retसन 2000 में बिहार के बंटवारे के बाद अलग हो गया तो कुछ लोग बिहार पर तंज कसते थे. कहते थे कि अब बिहार में सिर्फ लालू, आलू और बालू बचे हैं. जो ऐसा कहते थे, उनका उद्देश्य यह था कि तमाम खनिज सम्पदा, कारखाने और उद्योग झारखंड के हिस्से में चले गए. अब बिहार में आलू और सिर्फ बालू बचे हैं. लालू के बचने पर भी तंज था. ये वो लोग थे जो लालू के शासन से नाराज थे. आलू बिहार में बड़े पैमाने पर उपजता है. कभी-कभी तो यह हाल हो जाता है कि लाखों टन आलू या तो बेमोल बेचना पड़ता है या वे गोदाम में रखे-रखे सड़ जाते हैं. रही बात बालू की, तो बालू के मामले में भी बिहार को राजा माना जाता रहा है. यहां की नदियां बालू का जखीरा उगलती हैं.

लेकिन पिछले एक साल से बालू संकट इस कदर गहराया है कि अक्टूबर में बालू का मोल हीरे की तरह चमक गया. एक ट्रक बालू की बोली 95 हजार से लेकर सवा लाख तक लगने लगी. बालू विवादों का कारण बन गया. बालू को लेकर लोग अदालत में पहुंच गये. दूसरी तरफ बालू नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल के हत्थे भी चढ़ गया. इतना ही नहीं, बालू गैंगवार का कारण भी बना और कुछ लोगों की जानें भी बालू ने ले लीं. जाहिर है जब बालू विवाद का हिस्सा बने, यह मामला अदालतों तक पहुंचे और यहां तक कि गैंगवार का सबब भी बने, तो इसमें इतना जरूर माद्दा था कि यह राजनीति में भी जगह बना ही लेगी.

बालू को भले ही किसी जमाने में बेमोल समझ कर उसे हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है और इस पर कई किस्से गढ़े गए जैसे बलुअट खेत को किसान बेकार मानते हैं. इसी तरह रेत यानी बालू की दीवार के भरभरा कर गिरने जैसे भी तमाम किस्से चलन में रहे हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि बालू का मोल भले ही अपने अकेले में कुछ ना हो, पर बालू है तो गिट्टी है, सरिया है, सीमेंट है, रोजगार है, मजदूरी है, सड़कें, पुल और यहां तक कि महल हैं. लिहाजा बालू विकास के पूरे तंत्र की रीढ़ है. यह बात पिछले एक साल में भारत के किसी एक राज्य ने सबसे ज्यादा समझा है, तो वह बिहार है. करीब एक साल से राज्य में विकास कार्य ठप हैं.

पुल-पुलिया, सड़कें, इमारतें बनने में बालू बड़ी रुकावट के रूप में खड़ा है. जब बालू ही नहीं तो निर्माण से सारे जुड़े सारे कारोबार का ठहर जाना भी स्वाभाविक है. जब बालू तक लोगों की पहुंच ही नहीं तो स्वाभाविक है कि सरिया उद्योग, सीमेंट का कारोबार, ईंट-भट्‌ठों से जुड़े कारोबार और यहां तक कि निर्माण क्षेत्र से जुड़े लाखों लोगों के सामने रोजगार का संकट होना ही है. लिहाजा बालू अब बिहारी राजनीति का गर्म मुद्दा बन गया है. लेकिन बिहार में बालू की राजनीति को समझने से पहले जरूरी यह है कि बालू से जुड़े विवाद को समझ लिया जाए.

बालू से जुड़े विवाद की कहानी काफी पुरानी है. 2015 और 2016 के दरम्यान बालू के टापुओं पर कब्जे को लेकर कई बार गैंगवार हुए. इस गैंगवार में कुछ जानें भी गईं. पटना और भोजपुर की पुलिस गैंगवार से जुड़े माफिया के पीछे पड़ी तो वह खुद भी बालू की गुत्थियों में उलझती चली गई. बीते सितम्बर में तो बालू माफिया पर नकेल कसने गई पुलिस को बालू माफिया ने सोनपुर के दियारे में दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. 2016 के जुलाई महीने में एक चर्चित नाम बालू माफिया फौजी का सामने आया.

इस दौरान फौजी और बालू खनन से जुड़े दीगर लोगों के पास से 29 जेसीबी मशीनें जब्त की गयीं. बालू ने जहां विभिन्न ठीकेदारों को आपसी वर्चस्व की लड़ाई में झोंक दिया तो पुलिस की फजीहत भी बालू के खनन को ले कर खूब हुई. बालू से जुड़े विवाद पर प्रशासन की नजर तो गैंगवार के बाद पड़ी, लेकिन इससे पहले से ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने सिपहसालारों को एक आंखों देखी घटना सुनाते थे.

हेलिकॉप्टर से सफर के दौरान बिहटा, मनेर, कोइलवर की नदियों में हजारों ट्रकों के काफिलों को नीतीश आसमान से चीटियों की तरह सरकते देखते थे. तब वे अपने अफसरों को कहते थे कि कुछ गड़बड़ लगता है, जांच कीजिए. जांच के क्रम में अफसरों ने पाया कि बालू के लिए घोषित मानदंड़ों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन किया जा रहा है. गैरकानूनी तौर पर बालू के ठीकेदार अपनी मर्जी से बालू के टापुओं पर कब्जा जमाते हैं.

