राजस्थान में भरतपुर ज़िले की वैर तहसील के किसान यह अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि परंपरागत फसलों की खेती से भोजन की आवश्यकता तो पूरी की जा सकती है, लेकिन बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, शादी-ब्याह एवं अन्य खर्चों को पूरा करने के लिए इन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता. शायद यही कारण था कि रेतीली धरती के इन रणबांकुरों ने अपने जीवन की बेहतरी के लिए परंपरागत खेती के साथ-साथ हॉर्टीकल्चर को भी अपनाना शुरू कर दिया. मौसमी परिस्थितियों, भूमि की गुणवत्ता और बाज़ार की स्थिति को ध्यान में रखकर स्थानीय किसान फल, फूल एवं औषधीय पौधों की खेती लंबे समय से कर रहे हैं, जिससे खेती से प्राप्त होने वाले मुना़फे में न केवल वृद्धि हुई है, बल्कि लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आया है. आज भरतपुर ज़िले की वैर तहसील की पहचान पपीता, अमरूद और नींबू समेत अनेक सब्ज़ियों के उत्पादन के लिए होने लगी है.
हालांकि बदलाव का स़फर इतना आसान नहीं रहा. कई किसानों ने देखादेखी हॉर्टीकल्चर की शुरुआत तो कर दी, लेकिन उन्हें भारी नुक़सान उठाना पड़ गया. वैर तहसील के बल्लभगढ़ गांव के मोतीलाल सैनी का परिवार भी ऐसे ही किसान परिवारों में से एक था. मोतीलाल पिछले कई वर्षों से परंपरागत खाद्यान्न फसलों जैसे ज्वार, बाजरा और गेहूं आदि के साथ सब्ज़ियों की खेती कर रहे थे. छह वर्ष पूर्व मोतीलाल ने जब अपने खेत में पपीते की देसी क़िस्म लगाई तो ऐसा रोग लगा कि 10 बीघे ज़मीन में मात्र दो क्विंटल पपीते का ही उत्पादन हुआ. मोतीलाल और उनके पूरे परिवार की मेहनत तो निरर्थक गई ही, साथ ही खाद, कीटनाशक व दूसरे खर्चों का ऩुकसान भी हुआ. मोतीलाल के अलावा दूसरे किसानों को भी पपीते में लगने वाली माथाबंदी नामक इस बीमारी से भारी ऩुकसान उठाना पड़ा. इससे ग़रीब किसानों की तो मानों कमर ही टूट गई.
मोतीलाल ने इस समस्या से निपटने के लिए स्वयंसेवी संस्था लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन से संपर्क किया.

र्ष 2004 में संस्था ने गांव को हॉर्टीकल्चर की दृष्टि से संपन्न बनाने के लिए गोद ले लिया और काम शुरू हो गया. किसानों को पपीता उत्पादन की नवीन तकनीक की जानकारी दी गई एवं खेती के लिए आसान शर्तों पर ऋण भी उपलब्ध कराया गया. बल्लभगढ़ के दो किसानों को संस्था ने पपीते के हनीजू नामक क़िस्म के बीज उपलब्ध कराए. इस बीज के पौधों से किसानों को प्रति हेक्टेयर 80 हज़ार रुपये की अतिरिक्त आमदनी हुई.

