मुलायम सिंह का समाजवाद लोहियावादी समाजवाद के विशिष्ट तत्वों और पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण से मिश्रित था. हालांकि जब विचारधाराएं लड़खड़ाने लगती हैं तो विरोधी विचारधाराएं मज़बूत नहीं हो सकतीं. मुस्लिम वोट के संदर्भ में समाजवादी पार्टी की यही समस्या है.

हार वह दूरी है, जो नींद के पहले सुनी जाने वाली कहानी से शुरू होकर सुबह उठने के अलार्म पर ख़त्म होती है. जहां यह कहानी एक समय की बात है. से शुरू होती है और धीरे-धीरे कहानी सुनने वाला नींद की आगोश में आ जाता है, वहीं वह अलार्म एक नई सुबह की शुरुआत करता है. तीन राजनीतिक पार्टियां अपनी ही सफलता का शिकार हो चुकी हैं. इनके मुद्दों की मियाद पूरी हो गई है और अब वे अपने लिए मुद्दे खोज पाने में भी असक्षम हैं.
भारतीय जनता पार्टी की कहानी सबसे सरल है. परियों ने अपनी परीकथा का त्याग कर दिया है. यह पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की पार्टी के तौर पर शुरू हुई, जिनका आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक पुनर्वास यहां हुआ तथा अब उन विडंबनाओं से यह पार्टी मुक्त हो चुकी है, जिन्होंने इस पार्टी की मदद की. आपातकाल की तक़लीफ देने वाले ड्रामे और जनता पार्टी के दौर के बाद भाजपा ने आर्थिक ज़रूरतों की अपेक्षा ख़ुद को एक मनोवैज्ञानिक चैंपियन के तौर पर पुन:स्थापित किया.
मंदिर आंदोलन एक बहुत बड़ा पुरस्कार लेकर आया, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्मे ने और अधिक इज़ा़फा किया, जिससे यह पार्टी छह सालों तक केंद्र की सत्ता में बनी रही, लेकिन इस दौरान भारतीय मिज़ाज बदला. मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों की जगह आर्थिक महत्वाकांक्षाएं प्राथमिक हो गईं. ख़ासकर उस व़क्त, जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद मंदिर आंदोलन अप्रासंगिक हो गया. एक कार्यकारी मंदिर उस जगह आ गया. यह एक अहम तथ्य है कि भाजपा का घोषणापत्र लिखने वालों के जेहन से राम मंदिर बनाने के वायदे दूर होते चले गए.
इस बदलाव में सभी पार्टियों की साठगांठ है. यहां तक कि ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियों ने भी मुसलमानों को इस विवाद में उलझने के लिए बढ़ावा दिया. यह सच है कि इन सबमें भाजपा एक भव्य मंदिर के निर्माण की पेशकश कर सकती है. हालांकि इसमें उतनी भावनात्मक शक्तियां नहीं रह गई हैं, जितनी कि मंदिर यहीं बनाएंगे!  में हैं. भाजपा के चचेरे भाई यानी महाराष्ट्र में शिवसेना का भी क्षेत्रीय वर्चस्व पतन की ओर है. यदि भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान फिर से हासिल करना चाहती है तो इसे एक दूसरा क्षितिज स्थापित करना होगा.
जब समाजवाद अप्रासंगिक हो गया तो मुलायम सिंह यादव ने स्वयं को एक सशक्त समाजवादी के तौर पर स्थापित किया. वह भी भाजपा की विचारधारा के एक विरोधी के रूप में. मुलायम का समाजवाद, लोहियावादी समाजवाद के विशिष्ट तत्वों और पिछड़ी जातियों के सशक्तिकरण से मिश्रित था. हालांकि जब विचारधाराएं लड़खड़ाने लगती हैं तो विरोधी विचारधाराएं मज़बूत नहीं हो सकतीं. मुस्लिम वोट के संदर्भ में समाजवादी पार्टी की यही समस्या है. जहां तक पिछड़ों की बात है, मंडल आयोग उनके लिए फायदेमंद नहीं रहा. मंडल आयोग उन्हीं के लिए ख़ुशियां लेकर आया, जिनकी दुआएं 1990 में सुनी गईं. अब पिछड़ों की एक नई पीढ़ी को 21वीं सदी में समाधान की ज़रूरत है.
