narendra-modi• रक्षा मोर्चे पर नाकारा, पर विदेश भ्रमण के मोर्चे पर अव्वल रहे मोदी
• रक्षा बजट में अनाप-शनाप कटौती, विदेश यात्राओं पर अनाप-शनाप खर्च

विदेश नीति और रक्षा नीति एक दूसरे की पूरक और संवर्धक होती है. दोनों अन्योन्याश्रित हैं. जबसे देश आजाद हुआ है, केंद्र की सरकारों ने विदेश नीति और रक्षा नीति में किस्म-किस्म के प्रयोग और दुष्प्रयोग किए, जिसका नतीजा कश्मीर के स्थायी उद्वेलन से लेकर भारत-पाकिस्तान के साथ सिलसिलेवार युद्ध और ऐतिहासिक पराजय के साथ भारत-चीन युद्ध हमारे माथे पर चिपक गया. आजादी के बाद से लेकर अबतक केंद्र की सत्ता पर सबसे अधिक समय कांग्रेस का कब्जा रहा है, इसलिए विदेश और रक्षा के मोर्चे पर हमारी सफलता और नाकामियों का दारोमदार भी कांग्रेस के मत्थे ही अधिक जाता है.

वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई. पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति और रक्षा नीति को प्राथमिकता पर रखने की घोषणा की और कांग्रेस के अब तक के ‘लीक’ से अलग रास्ता गढ़ने की कोशिश की. इन तीन वर्षों की तुलना पिछले करीब सात दशक के शासनकालों से नहीं की जा सकती. लेकिन इन तीन वर्षों को अलग रख कर उसकी समीक्षा तो की ही जा सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तीन साल के कार्यकाल में विदेश नीति को तरजीह दी, लेकिन रक्षा नीति पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया.

ऐसा नहीं है कि मोदी की विदेश यात्राओं के कुछ सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आए, लेकिन मोदी की विदेश यात्राओं को लेकर जिस तरह का प्रचार-प्रसार किया गया, जिस तरह के प्रायोजित प्रहसन खेले गए, जिस तरह की हवा बांधी गई, उस अनुरूप परिणाम भी तो आना चाहिए था न! ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ! मोदी की विदेश यात्राओं से देश की रक्षा से जुड़ा पक्ष मजबूत होना चाहिए था, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. उल्टा रक्षा क्षेत्र में कमजोरियां और गहराती चली गईं. सेना पर दबाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ता चला जा रहा है.

रक्षा क्षेत्र में बजट की कटौती मोदी सरकार की सबसे हास्याप्रद और निंदास्प्रद नीति रही. ऐसे समय में जब पाकिस्तान और चीन की तरफ से रक्षा चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हों, वो अपना रक्षा बजट लगातार बढ़ा रहे हों, हम अपने रक्षा बजट में कटौती कर दें, यह विचित्र है. यही भाजपा के राष्ट्रवाद के ढोल की असली पोल है. रक्षा नीति की उपेक्षा कर विदेश यात्राओं के फिर कोई मायने-मतलब नहीं रह जाते.

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 56 विदेश यात्राएं कीं. लेकिन इन विदेश यात्राओं से देश को हासिल क्या हुआ? यह बड़ा प्रश्र्न है. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति में थोड़ी बहुत कामयाबी मिली, लेकिन उसका कोई व्यापक असर नहीं दिखा. काफी मशक्कत करने के बावजूद भारत पाकिस्तान पोषित आतंकी मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र से आतंकवादी घोषित नहीं करा पाया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का मसला घालमेल में ही चला गया.

न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भी हम शरीक नहीं हो पाए. हमारी विदेश नीति का प्रभाव चीन पर कुछ नहीं पड़ा, उल्टा चीन की तरफ से दादागीरी और बढ़ती गई. सिल्क रूट को लेकर चीन ने भारत के पड़ोसी देशों, खास कर नेपाल को अपनी तरफ करने में कामयाबी पाई.

हम ईरान से सम्बंध सहज बनाने की तकरीरें देते रह गए और ईरान ने भारत के पूर्व नौसैनिक अधिकारी कुलभूषण जाधव को पकड़ कर पाकिस्तान के हवाले कर दिया. पाकिस्तान ने जाधव को फांसी की सजा दे दी. भारत अपनी विदेश नीति में इतना ही कामयाब हो पाया कि उसने अंतरराष्ट्रीय कोर्ट से जाधव की फांसी की सजा पर तात्कालिक रोक लगवा ली. हालांकि, यह जाधव की फांसी रोकने की कोई गारंटी नहीं है.