इस कब्जे की जद्दोजहद में कई बार गैंगवार भी होता है. तब सरकार ने उत्खनन नीति का अध्ययन करना शुरू किया और वह इस नतीजे पर पहुंची कि जो पुरानी नीति है, उसमें बदलाव करने के बाद ही इस संकट से निजात पाया जा सकता है. लिहाजा सरकार ने नयी नीति बनानी शुरू की. दूसरी तरफ बालू से जुड़ा मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल यानी एनजीटी तक भी पहुंचा. एनजीटी ने उत्खनन के तौर-तरीकों को देखने के बाद पाया कि इस के चलते पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है. लिहाजा उसने फरवरी 2016 में पूरे प्रदेश में बालू खनन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी.

ट्रिब्यूनल ने बिहार को पर्यावरण मामले में बने कानून के उल्लंंघन का दोषी मानते हुए राज्य सरकार को सभी नदियों एवं खनन क्षेत्र में बालू के खनन और उसकी ढुलाई पर रोक लगाने को कहा है. इस तरह बालू के खनन पर दोतरफा मार पड़ी. तीसरी तरफ बालू खनन से जुड़ी नई नीति को राज्य सरकार ने लागू किया, तो उसे अदालत में चुनौती दे दी गई. अदालत ने नई खनन नीति में कई दोष पाए और राज्य सरकार को नयी नीति रद्द करने का आदेश जारी कर दिया. लेकिन दूसरी तरफ राज्य सरकार घुमा-फिरा कर नयी नीति को ही लागू करने के रास्ते पर चलती रही और कई अन्य ठीकेदारों को नये लाइसेंस जारी कर दिये. अदालत ने इस पर राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई. खनन विभाग के सचिव केके पाठक को न सिर्फ फटकार लगाया बल्कि उन्हें यहां तक कहा कि वे अदालत के आदेश की अवमानना कर रहे हैं. अगर बाज ना आये तो उन पर कार्रवाई की जा सकती है.

रेत पर राजनीति

बालू से जुड़े संकट का सार भले ही इतना ही है पर बालू जब विवाद का कारण बना तो इसमें राजनीति ने भी अपनी जगह खोज निकाली. 27 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने राजद का साथ छोड़ कर भाजपा के सहयोग से सरकार बना ली. और इसके दस दिन भी नहीं बीते कि बालू माफिया पर सरकार ने जोरदार कार्रवाई कर डाली. उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी सामने आये और इस प्रशासनिक कार्रवाई को राजनीतिक रंग देते हुए 7 अगस्त को बयान दिया कि खनन माफिया के संग लालू प्रसाद की सांठ-गांठ हैं. उन्होंने कहा कि सुभाष यादव नामक बालू माफिया को छह जिले में खनन के पट्टे मिले हुए हैं, लेकिन वह दर्जनों जिले में खनन करता है.

मोदी यहीं नहीं रुके, उन्होंने यहां तक कहा कि अनेक बालू माफिया राजद को फंडिंग भी करते हैं. सुशील मोदी का यह बयान हकीकत के कितना करीब था, इसके लिए जांच की भी बात राज्य सरकार ने कही. इन चार महीनों में जांच कहां पहुंचा है, इसके बारे में सरकार ने कुछ नहीं कहा है. लेकिन जो जमीनी सच्चाई है, वह यह है कि बालू संकट से बिहार में लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं. निर्माण से जुड़े ज्यादातर कारोबार ठप हैं. जिस निर्माण क्षेत्र में कभी 25 प्रतिश से भी ज्यादा की गति से विकास हो रहा था, वह बमुश्किल 5 प्रतिशत तक गिरकर आ गया है.

राजद के रघुवंश प्रसाद ने इस संकट को पहचाना और वे इसके खिलाफ सड़क पर आ गये. सबसे पहले 25 नवम्बर को वह मुजफ्फरपुर में करनी, बंसुली, बेलचा लेकर प्रदर्शन करने पहुंच गये. उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार की नयी खनन नीति के कारण हजारों मजदूरों का रोजगार छिन गया. निर्माण कार्य ठप हो गये. इसके बाद राजद ने इसे मजबूत राजनीतिक मुद्दा बनाने की ठान ली. फिर पटना में भी बालू संकट के खिलाफ नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव समेत तमाम बड़े नेता सड़क पर उतर कर प्रदर्शन के लिए आ गये.

राजद के इस प्रदर्शन को पटना हाईकोर्ट के फैसले से भी काफी बल मिला. हाई कोर्ट ने नयी नीति को लागू करने पर रोक लगाई लेकिन राज्य सरकार ने बड़ी चालाकी से नये लाइसेंस प्राप्त ठीकेदारों को पुरानी नीति के तहत दिया गया लाइसेंस घोषित कर दिया. इसके बाद हाईकोर्ट इतना सख्त हुआ कि खनन सचिव केके पाठक को फटकार लगाते हुए नोटिस जारी कर दिया कि उनके फैसले को अदालत की अवमानना क्यों ना माना जाए.

इस पूरे मामले में जहां राजनीति की शुरुआत उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने राजद पर बालू माफिया के संग सांठ-गांठ करने के आरोप से की थी, वहीं अब यह मामला विपक्षी दल राजद के लिए संजीवनी बन गया है. राजद को पता है कि बालू संकट से जिस बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ी है, उसके चलते राज्य सरकार के खिलाफ लोगों में आक्रोश है. लिहाजा राजद इसे बड़ा सियासी मुद्दा बनाने की तैयारी में है. उसने घोषणा कर दी है कि आगामी 21 दिसम्बर को पूरे राज्य में बंद रखा जायेगा.

बालू से जुड़े विवाद ने अदालती और प्रशासनिक टकराव के बाद भले ही राजनीतिक टकराव का रूप ले लिया हो, पर सच्चाई यह है कि बालू संकट ने निर्माण उद्योग को हिला कर रख दिया है, जिसका प्रभाव राज्य की इकोनॉमी पर काफी नकारात्मक पड़ा है.

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