अभी जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ ने फिर से अपना भयानक रूप दिखाया. अगर सेना के जवान चौकस न होते और उनकी मदद न मिलती, तो क्या हाल होता, इसका अंदाजा लगाने में भी डर लगता है. सेना ने वायुसेना की मदद से कईयों की जान बचाई. लेकिन इस सबके बीच एनडीएमए कहां था और क्या कर रह था, किसी को नहीं मालूम. इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि फिलहाल इस संस्था के वाइस चेयरमैन शशिधर रेड्डी सहित 5 सदस्यों ने जून 2014 में ही इस्तीफ़ा दे दिया है.
kashmir3नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि किसी भी आपदा के वक्त यह तत्काल लोगों तक राहत पहुंचाने का काम करेगा. लेकिन, दु:ख की बात यह है कि इस संस्था की हालत इतनी दयनीय है कि खुद इसे अभी राहत पहुंचाए जाने की ज़रूरत है. वर्ष 2004 में सुनामी का कहर बरपा था. इसी के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन हुआ था. इसका मुख्य काम है आपदा के वक्त राहत एवं बचाव कार्यों में जुटी संस्थाओं के साथ सरकार का तालमेल बैठाना. इसके अलावा चिकित्सा कार्यों में मदद देना, सूचनाओं का एकत्रीकरण, मृतकों एवं गुमशुदा लोगों के आंकड़े जुटाना और बीमारियों की जानकारी देना. एनडीएमए के पास केंद्र से लेकर ज़िला स्तर तक उचित तरीके से आपदा प्रबंधन रणनीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने का काम है. जाहिर तौर पर इसकी ज़रूरत तो है, लेकिन आज यह संस्था क़रीब-क़रीब निष्क्रिय हो चुकी है.
अभी जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ ने फिर से अपना भयानक रूप दिखाया. अगर सेना के जवान चौकस न होते और उनकी मदद न मिलती, तो क्या हाल होता, इसका अंदाजा लगाने में भी डर लगता है. सेना ने वायुसेना की मदद से कईयों की जान बचाई. लेकिन इस सबके बीच एनडीएमए कहां था और क्या कर रह था, किसी को नहीं मालूम. इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि फिलहाल इस संस्था के वाइस चेयरमैन शशिधर रेड्डी सहित 5 सदस्यों ने जून 2014 में ही इस्तीफ़ा दे दिया है. चार महीने बीतने के बाद भी अभी तक इस संस्था में वाइस चेयरमैन की नियुक्ति नहीं हुई है. ग़ौरतलब है कि एनडीएमए के चेयरमैन प्रधानमंत्री होते हैं. ऐसे में रोजमर्रा का काम तो उपाध्यक्ष ही करता है. चूंकि, शशिधर रेड्डी यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे, इसलिए जब नई सरकार बनी, तो उसके बाद रेड्डी ने इस्तीफ़ा दे दिया. अब ऐसे में सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बिना उपाध्यक्ष, बिना सदस्य के कोई संस्था क्या और कितना काम कर सकती है? बिना नेतृत्व के यह संस्था कैसे सक्रिय रह सकती है? इस तरह जब कश्मीर में आपदा आई, तो यह संस्था अपना मूल दायित्व भी निभा पाने में अक्षम रही. यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत बेहतर तरीके से आपदा प्रबंधन की चुनौती से निपटने के लिए तैयार नहीं है.
वैसे एक और अहम तथ्य है, जिसे समझना बहुत ज़रूरी है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण राज्यों के आपदा प्रबंधन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेता. यानी उसकी ज़िम्मेदारी सीधे-सीधे किसी राज्य में आपदा प्रबंधन कार्य में शामिल होना नहीं है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का मूल काम है नीतियां बनाना, नीतियों का क्रियान्वयन कराना और उसके लिए जितना आवश्यक हो, संसाधन उपलब्ध कराना. राज्यों में आपदा प्रबंधन का काम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और ज़िला आपदा प्रबंधन प्रशासन का होता है. इसके लिए ज़रूरी है कि आपदा के वक्त राहत कार्य के लिए इन संस्थाओं के पास विशेष किस्म की टीम हो, जो ऐसी आपदा से सफलतापूर्वक निपट सके. कश्मीर मामले में देखें, तो एनडीएमए की निष्क्रियता के साथ-साथ राज्य सरकार की टीम, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और ज़िला आपदा प्रबंधन प्रशासन यानी सबके सब असफल साबित हुए.

