैं. यहीं राजनेता की ज़रूरत होती है, जो योजना बनाए कि देश के सभी रहने वाले देश के विकास में अपनी हिस्सेदारी निभा सकें और उसका फायदा भी ले सकें. अगर ऐसा होता, या आज भी हो, तो देश का नक्शा दिमाग़ी तौर पर कुछ और होता या हो सकता है.
लेकिन आज तो सवाल अभी की हालत संभालने का है. महंगाई कैसे घटे, भ्रष्टाचार के सवाल दरकिनार न किए जाएं, बेरोज़गारी के उपाय तलाशे जाएं और सरकार चलती दिखाई दे. कम से कम प्रधानमंत्री काम करते दिखाई दें. बोफोर्स के ऊपर ट्रिब्यूनल ने कहा कि हां, घूस ली है विन चड्‌ढा और क्वात्रोची ने. अब कांग्रेस के लोग कह रहे हैं कि यह काम प्रणव मुखर्जी का है, क्योंकि ख़ुद मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी नहीं चाहते कि राहुल सफल हों.
दूसरी तऱफ सोनिया गांधी चिदंबरम और कपिल सिब्बल से नाराज़ हैं तथा ये दोनों ही प्रधानमंत्री के नज़दीकी मंत्री हैं. हो सकता है कि 14 जनवरी के बाद होने वाले मंत्रीमंडलीय फेरबदल में ये दोनों मंत्री न रहें. पार्टी में काम करने वाले कुछ और चेहरे सरकार से वापस बुलाए जा सकते हैं. लेकिन व़क्त भागा जा रहा है. बंगाल और तमिलनाडु के चुनाव की गिनती शुरू हो चुकी है.
लोकतंत्र में सरकार कमज़ोर हो तो ख़तरा और विपक्ष कम़जोर हो तो खतरा. अभी एक अजीब स्थिति बन गई है, जिसमें सरकार भी कमज़ोर है और विपक्ष भी. विपक्ष जनता की आकांक्षाओं को आवाज़ देने में अक्षम साबित हो रहा है. इसी वजह से विभिन्न वर्ग अब अपनी आवाज़ें मज़बूती से उठा रहे हैं. संकेत इस बात के मिल रहे हैं कि जिस समुदाय के दो लाख लोग सड़क पर आने की हिम्मत जुटा लेंगे, वह समुदाय अपनी मांगें मनवा लेगा. कोई भी सरकार न दो लाख लोगों पर गोली चला सकती है और न दो लाख लोगों को जेल में डाल सकती है. देखना स़िर्फ यह है कि इस स्थिति को जो सरकार पैदा कर रही है और विपक्ष जिसका हिस्सेदार बन रहा है, उसे ये दोनों संभाल भी पाएंगे या नहीं. हमारे यहां एक कहावत है, सांप का मंत्र न जाने, बिच्छू के बिल में हाथ डाले. सरकार और विपक्ष को यह कहावत याद दिलाना देश का कर्तव्य है.

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