इसे देखकर अन्य किसानों का रुझान भी पपीते की खेती की ओर बढ़ने लगा.
मिश्रित खेती और उन्नत क़िस्म के बीज बने सहायक
संस्था के विशेषज्ञों ने मोतीलाल को पपीते के पौधों को बीमारियों से बचाने के लिए मिश्रित खेती शुरू करने और पपीते की परंपरागत क़िस्म के स्थान पर हाईब्रिड पीवीसी क़िस्म अपनाने की सलाह दी. इस क़िस्म की खेती से प्राप्त फल जल्दी खराब नहीं होते, फल अधिक समय तक सुरक्षित रहता है और बाहर से पीला दिखने वाला फल अंदर से लाल निकलता है. सबसे बड़ी बात यह कि इसे बाज़ार में अधिक मूल्य पर बेचा जा सकता है. इस क़िस्म में अधिक बीमारियां नहीं लगतीं, इसलिए कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से भी यह अधिक सुरक्षित है. विशेषज्ञों के मुताबिक़, पपीते की पौध तैयार होने के बाद जिस खेत में पपीता बोना हो, उसमें गेहूं की बुआई करें और दिसंबर माह में गेहूं की फसल में बीच-बीच पपीते का पौधा लगा दें. ये पौधे बीमारी के साथ-साथ सर्दी और पाले आदि से भी सुरक्षित रहेंगे. जब गेहूं की फसल अप्रैल में कट जाए तो पौधों के बीच में ख़ाली पड़ी ज़मीन की जुताई कर उसमें मूंगफली की फसल भी ली जा सकती है. इस नवीन तकनीक को जब मोतीलाल ने अपनाया तो लागत काटकर उन्हें 50 हज़ार रुपये का फायदा हुआ. उनकी कामयाबी से प्रेरित होकर गांव के दूसरे किसानों ने भी इसी तरीक़े कोअपनाया. इतना सब कुछ केवल पिछले पांच वर्षों के दौरान पपीते की हाईब्रिड पीवीसी क़िस्म की खेती शुरू होने के बाद हुआ. पपीते की खेती में बीमारी आना एक समस्या रही है, किंतु पिछले कई वर्षों से लुपिन संस्था के कृषि विशेषज्ञ किसानों को 50 प्रतिशत अनुदान पर कीटनाशक दवाइयां उपलब्ध करा रहे हैं. इस वर्ष पपीता उत्पादक किसानों को अधिक उत्पादन देने वाले बीज भी उपलब्ध कराए गए हैं. इससे किसानों को कम क्षेत्रफल वाली ज़मीन पर भी अधिक उत्पादन मिलने की संभावना है.
क़रीब 500 घरों वाले बल्लभगढ़ के डेढ़ सौ से ज़्यादा परिवार पपीते समेत साग-सब्ज़ी एवं खाद्यान्नों की मिश्रित खेती में जुटे हुए हैं. बल्लभगढ़ में अकेले पपीते का ही 200 बीघा ज़मीन का रक़बा है. मोतीलाल बताते हैं कि आठ महीने में पपीते का पेड़ तैयार हो जाता है और तीन वर्षों तक फल देता है, लेकिन बेहतर उत्पादन के लिए यहां स़िर्फ एक बार फल लिया जाता है. बकौल मोतीलाल, पहले हमें बीज, खाद, मौसमी परिस्थितियों एवं बाज़ार की सही जानकारी नहीं थी, जिससे अक़्सर खेती में नुक़सान उठाना पड़ता था. लेकिन, लुपिन संस्था के मार्गदर्शन से काम आसान हो गया और आज स्थिति यह है कि पपीते की खेती से परंपरागत खेती की तुलना में ढाई से तीन गुना फायदा हो रहा है. मोतीलाल की गिनती आज इलाक़े के उद्यमी किसानों में की जाती है. खेतों में मज़दूरी करने वाला मोतीलाल पपीता व्यवसायी बनकर आज आसानी से प्रतिमाह दस से बारह हज़ार रुपये कमा रहा है. नेतराम सैनी भी बंटाई की पांच बीघे ज़मीन पर पपीते की खेती कर रहे हैं. वह प्रति बीघा 50 हज़ार रुपये बचत की उम्मीद कर रहे हैं. आज बल्लभगढ़ के आसपास के गोविंदपुरा, करावली, कटारियापुरा एवं मागरैन सहित आधा दर्ज़न गांवों में भी पपीते की खेती शुरू हो गर्ई है.
नर्सरी एवं सब्ज़ियों की खेती से दोहरा लाभ
मोतीलाल वर्ष के शेष आठ महीनों में पपीता, नींबू, आम, कटहल, चीकू, अमरूद, हरड़ एवं अन्य फलदार वृक्षों के पौधे तैयार करते हैं. उनकी नर्सरी में तैयार किए गए पपीते के पौधों की इतनी मांग रहती है कि वे मात्र पांच दिन में बिक जाते हैं. उनके पौधों की मांग बल्लभग़ढ में ही नहीं, अपितु आसपास के अन्य क्षेत्रों में भी रहती है. उन्होंने 5 बीघे ज़मीन में बैंगन की भी खेती की है, जिससे उन्हें 2 लाख रुपये की आमदनी होने की उम्मीद है. पौधों की बिक्री से मोतीलाल औसतन प्रतिमाह तीन-चार हज़ार रुपए कमा लेते हैं. पपीते के पौधों की बिक्री वर्ष में तीन महीनों जुलाई, सितंबर व अप्रैल में अधिक होती है. बल्लभग़ढ के मोतीलाल की क़डी मेहनत, सूझबूझ एवं उन्हें सही समय दिए गए उचित ज्ञान का ही परिणाम है कि उन जैसा एक साधारण किसान आज कृषि उद्यमी बन गया है.
जयपुर और दिल्ली में बल्लभगढ़ का पपीता
स्थिति यह है कि दिसंबर से अप्रैल तक प्रतिदिन क़रीब 500 मन पपीता भरतपुर, महुआ, जयपुर, कोसी, डीग और कामां के बाज़ारों में जाता है, जबकि कच्चे पपीते की हाथरस के चैरी उद्योग में भारी मांग रहती है. दिल्ली, आगरा, मथुरा एवं ग्वालियर जैसे बड़े बाज़ार भी 200 किलोमीटर की परिधि में हैं. अधिक उत्पादन के बावजूद  बाहरी खरीददारों के सीधे बल्लभगढ़ न आने से स्थानीय किसानों को मंडियों तक के आवागमन का खर्च भी वहन करना पड़ता है. हालांकि गांव में ही कई गाड़ियां होने से कृषि उत्पादों के परिवहन में उत्पादकों को सहूलियत हो गई है. गांव में दोमट मिट्टी और पर्याप्त मीठा पानी स्थानीय किसानों के लिए वरदान बन गया है और उनकी समृद्धि में सहायक साबित हो रहा है.

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