तो हमने अपनी विदेश नीतियों में बदलाव का क्या पुरस्कार पाया? क्या मोदी की विदेश यात्राओं से ही काम चल गया? अपने तीन साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चार बार अमेरिका, नेपाल, जापान, रूस और अफगानिस्तान के दौरे पर गए. मोदी को इन दौरों के नफा-नुकसान पर सार्वजनिक चर्चा करनी चाहिए. केंद्र की सत्ता संभालते ही सबसे पहले जून 2014 में मोदी भूटान गए थे.

उसके बाद अमेरिका, नेपाल, जापान, रूस और अफगानिस्तान की चार-चार बार यात्राएं कीं. दो बार चीन के दौरे पर गए. मोदी ने मंगोलिया की भी यात्रा की. मंगोलिया की यात्रा करने वाले मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं. प्रधानमंत्री मार्च 2015 में सेशल्स की यात्रा पर गए. अगस्त 2015 में मोदी संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा पर गए. मोदी ने अप्रैल 2015 में कनाडा और नवंबर 2015 में ब्रिटेन और तुर्की का दौरा किया. इसके बाद ही मोदी ने मलेशिया और सिंगापुर की यात्रा की. प्रधानमंत्री ने इसके पहले नवंबर 2014 में ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की थी.

मोदी की विदेश यात्राओं में बांग्लादेश, मॉरीशस, फ्रांस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया, उज्बेेकिस्तासन, कजाखस्तान, पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, ब्राजील, म्यांसमार, फीजी और श्रीलंका भी शामिल है. मोदी की इन विदेश यात्राओं के फलाफल को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन साथ ही लोग यह भी मानते हैं कि मोदी की विदेश यात्राएं जरूरी भी थीं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के समीक्षक यह भी मानते हैं कि मोदी की यात्राओं से वैश्विक समुदाय के बीच देश का कद ऊंचा हुआ है और प्रवासी भारतीयों को बल मिला है.

केंद्र सरकार का आधिकारिक दावा है कि प्रधानमंत्री की यात्राओं के कारण विदेशी निवेश में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इन यात्राओं का असर हमारी रक्षा व्यवस्था पर क्या पड़ा? इस सवाल का संतोषजनक जवाब देने से केंद्र सरकार लगातार कन्नी काट रही है. मोदी कैबिनेट के समझदार वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रक्षा बजट में कटौती कर दी. सेना के आधुनिकीकरण का मसला ताक पर चला गया.

सेना के आयुध संग्रहालय में रखे जाने लायक हैं, उन्हीं के बूते पाकिस्तान और चीन से लड़ने के राष्ट्रवादी भाषण परोसे जा रहे हैं. सैनिकों का बलिदान जारी है, नेताओं का भाषण जारी है. सेना को मिलने वाली सारी सुविधाएं छीनी जा चुकी हैं. यहां तक कि सेना को सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन भी नहीं दिया जा रहा. वन रैंक वन पेंशन की झांसापट्टी की कलई भी खुल ही चुकी है.

रक्षा क्षेत्र में मोदी सरकार के तीन साल धोखेबाजी, झांसापट्टी और जुमलेबाजी में ही खर्च हो गए. इन तीन वर्षों में सैनिकों और अर्ध सैनिक बलों के जवानों की शहादतें कितनी हुईं, उसका ब्यौरा सामने रखें, तो केंद्र सरकार की बेशर्मी सामने दिखने लगेगी. रक्षा बजट में कटौती करने के मोदी सरकार के फैसले पर रक्षा मंत्रालय देखने वाली संसद की स्थायी समिति भी हैरत जता चुकी है. संसदीय समिति ने रक्षा मंत्रालय के बजट में पूंजीगत आवंटन कम करने पर सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि इससे सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण का अभियान बुरी तरह प्रभावित होगा.

स्थायी समिति ने संसद में पेश रिपोर्ट में भारत सरकार के फैसले पर हैरानी जताई और कहा कि धन के अभाव के कारण सेना अपनी अनिवार्य प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में नाकाम रही. समिति ने केंद्र सरकार को हिदायत दी कि सेना के आधुनिकीकरण के काम में किसी तरह की बाधा नहीं आनी चाहिए. संसदीय समिति ने इस बात को भी गंभीरता से लिया कि वर्ष 2000-2001 का रक्षा व्यय 2.36 प्रतिशत था, वह वर्ष 2017-18 में घटकर महज 1.56 प्रतिशत रह गया. जबकि महंगाई और बदले दौर को देखते हुए रक्षा बजट काफी ऊपर रहना चाहिए था.

संसदीय समिति ने वित्त वर्ष 2017-18 के लिए 2.74 लाख करोड़ रुपए के रक्षा बजट को जरूरत से काफी कम बताया. सेना एक तरफ पाकिस्तान पोषित आतंकवाद से जूझ रही है, तो दूसरी तरफ आधुनिकीकरण की समस्या का सामना कर रही है. सेना के आधुनिकीकरण के लिए 42,500 करोड़ रुपए की जरूरत थी लेकिन बजट में केवल 25,254 करोड़ रुपए ही दिए गए.

