narendra-modiकाम नहीं हाथ में, विकास किसके साथ में!
आगामी तीन साल के दौरान भारत की आईटी कंपनियों में काम कर रहे हजारों लोगों की नौकरी खतरे में है. ऐसी रिपोट्‌र्स आ रही हैं कि कुछ आईटी कंपनियों ने फरवरी से ही छंटनी शुरू कर दी है. कुछ लोगों को नोटिस दे दी गई है और जल्द ही छंटनी का काम शुरू हो जाएगा. गौरतलब है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकियों के हितों को देखते हुए आईटी व अन्य कंपनियों में स्थानीय लोगों को नौकरी देने पर जोर दिया है. इसके लिए अमेरिका ने एच1बी वीजा नियमों पर सख्ती करनी शुरू कर दी है.

इसके तहत अमेरिका स्थित आईटी कंपनियों में भारतीय कर्मचारियों की छंटनी कर अमेरिकी कर्मचारियों को भर्ती करने पर जोर दिया जा रहा है. बहरहाल, ये हाल तो संगठित क्षेत्र का है, लेकिन अगर हम असंगठित क्षेत्र की बात करें और खास कर नोटबंदी के प्रकाश में यह देखने की कोशिश करें कि इसका नौकरियों पर क्या असर पड़ा, तो तस्वीर काफी भयावह है. एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में अक्टूबर 2016 से लेकर जनवरी 2017 के बीच 1.52 लाख अस्थायी नौकरियां और 46,000 पार्ट टाइम नौकरियां खत्म हो गईं. देश में नोटबंदी की मार सबसे अधिक असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों पर पड़ी. इससे छोटी औद्योगिक इकाइयों में काम कर रहे हजारों लोग बेरोजगार हो गए. एक प्रमुख बिजनेस अखबार के अनुसार, तिमाही रोजगार सर्वे में नोटबंदी का समय भी शामिल है. इस दौरान सबसे ज्यादा असर अस्थायी नौकरियों पर हुआ था.

निर्माण क्षेत्र में लगभग 1.13 लाख नौकरियां खत्म हुई थीं, जबकि आईटी और बीपीओ में भी 20000 नौकरियां प्रभावित हुईं. इस दौरान निर्माण क्षेत्र में पार्ट टाइम नौकरी करने वाले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. सर्वेक्षण के मुताबिक जनवरी से मार्च 2017 के दौरान हुए सर्वे में निर्माण, ट्रेड, परिवहन, आईटी-बीपीओ, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन देखे गए. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस तिमाही में निर्माण क्षेत्र में एक नकारात्मक बदलाव देखा गया है. हालांकि आवास और रेस्तरां क्षेत्रों में कोई बदलाव नहीं हुआ है. इस पूरे तिमाही में कुल मिलाकर श्रमिकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जहां नियमित श्रमिकों की संख्या 1.39 लाख हुई है, तो वहीं ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों की संख्या 1.24 लाख हुई. नरेंद्र मोदी सरकार के लिए रोजगार सृजन एक प्रमुख चुनौती है.

मोदी ने लोक सभा चुनाव के दौरान हर साल लगभग 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था.एक रिपोर्ट के अनुसार, 16.5 फीसदी से अधिक भारतीय श्रमिक नियमित वेतन अर्जित नहीं कर पाते हैं. इसी रिपोर्ट में एक अनुमान के अनुसार, चार भारतीय परिवारों में से तीन यानि 78 फीसदी के पास नियमित मजदूरी या वेतन का कोई जरिया नहीं है. आकस्मिक मजदूरों का अनुपात 30.9 फीसदी से ज्यादा है. जहां नौकरी की सुरक्षा की बात की जानी चाहिए थी, वहां भारत में अनुबंध और आकस्मिक काम में वृद्धि हो रही है. वर्ष 1999 से लेकर 2010 के बीच संगठित रोजगार में कुल अनुबंध श्रमिकों का हिस्सा 10.5 फीसदी से बढ़कर 25.6 फीसदी हो गया है.

लेकिन इसी अवधि के दौरान सीधे कार्यरत कामगारों की हिस्सेदारी 68.3 फीसदी से घटकर 52.4 फीसदी हो गई है. यहां तक कि नियमित श्रमिकों को कम अवधि के अनुबंधों पर तेजी से नियुक्त किया गया, जिनमें बहुत कम या फिर नाममात्र की सामाजिक सुरक्षा थी. इस तरह संगठित श्रम बाजार में बढ़ती अनौपचारिकता ने औपचारिक और अनौपचारिक श्रम के बीच के अंतर को कम कर दिया है.

अनौपचारिक क्षेत्र, संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्र मिलाकर, भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 50 फीसदी रोजगार के अवसर उत्पन्न करता है. इससे देश के 90 फीसदी से अधिक लोगों को काम मिलता है. असंगठित क्षेत्र में औपचारिक और अनौपचारिक रोजगार के लिए कुल आंकड़ा 82.7 फीसदी है. 47.5 करोड़ के मौजूदा कार्यबल में, लगभग 40 करोड़, जो कि संयुक्त राज्य की आबादी की तुलना में काफी बड़ा है, को श्रम कानून व्यवस्था के तहत तय सुरक्षा का बहुत कम लाभ या बहुत कम औपचारिक हक मिलता है.