पिछली बार वामदलों के पास पिछले तीन दशकों की अपेक्षा बताने को कुछ नया था और उनका बंगाल में सत्ता में बने रहना उल्लेखनीय रहा. लेकिन बंगाली मुसलमान, जो लोकतांत्रिक चुनावों के लिए अहम होते हैं, अब वामपंथियों की नरम धर्म निरपेक्षता से आज़िज आ चुके हैं. यह एक ऐसा धर्म निरपेक्ष है, जो सांप्रदायिक हिंसा से उनके जीवन को सुरक्षित रखता है, लेकिन उनकी आजीविका का इंतज़ाम भगवान भरोसे छोड़ दिया गया. बंगाल के मातहतों ने एक रोचक रणनीति अपनाई. का़फी हद तक वे निर्दलीय विपक्ष की भूमिका में आ गए. स़िर्फ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ही मतदाताओं के गुस्से को अपने पक्ष में करने के लिए अपना जितना विस्तार कर सकती है, उसने उतना किया.
जब ममता राज्य में सत्ता ग्रहण करेंगी तो वह किस तरह से वैकल्पिक व्यवस्था गढ़ेंगी, इस पर न तो कोई आंतरिक संरचना तैयार की जा रही है और न ही गंभीरता से सोचा जा रहा है. यह अभी का सवाल है न कि तब का, जब वामपंथी सत्ता से बेदख़ल हो जाएंगे, लेकिन मौजूदा अशांति 2016 के लिए एक अवसर है.
अपनी असफलताओं के बावजूद मायावती उत्तर प्रदेश में बनी हुई हैं, क्योंकि वह अभी भी अपने जनाधार को जागरूक बनाए हुए हैं. दलितों का उद्धार अभी भी पूरा नहीं हुआ है और उनका जातीय गठबंधन अभी भी प्रारंभिक अवस्था में है. मायावती स्थिरता का वायदा नहीं कर सकीं, इसलिए वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना सकीं, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर अभी भी वह एक ओलंपियन हैं. उनका व्यक्तित्व उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकता है, लेकिन उनका एजेंडा अपनी जगह क़ायम है.
मुलायम सिंह यादव का भविष्य मुसलमानों की मांगों को पूरा करने की क्षमता और उनकी अगुवाई करने पर निर्भर करेगा. अव्यवस्था के कारण मुसलमानों के बीच गुस्सा सा़फ झलकता है, जिस वजह से उनका झुकाव सबसे अधिक परिचित जगह यानी कांग्रेस की ओर हो रहा है. लेकिन कांग्रेस के पास देने के लिए कुछ नया नहीं है.
उत्तर प्रदेश के मुसलमान जिसका आसरा देख रहे हैं, वह है उनकी राजनीतिक पहचान, ताकि वे जीविका और जीवन की सुरक्षा पा सकें. लेकिन वे अपनी आवाज़ ज़ोर-शोर से उठाने में असक्षम हैं. इस स्थिति ने एक उत्तेजना दी है, ताकि ऐसी मांगों को उकसाया जा सके. हालांकि यह तलाश प्रत्यक्ष की अपेक्षा परोक्ष रूप से सतही मांग हो सकती है. इसी आधार पर अजीत सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक हरित प्रदेश का सपना देखा है. ऐसे राज्यों की मूल आबादी मुस्लिम होगी. साथ ही अलीगढ़ से देवबंद तक महत्वपूर्ण मुस्लिम शैक्षणिक संस्थाएं भी इसका अंग बनेंगी. यह उत्तर के मुसलमानों के लिए एक स्वाभाविक सामाजिक-आर्थिक चुंबकीय शक्ति बनेगी. यह विचार अभी भी अपनी शुरुआती अवस्था में है और जो कोई भी इस मुद्दे को मुखरता से उठाएगा, वही ख़तरे की इस घंटी को भी बजाएगा.

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