इसमें से 23,000 करोड़ रुपए पहले की देनदारियां चुकाने में ही खर्च हो जाएंगे. लिहाजा, सेना को आधुनिकीकरण के लिए महज 2,254 करोड़ रुपए मिल पाए. इससे सेना को क्या मिलेगा और हम पाकिस्तान-चीन से लड़ने में कितना सक्षम बन पाएंगे, इसका जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही दे सकते हैं. संसदीय समिति ने इस पर आश्चर्य जताया और कहा कि यह बजट सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण के लिए काफी कम है. समिति ने सेना के तीनों अगों का हवाला देते हुए कहा है कि सेना के सारे आयुध और हथियार पुराने हो चुके हैं और अन्य संसाधनों की भी भारी कमी है.

वायुसेना की रिपोर्ट कहती है कि अगले 10 साल में उसके 33 स्न्वाड्रन घटकर सिर्फ 19 रह जाएंगे. 2027 तक मिग-21, मिग-27 और मिग-29 विमानों के 14 स्न्वाड्रन रिटायर हो रहे हैं. लेकिन इनकी भरपाई कैसे हो, इस पर गंभीरता से सोचना रक्षा मंत्री की प्राथमिकता में नहीं है और प्रधानमंत्री को विदेश यात्राओं से फुर्सत नहीं है.

पाकिस्तान में किए गए सर्जिकल स्ट्राइक या म्यामांर के सीमाई इलाकों में घुस कर चलाए गए ऑपरेशन के प्रचार-प्रसार से सेना को मजबूती नहीं मिलेगी. सेना की असली मजबूती रक्षा उपकरणों, आयुधों, वाहनों, विमानों, टैंकों, तोपखानों, युद्धपोतों, पनडुब्बियों और मिसाइलों के आधुनिकीकरण से होगी.

कांग्रेस-काल में विदेशी पूंजी निवेश का पुरजोर विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आते ही बदल गई और उसने रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश का दरवाजा खोल दिया. मोदी सरकार ने अनिल अंबानी, टाटा समेत कई पूंजी घरानों को भी देश के रक्षा उत्पादन क्षेत्र में घुसने के लिए रास्ता खोल दिया है. विशेषज्ञों का मानना है कि रक्षा उत्पाद के संवेदनशील क्षेत्र में बाहरी घुसपैठ के बजाय इजरायल की तरह खुद को मजबूत करना अधिक श्रेयस्कर और दूरगामी असर पैदा करने वाला होता है.

रक्षा उत्पाद के क्षेत्र में बाहरी निवेश (घुसपैठ) से युद्धपोत, विमान और टैंक जैसे संवेदनशील हथियार बनाने में निजी कंपनियों के एकाधिकार का खतरा रहता है. निजी क्षेत्र का एकाधिकार सरकारी क्षेत्र पर भारी पड़ेगा. रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की बेवकूफाना सलाह धीरेंद्र सिंह समिति ने केंद्र सरकार को दी थी. समिति में रक्षा मंत्रालय के मौजूदा और पूर्व के कई विशेषज्ञ अधिकारी भी शरीक थे, जिन्होंने रक्षा क्षेत्र के दरवाजे पूंजी-प्रतिस्पर्धा के लिए नहीं खोलने की सिफारिश की थी.

फिर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) के पूर्व प्रमुख वीके अत्रे के नेतृत्व में एक विशेष कार्यदल का गठन किया गया. अत्रे कमेटी को विमान और हेलीकॉप्टर, युद्धपोत और पनडुब्बी, जंगी वाहन, मिसाइल, कमांड और कंट्रोल सिस्टम समेत कई अहम रक्षा उपकरणों के निर्माण में निजी कंपनियों की भागीदारी की संभावना पर अध्ययन करने की जिम्मेदारी दी गई थी.

अत्रे कमेटी ने इस मामले में पूरा रायता ही फैला दिया. इतनी गुत्थियां उलझा दीं कि सब घालमेल में फंस गया. विशेषक्षों का कहना है कि इन कमेटियों की कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि इस मामले में वर्ष 2000 की विजय केलकर समिति की रिपोर्ट पहले से ही सत्ता गलियारे में धूल फांक रही थी.