वर्ष 2004 में सुनामी का कहर बरपा था. इसी के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन हुआ था. इसका मुख्य काम है आपदा के वक्त राहत एवं बचाव कार्यों में जुटी संस्थाओं के साथ सरकार का तालमेल बैठाना. इसके अलावा चिकित्सा कार्यों में मदद देना, सूचनाओं का एकत्रीकरण, मृतकों एवं गुमशुदा लोगों के आंकड़े जुटाना और बीमारियों की जानकारी देना.

वर्ष 2012 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने त्रिस्तरीय आपदा प्रबंधन नीति को मंजूरी दी थी, लेकिन सरकार ने आकस्मिक आपदा से लड़ने के लिए एक अलग विभाग नहीं बनाया. यह काम क्षेत्र के उपायुक्तों को सौंप दिया गया था. ग़ौरतलब है कि ऐसे अधिकारियों के पास इसके अलावा, पहले से भी और कई अहम काम होते हैं. ध्यान देने की बात है कि 2013 में घाटी में भूकंप आया था, बावजूद इसके आपदा प्रबंधन से जुड़ी नीतियों एवं योजनाओं को लेकर सरकार या एनडीएमए ने कोई मजबूत क़दम नहीं उठाया. वैसे एनडीएमए का यह मानना है कि इस मामले में मुख्य ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है. एनडीएमए के मुताबिक वह स़िर्फ सलाह दे सकता है, राज्य प्रशासन को बार-बार प्रक्रिया का पालन करने के लिए कह सकता है. आपदा प्रबंधन के लिए कई तरह के सुझाव दिए गए हैं. मसलन, सैटेलाइट फोन का इस्तेमाल करते हुए आपदा संचार नेटवर्क स्थापित करना. ऐसी प्रणाली अगर हमारे पास मौजूद होती, तो कश्मीर में आई बाढ़ के कहर से निपटने में मदद मिलती. इस प्रणाली से संचार सेवा स्थापित करने में काफी मदद मिलती. ग़ौरतलब है कि बाढ़ के दौरान पूरे कश्मीर में संचार व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी. बाढ़ पीडित अपने लोगों से संपर्क भी स्थापित नहीं कर पा रहे थे. इसकी वजह एक बार फिर विभिन्न संस्थाओं के बीच उचित समन्वय की कमी है. एनडीएमए, नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स और नेशनल इन्फॉर्मेटिक्स सेंटर की विभिन्न मसलों पर असहमति के चलते यह परियोजना धरी की धरी रह गई.
एक आंकड़े पर ध्यान दीजिए. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को वेतन एवं अन्य भत्तों के लिए केंद्र सरकार से प्रतिवर्ष 40 करोड़ रुपये मिलते हैं, लेकिन आज तक यह बाढ़ संभावित क्षेत्रों की ठीक-ठीक पहचान नहीं कर पाया है. उदाहरण के लिए कश्मीर में आई बाढ़ के कहर से पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि यहां कभी बाढ़ भी आ सकती है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के नक्शों में बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों में जम्मू-कश्मीर को शामिल नहीं किया गया है. इसकी कोई वजह भी नहीं बताई गई है, जबकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने राज्य को आकस्मिक बाढ़ की आशंका वाला क्षेत्र माना है. ध्यान देने की बात यह है कि 1992 में भी यहां बाढ़ तबाही मचा चुकी है, उससे भी ज़्यादा बड़ी आपदा यहां 1959 में आई थी, तब भी राज्य में बड़े पैमाने पर जान-माल का नुक़सान हुआ था. एक और गंभीर लापरवाही राज्य सरकार और प्रशासन ने की. श्रीनगर से 50 किलोमीटर से भी कम दूरी पर संगम स्टेशन है, जिसका संचालन केंद्रीय जल आयोग करता है. इस स्टेशन ने बता दिया था कि 3 सितंबर को यहां जो जलस्तर 5.7 मीटर था, वह 4 सितंबर को बढ़कर 10.13 मीटर हो गया है.