मोदी की विदेश यात्रा से रक्षा क्षेत्र को कुछ फायदे भी हुए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं से रक्षा क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है, उसे भी सामने रखना जरूरी है. मोदी की रूस यात्रा में भारत ने रूस के साथ एस-400 ट्रंफ वायु रक्षा प्रणाली का सौदा किया. यह सौदा पांच अरब डॉलर से भी अधिक मूल्य का है. यह सौदा दक्षिण एशियाई क्षेत्र के रक्षा क्षेत्र में काफी अहम माना जा रहा है. एस-400 ट्रंफ वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली सबसे आधुनिक रूसी मिसाइल प्रणाली है. इसमें लंबी रेंज वाले रडार लगे हैं, जो एक साथ सैकड़ों लक्ष्य की शिनाख्त (ट्रैक) कर सकता है और यह अमेरिकी स्टील्थ एफ- 35 जेट्स जैसे विमानों को भी मार गिरा सकता है.

एस-400 ट्रंफ वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली 400 किलोमीटर की रेंज में दुश्मन द्वारा भेजे गए मिसाइलों, विमानों और ड्रोन्स तक को मार गिराने में सक्षम है. इसके अलावा एक अरब डॉलर के भारतीय- रूसी निवेश कोष (राष्ट्रीय संरचनात्मक निवेश कोष) के गठन को भी महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है. एक और भारत-रूस संयुक्त उपक्रम भारत में रूसी कामोव हेलीकॉप्टर का निर्माण करेगा. योजना 200 हेलीकॉप्टरों के निर्माण की है. रूस के साथ नई रक्षा नीतियों की सूची में आंध्रप्रदेश में विशेषज्ञ प्रशिक्षण और जहाज निर्माण पर रूस के साथ भारत का संयुक्त समझौता भी है.

इसके अलावा मोदी की अमेरिका यात्रा में एशिया-प्रशांत क्षेत्र और द्विपक्षीय रक्षा हितों को प्रभावित करने वाले कई मुद्दों पर आपसी सहमति बनी. अमेरिका से तीन द्विपक्षीय रक्षा समझौते हुए. ये समझौते हैं, बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए), लॉजिस्टिक्स सप्लाई एग्रीमेंट (एलएसए) और कम्युनिकेशन एंड इंफॉर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (सीआईएसएमओए).

‘एलएसए’ समझौता दोनों देशों के लिए सैन्य रसद को साझा करने के लिए एक रूपरेखा निर्धारित कर सकता है. यह समझौता नई दिल्ली और वाशिंगटन दोनों को साधारण सैन्य रसद के साथ एक दूसरे के सैन्य बलों को सहयोग करने की क्षमता प्रदान करेगा. उदाहरण के लिए भारत का रसद समर्थन अमेरिकी नौसेना के लिए हिंद महासागर क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित होगा. ‘सीआईएसएमओए’ अमेरिका के लिए भारत में अपने मालिकाना इन्क्रिप्टेड संचार उपकरणों और प्रणालियों की आपूर्ति करने के दरवाजे खोलेगा.

यह दोनों देशों के उच्च-स्तरीय सैन्य कमांडरों के बीच युद्ध के समय और शांति के समय सुरक्षित संचार करने की अनुमति देगा. ‘सीआईएसएमओए’ इस क्षमता का विस्तार भारतीय और अमेरिकी सैन्य सम्पत्तियों, जहाजों और विमानों में भी करेगा. ‘बीईसीए’ एक ऐसा मंच तैयार करेगा जिसके माध्यम से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका भारत के साथ नेविगेशन और लक्ष्य बेधने में सहायता के लिए संवेदनशील आंकड़ों को साझा कर सकेगा.

भारत ने सैन्य निगरानी के लिए अमेरिका से प्रीडेटर ड्रोन विमान खरीदने का भी निर्णय लिया है. जनरल अटॉमिक्स एमक्यू-1 प्रीडेटर एक स्वचालित हवाई वाहन (यूएवी) है. इसे जनरल अटॉमिक्स ने बनाया है और अमेरिकी खुफिया एजेंसी (सीआईए) और संयुक्त राज्य अमेरिका की वायु सेना इसका मुख्य रूप से इस्तेमाल कर रही है.

भारत ने अमेरिका से चिनूक और अपाचे हेलीकॉप्टर खरीदने का भी समझौता किया. पिछले साल भारत ने 15 चिनूक हेवी-लिफ्ट हेलीकॉप्टर और 22 अपाचे हमलावर हेलिकॉप्टरों की खरीद के लिए अमेरिका की दिग्गज विमानन कंपनी बोइंग और अमेरिकी सरकार से तीन अरब डॉलर का समझौता किया था. अपाचे लॉन्गबो हेलिकॉप्टर्स सबसे उन्नत बहु-उद्देश्यीय लड़ाकू हेलीकॉप्टरों में से एक हैं.

ये हेलीकॉप्टर रात में उड़ान भर सकते हैं और खराब मौसम में भी काम कर सकते हैं. इनमें एक मिनट से भी कम समय में 128 लक्ष्यों को पहचानने और बेधने की क्षमता होती है. भारत ने 15 चिनूक हेवी-लिफ्ट हेलीकॉप्टर भी खरीदा है, जो 9.6 टन कार्गो, तोपें, भारी मशीनें और हल्के बख्तरबंद वाहनों को पहाड़ी स्थलों पर ले जाकर ड्रॉप कर सकते हैं. इसकी प्राथमिक भूमिका तोपखाने लगाना, सेना के अभियान और युद्ध के मैदान में आपूर्ति करना है. चिनूक का प्रयोग तोपों, जरूरी सप्लाई और अन्य भारी सैन्य उपकरणों को उत्तर-पूर्व के दुर्गम क्षेत्रों में पहुंचाने के लिए किया जाएगा.

भारत और फ्रांस के बीच राफेल लड़ाकू जेट विमान खरीदने का करार भी महत्वपूर्ण है. भारत ने 36 राफेल जेट विमानों के लिए फ्रांस के साथ 7.8 अरब यूरो का समझौता किया. ये विमान अत्याधुनिक रडार सिस्टम से लैस हैं, जो डेढ़ सौ किलोमीटर तक लक्ष्य पहचानने और बेधने में सक्षम हैं. इसमें लगे मिसाइलों का प्रयोग दुश्मनों के विमानों और क्रूज मिसाइलों को मार गिराने के लिए किया जा सकता है. राफेल जेट विमान 2000 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ान भर सकता है, जो ज्यादातर मिसाइलों के मुकाबले अधिक है.

सरकारी उपेक्षा की मारी सेना बेचारी
भारतीय सेना सरकार की उपेक्षा की शिकार है. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, सत्ता चरित्र वही है, बिल्कुल चरित्रहीन. कहती कुछ और करती ठीक उसके विपरीत है. देश के अंदरूनी हिस्सों से लेकर विशाल सीमा क्षेत्र तक युद्धरत भारतीय सेना सरकारी नाकारेपन और नौकरशाही की खुरपेचों के कारण विनष्ट हो रही है. सेना के संगठनात्मक ढांचे के साथ भी सरकार का बेवकूफाना रवैया जारी है.

सेना के संगठनात्मक ढांचे को दुरुस्त करने का काम नौकरशाही-षडयंत्रों के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहा. भारतीय थल सेना के माउंटेन स्ट्राइक कोर का गठन तो महज एक उदाहरण है, जो सत्ताई-बदतमीजियों में फंस गया है. सेना के आधुनिकीकरण की दिशा में केंद्र सरकार की बेरुखी आने वाले समय में भारतीय सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. 90 हजार दक्ष सैनिकों की क्षमता वाले माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने का यज्ञ वर्ष 2013 से ही चल रहा है, लेकिन सरकारें ही इसमें विघ्न डाल रही हैं.

केवल मौजूदा सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के लिए 64 हजार करोड़ रुपए मंजूर नहीं किए थे. माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को वर्ष 2013 में यूपीए सरकार से ही हरी झंडी मिली थी. इस कोर को खास तौर पर हिमालय क्षेत्र में और तिब्बत के पठारी क्षेत्र में कारगर युद्ध की विशेषज्ञता के लिए तैयार किया जा रहा था. उम्मीद थी कि सरकार से बजट की मंजूरी मिल जाएगी, लेकिन वह नहीं मिली और मौजूदा राजग सरकार भी उस पर कुंडली मार कर बैठ गई.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सेना के कमांडरों के सम्मेलन में इस मसले पर अपनी अनिच्छा जाहिर की और तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सोहाग को यह कहना पड़ा था कि माउंटेन स्ट्राइक कोर अब वर्ष 2021 के पहले सक्रिय नहीं हो पाएगा. स्थिति यह है कि देश के चार स्ट्राइक कोर में से एक 17वीं स्ट्राइक कोर झारखंड में निष्क्रिय पड़ी हुई है. तीन अन्य कोर पाकिस्तान की विभिन्न सीमाओं पर तैनात हैं.

स्ट्राइक कोर को पीस एरिया में डालना बेवकूफाना सामरिक-नीति का नतीजा माना जाता है. एक आला सेनाधिकारी ने 17वीं स्ट्राइक कोर को ‘नाकारा’ और ‘अधूरा’ बताया. उनका कहना था कि एक कोर में न्यूनतम दो डिवीजन होने चाहिए, जबकि 17वीं स्ट्राइक कोर के पास केवल एक ही डिवीजन है. उक्त अधिकारी सुरक्षा के मद्देनजर भारत के भविष्य को आशंका की नजर से देखते हैं.