ग़ौरतलब है कि इस स्तर पर किसी भी सामान्य घर की पहली मंजिल डूब सकती है. केंद्रीय जल आयोग के अन्य दो स्टेशनों ने भी बताया कि 3 एवं 4 सितंबर की दोपहर के बीच जलस्तर में 3 मीटर से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है. इन तीनों केंद्रों से तेजी से बढ़ते जलस्तर की ख़बर मिलते ही राज्य प्रशासन को सतर्क हो जाना चाहिए था और आने वाली गंभीर आपदा से निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए था. राज्य आपदा प्रबंधन प्रशासन को सक्रियता दिखानी चाहिए थी. अगर ऐसा होता, तो निचले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सुरक्षित निकालने, विशेष सहायता टीमों की तैनाती और राशन की आपूर्ति के लिए उसे पूरे 24 घंटे मिल जाते. दु:ख की बात है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. प्रशासन ने इस चेतावनी को यह सोचकर अनदेखा कर दिया कि बाढ़ प्रबंधन से इसका क्या लेना-देना. इसे आपदा की स्थिति नहीं माना गया और किसी भी सरकारी एजेंसी ने इस बारे में एक-दूसरे से संपर्क साधने की ज़रूरत ही नहीं समझी. इसके बाद जो हुआ, उसे पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे इस धरती की जन्नत एक पखवाड़े से भी अधिक समय तक दोजख में तब्दील रही.
किसी भी आपदा के समय अकेले कोई संस्था या विभाग चाहकर भी कुछ खास नहीं कर सकता. ऐसे में ज़रूरी है कि आपदा प्रबंधन के लिए एकीकृत कमान प्रणाली बने. सुस्त और नाकारा नौकरशाही की वजह से प्रभावी आपदा प्रबंधन प्रणाली नहीं बन सकी है. केंद्रीय जल आयोग के पास 173 करोड़ रुपये का बजट है और देश भर में उसके पास 5,000 कर्मचारी हैं. पर्याप्त मानव संसाधन होने के बावजूद आयोग कुछ ही राज्यों को बाढ़ का पूर्वानुमान देता है. इसके अलावा, केंद्र सरकार ने 2011 में 250 करोड़ रुपये रिस्पांस रिजर्व के रूप में अलग रखे जाने का प्रस्ताव किया था, ताकि आपदा आने पर राज्य सरकार को मदद दी जा सके, लेकिन वित्त मंत्रालय ने आपदा कोष आवंटित करने के प्रस्ताव को हर बार नामंजूर कर दिया. इससे भी अहम था एनडीएमए के तहत आपदा के दौरान महत्वपूर्ण निर्णय ले सकने में सक्षम एकीकृत कमान प्रणाली का गठन. कृषि, रक्षा एवं गृह मंत्रालय को इस कमान का हिस्सा बनना था. इन मंत्रालयों के अधिकारियों ने रूस की इंसीडेंट रिस्पांस प्रणाली को समझने के लिए वहां का दौरा भी किया था. इसके बावजूद आज तक ऐसी कोई प्रणाली तैयार नहीं हो सकी है.
कश्मीर में हुई भारी तबाही भारत की बदहाल और चरमराती आपदा प्रबंधन प्रणाली का ताजा उदाहरण है.
उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से भी कोई सबक नहीं लिया गया. और, एक साल बाद कश्मीर में वही कहानी दोहराई गई. विभिन्न आपदा प्रबंधन एजेंसियां आपस में संवाद स्थापित करने में असफल रहीं. उत्तराखंड की तरह जम्मू-कश्मीर में हुए जान-माल के नुक़सान ने यह साफ़ कर दिया है कि देश अभी ऐसी आपदाओं से निपटने में, ज़िला से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, न तो तैयार है और न सक्षम. एनडीएमए और ज़्यादातर राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण निरर्थक साबित हुए हैं. इसलिए यह ज़रूरी है कि उनके पुनर्गठन पर फिर से ध्यान दिया जाए.

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