ऊपर हम चर्चा कर चुके हैं कि भारतीय सेना के लिए केंद्र सरकार ने जो अर्थशास्त्र रचा है, वह कम हास्यास्पद और निंदास्पद नहीं है. 2.47 लाख करोड़ के सैन्य बजट का 70 फीसदी हिस्सा सेना के वेतन और अनुरक्षण पर खर्च हो जाता है. महज 20 प्रतिशत हिस्सा सैन्य उपकरणों की खरीद के लिए बचता है. सेना को हर साल केवल उपकरणों की खरीद के लिए कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है, जबकि उसके पास बचते हैं मात्र 15 सौ करोड़ रुपए.

भारतीय सेना के लिए राइफलें, वाहन, मिसाइलें, तोपें और हेलीकॉप्टर खरीदने की अनिवार्यता चार लाख करोड़ रुपए के लिए लंबित पड़ी हुई है. जबकि सेना की युद्ध क्षमता को विश्व मानक पर दुरुस्त रखने के लिए यह काम निहायत जरूरी है. अब तो पाकिस्तान के साथ-साथ चीन की ओर से भी खतरा तेजी से घिरता जा रहा है. ऐसे में यह काम पहली प्राथमिकता पर होना चाहिए.

यूपीए सरकार की ही तरह राजग सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी 64 हजार रुपए मंजूर नहीं किए हैं. इस वजह से न सेना मजबूत हो पा रही है और न चीन से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सुरक्षा बंदोबस्त पुख्ता हो सका है. मोदी ने तो माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को ही दोबारा पुनरीक्षण (रिव्यू) में डाल दिया और सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को इसकी जिम्मेदारी दे दी. डोवाल ने तो 17वीं कोर को निष्क्रिय करने की ही सिफारिश कर दी. यह रक्षा व्यवस्था के प्रति भारत सरकार के दृष्टिकोण की असलियत है.

आपको याद दिलाते चलें कि वर्ष 1986 में अरुणाचल प्रदेश के सुमडोरोंग चू घाटी में चीनी सेना के साथ हुई आमने-सामने की तनातनी में तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल के सुंदरजी ने ‘ऑपरेशन फाल्कन’ के तहत पूरी एक इन्फैंट्री ब्रिगेड को वायुसेना के जहाजों के जरिए उतार दिया था. उसके बाद ही स्ट्राइक कोर की योजना पर सैन्य रणनीतिकार तेजी से काम करने लगे. वर्ष 2003 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल एनसी विज के कार्यकाल में पाकिस्तान और चीन, दोनों सीमाओं पर नई सुरक्षा रणनीति अपनाने की योजना बनी.

तभी यह योजना बन गई कि 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में माउंटेन स्ट्राइक कोर को अस्तित्व में लाया जाएगा. इसके बाद भी भारत को चीन की तरफ से कई तीखे और अपमानजनक व्यवहार झेलने पड़े. चीनी सेना भारतीय क्षेत्र में 19 किलोमीटर अंदर तक घुस आई, पर हम कुछ नहीं कर पाए. अप्रैल-मई 2013 की घटना से खुद भारतीय सेना भी शर्मसार हुई. सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी के समक्ष खुद उपस्थित होकर सीमा की विषम स्थिति के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य वरिष्ठ मंत्रियों को अवगत कराया.

तब जाकर जुलाई 2013 में यूपीए सरकार ने माउंटेन स्ट्राइक कोर के प्रस्ताव को औपचारिक मंजूरी दे दी. लेकिन कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी धन की मंजूरी नहीं दी. यूपीए के बाद केंद्र की सत्ता में आई राजग की सरकार ने भी इसकी मंजूरी नहीं दी और उल्टा कोर गठन के प्रस्ताव को ही पेंच में उलझा दिया. रक्षा मंत्रालय के कुछ अधिकारी अब माउंटेन स्ट्राइक कोर के 2021 में अस्तित्व में आने की उम्मीद जताते हैं, लेकिन इसे पक्का नहीं बताते. वे यह भी आशंका जताते हैं कि तबतक कहीं देर न हो जाए.

चीन से लगने वाली संवेदनशील सीमा में सेना के सुगमता से आने-जाने के लिए ढांचागत विकास की रफ्तार ही इतनी ढीली है कि चीन बड़ी आसानी से इधर आकर भारतीय रक्षा प्रणाली को तहस-नहस कर सकता है. आप आश्चर्य करेंगे कि विस्तृत चीन सीमा तक पहुंचने वाली अत्यंत संवेदनशील 75 सड़कों में से केवल 21 सड़कें ही अब तक तैयार हो पाई हैं. 54 सड़कों के निर्माण का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ है. वर्ष 2010 में ही चीन सीमा क्षेत्र में 28 रेलवे लाइनें बिछाने का प्रस्ताव मंजूर किया गया था.

लेकिन आज तक इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नहीं हुआ. यह संसद में रखे गए आधिकारिक दस्तावेज से ली गई सूचना है. स्ट्राइक कोर की खासियत शत्रु पर सीधे प्रहार की होती है. 1962 के युद्ध में भारतीय सेना ने रक्षात्मक प्रणाली का खामियाजा भुगत लिया था. इसलिए दुश्मन पर सीधा प्रहार करने और दुश्मन के इलाके में घुस कर तबाही मचाने की रणनीति पर काम शुरू हुआ. स्ट्राइक कोर इसी परिवर्तित रणनीति का हिस्सा है, लेकिन सरकार की अदूरदर्शिता के कारण इस पर ग्रहण लगा हुआ है.

सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश की इजाजत को सुरक्षा और आत्मनिर्भरता, दोनों दृष्टिकोणों से अनुचित मानते हैं. उनका सवाल है कि क्या भारत के सार्वजनिक प्रतिष्ठान विदेशी तकनीक के सहयोग से स्वदेशी निर्मित उपकरण नहीं बना सकते? क्या हम अपनी प्रतिभा और संसाधनों से रक्षा के मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सकते?

रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में हमारी आत्मनिर्भरता रक्षा खरीद में विशाल रिश्वतखोरी के कारण विकसित नहीं हो पाई. आजादी के बाद से आज तक भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों ने भारी रिश्वत और अय्याशी के प्रलोभन में रक्षा क्षेत्र को आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया. देश में रक्षा उपकरणों का उत्पाद बड़े स्तर पर होता तो हम रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ रक्षा उत्पादों के बड़े विक्रेता भी हो जाते. इससे हम अबतक इजराइल की तरह मजबूत हुए होते और रक्षा मामले में परंपरागत तरीके से होती चली आ रही दलाली से बच सकते थे. बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो जाती.

रक्षा उत्पाद के क्षेत्र में विदेशी निवेश से उस देश का हमारे देश पर रक्षा वर्चस्व कायम होगा और हमें उसकी गलत नीतियां भी सहन करनी पड़ेंगी. निवेश करने वाला देश हमें दोयम दर्जे की तकनीक और उपकरण मुहैया कराएगा और हमें बर्दाश्त करना पड़ेगा. अमेरिका का उदाहरण सामने है कि उसे जब अपनी वायुसेना का आधुनिकीकरण करना था, तो उसने अपने एफ-16 विमानों का ‘कूड़ा’ पाकिस्तान को बेच दिया और अपना बेड़ा आधुनिक कर लिया. रक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के प्रमुख उद्योगपति ऑस्कर स्किंडलर को हिटलर की सरकार ने बड़े पैमाने पर आयुध बनाने का ठेका दिया था.

स्किंडलर ने ऐसे गोले बनाए, जो युद्ध में फटे ही नहीं. इससे जर्मन सेना का मनोबल टूट गया और हिटलर को हार का और मौत का सामना करना पड़ा. स्किंडलर ने दुश्मन देशों से रिश्वत ली हो या उसने हिटलर की पीठ में छुरा घोंपा हो, जो भी हो, लेकिन उसकी करतूत ने पूरी दुनिया को यह सोचने पर मजबूर जरूर किया कि सरकारों को देश के रक्षा उत्पादों का संवेदनशील काम देसी या विदेशी पूंजी घरानों को नहीं देना चाहिए, क्योंकि यह हमेशा खतरे की सनद देता रहेगा.

मोदी के इज़राइली दौरे से भारतीय रक्षा क्षेत्र को उम्मीदें
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जुलाई महीने में इजराइल का दौरा प्रस्तावित है. मोदी की इजराइल यात्रा के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल इजराइल जाकर जायजा ले चुके हैं और वहां के सुरक्षा सलाहकार से मुलाकात कर चुके हैं. भारत और इजराइल के राजनयिक संबंधों के 25 साल पूरा होने के उपलक्ष्य में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू मिलेंगे और सुरक्षा मसलों पर बातचीत करेंगे. मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं, जो इजराइल जा रहे हैं. इस ऐतिहासिक दौरे पर दुनियाभर की निगाहें लगी हैं.

वैसे, मोदी सरकार आने के बाद से भारत और इजराइल काफी करीब आए हैं. मोदी की इजराइल यात्रा का महत्व इस बात से ही समझा जा सकता है कि पिछले ही दिनों केंद्र सरकार की रक्षा खरीद समिति ने इजराइल से भारतीय नौसेना के लिए बराक मिसाइलें खरीदने का फैसला किया. समिति ने 860 करोड़ रुपए से अधिक के रक्षा सौदों को मंजूरी दी. बराक मिसाइलों की जरूरत हिंद महासागर क्षेत्र में बदलते सुरक्षा परिदृश्य के मद्देनजर भारत की समुद्री क्षमता बढ़ाने के लिए काफी अहम है. बराक मध्यम रेंज की सतह से आकाश में मार करने वाली मिसाइल है, जो नौसेना के युद्धपोतों में लगाई जाती है.

बराक-1 मिसाइलें इजराइल की राफेल कंपनी से खरीदी जाएंगी. कुल सौ बराक मिसाइलों की कीमत 500 करोड़ रुपए होगी. इसके बाद भारतीय नौसना के लगभग सभी जहाज इन मिसाइलों से लैस हो जाएंगे. इजराइल यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी फिलस्तीनी इलाके का दौरा नहीं करेंगे. उनका दौरा इजराइल तक ही सीमित रहेगा. इजराइल को लेकर मोदी ने अपनी विदेश नीति बदली है. वर्ष 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब इजराइल के दौरे पर गए थे, तो उन्होंने फिलस्तीनी इलाकों और जॉर्डन का भी दौरा किया था.

केंद्र की मौजूदा भाजपा सरकार भी अलग फिलस्तीनी राज्य का समर्थन करती है और मध्य-पूर्व में विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे की हिमायत करती है. करगिल युद्ध के बाद भारत की रक्षा प्रणाली में इजराइल की सार्थक भूमिका के बाद इजराइल और भारत के रिश्तों में काफी गर्माहट आई है. आज भारत इजराइल से रक्षा उपकरण खरीदने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है. सीमा सुरक्षा प्रणाली, राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद से मुकाबला करने में इजराइल भारत की मदद कर रहा है. इसके साथ ही डेयरी, सिंचाई, ऊर्जा, इंजीनियरिंग और विज्ञान के क्षेत्रों में भी दोनों देशों के बीच सहयोग तेजी से बढ़ा है.

रक्षा उत्पाद क्षेत्र में निजी या विदेशी निवेश खतरनाक
सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश की इजाजत को सुरक्षा और आत्मनिर्भरता, दोनों दृष्टिकोणों से अनुचित मानते हैं. उनका सवाल है कि क्या भारत के सार्वजनिक प्रतिष्ठान विदेशी तकनीक के सहयोग से स्वदेशी निर्मित उपकरण नहीं बना सकते? क्या हम अपनी प्रतिभा और संसाधनों से रक्षा के मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सकते? रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में हमारी आत्मनिर्भरता रक्षा खरीद में विशाल रिश्वतखोरी के कारण विकसित नहीं हो पाई.

आजादी के बाद से आज तक भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों ने भारी रिश्वत और अय्याशी के प्रलोभन में रक्षा क्षेत्र को आत्मनिर्भर नहीं बनने दिया. देश में रक्षा उपकरणों का उत्पाद बड़े स्तर पर होता तो हम रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ रक्षा उत्पादों के बड़े विक्रेता भी हो जाते. इससे हम अबतक इजराइल की तरह मजबूत हुए होते और रक्षा मामले में परंपरागत तरीके से होती चली आ रही दलाली से बच सकते थे.

बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो जाती. रक्षा उत्पाद के क्षेत्र में विदेशी निवेश से उस देश का हमारे देश पर रक्षा वर्चस्व कायम होगा और हमें उसकी गलत नीतियां भी सहन करनी पड़ेंगी. निवेश करने वाला देश हमें दोयम दर्जे की तकनीक और उपकरण मुहैया कराएगा और हमें बर्दाश्त करना पड़ेगा. अमेरिका का उदाहरण सामने है कि उसे जब अपनी वायुसेना का आधुनिकीकरण करना था, तो उसने अपने एफ-16 विमानों का ‘कूड़ा’ पाकिस्तान को बेच दिया और अपना बेड़ा आधुनिक कर लिया.

रक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के प्रमुख उद्योगपति ऑस्कर स्किंडलर को हिटलर की सरकार ने बड़े पैमाने पर आयुध बनाने का ठेका दिया था. स्किंडलर ने ऐसे गोले बनाए, जो युद्ध में फटे ही नहीं. इससे जर्मन सेना का मनोबल टूट गया और हिटलर को हार का और मौत का सामना करना पड़ा.

स्किंडलर ने दुश्मन देशों से रिश्वत ली हो या उसने हिटलर की पीठ में छुरा घोंपा हो, जो भी हो, लेकिन उसकी करतूत ने पूरी दुनिया को यह सोचने पर मजबूर जरूर किया कि सरकारों को देश के रक्षा उत्पादों का संवेदनशील काम देसी या विदेशी पूंजी घरानों को नहीं देना चाहिए, क्योंकि यह हमेशा खतरे की सनद देता रहेगा.

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