रोजगार की अधिक संभावनाएं पैदा करने के सरकार के वादे के विपरीत वास्तविकता यह है कि रोजगार में अधिक अनिश्चितता की स्थिति बनी है, कम नौकरियां हैं और उससे भी कम सुरक्षा हो गई है. यहां तक कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है, अर्थव्यवस्था सुधार की दर उच्च हुई है, रोजगार सृजन आशाजनक रहा है, हालांकि सभी क्षेत्रों में इसका असर नहीं दिख रहा है. 1999 से 2010 के दौरान, जब जीडीपी विकास दर प्रति वर्ष 7.52 फीसदी तक पहुंच गई, तब रोजगार वृद्धि केवल 1.5 फीसदी ही रही. लिखित नौकरी अनुबंध भारत में तेजी से खत्म हो रहे हैं. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार करीब 93 फीसदी कैजुअल श्रमिकों और 68.4 फीसदी अनुबंध श्रमिकों के पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है. यहां तक कि अधिक औपचारिक मजदूरी / वेतनभोगी कर्मचारियों के बीच, लगभग 66 फीसदी लोगों ने लिखित कार्य अनुबंध के बिना काम करने की बात कही है.

नकली नोट, काला धन और नोटबंदी
नोटबंदी का एक प्रमुख कारण नकली नोटों पर रोक लगाना और काला धन वापस लाना था. इस बात को खुद प्रधानमंत्री ने कहा था. सवाल है कि क्या नोटबंदी से ऐसा संभव हुआ? सरकारी आंकड़ों पर एक संस्था (इंडियास्पेंड) द्वारा किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में 2015-16 में हर 250 नकली नोट में से केवल 16 का पता लगाया गया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा था कि पुराने नोटों को बंद करने का मुख्य कारण नकली नोटों पर रोक लगाना है, जिससे आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है. नोटबन्दी के वक्त 500 और 1000 रुपए के नोटों की मुद्रा संचलन में 86 फीसदी हिस्सेदारी थी. भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2015-16 में 90.26 बिलियन भारतीय मुद्राएं चलन में थीं. इनमें से 0.63 मिलियन नोट (यानि 0.0007 फीसदी) से अधिक नकली नहीं पाए गए थे. 2015-16 में इन नकली नोटों के मूल्य 29.64 करोड़ रुपए थे, जो चलन में 16.41 लाख करोड़ रुपए का 0.0018 फीसदी है.

इन आंकड़ों में पुलिस और अन्य प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा जब्त नोट शामिल नहीं हैं. 18 नवंबर, 2016 को लोक सभा में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2015 में 0.88 मिलियन नकली नोट जब्त किए गए, जिसका मूल्य 43.8 करोड़ रुपए था. आंकड़ों से पता चलता है कि 30 सितंबर, 2016 तक 27.8 करोड़ रुपए के नकली नोट जब्त किए गए. भारतीय सांख्यिकी संस्थान और राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा वर्ष 2015 में किए गए संयुक्त अध्ययन के अनुसार किसी भी समय चलन में नकली मुद्राओं का मूल्य 400 करोड़ रुपए होता है.

हर 10 लाख नोट में 250 नोट नकली होते हैं. अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि करीब 70 करोड़ रुपए मूल्य के नकली नोट हर साल चलन में आते हैं. इसमें से केवल एक तिहाई की पहचान ही एजेंसियों द्वारा हो पाती है. नकली नोटों का पता मुख्य रूप से वाणिज्यिक बैंकों द्वारा लगाया जाता है. सवाल है कि नोटबन्दी के दौरान कितने प्रतिशत नकली नोट का पता लगाया गया, ये आंकड़ा सार्वजनिक क्यों नहीं किया जा रहा है?

दूसरा मुद्दा है काला धन का. ऐसा माना जाता है कि ब्लैक इकोनॉमी यानि काली अर्थव्यवस्था में नगद का हिस्सा 3 से 7 फीसदी के बीच होता है. साल 2012 में, तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भारत के काला धन पर एक श्वेत पत्र जारी किया था. पत्र से पता चलता है कि अज्ञात आय का नगद घटक 3.7 फीसदी से 7.4 फीसदी के बीच है. ये आंकड़े केंद्र के प्रत्यक्ष कर बोर्ड द्वारा दिए गए रिपोर्ट पर आधारित थे.

श्वेत पत्र के अनुसार, वित्त वर्ष 2011-12 में, 9289 करोड़ रुपए की स्वीकृत अघोषित आय में से 499 करोड़ रुपए (5.4 फीसदी) से अधिक नगद में नहीं पाया गया था. 1 अप्रैल से 31 अक्टूबर, 2016 के बीच आयकर जांच से पता चलता है कि कालाधन धारकों ने 7700 करोड़ रुपए के मूल्य की बेहिसाब संपत्ति होने की बात स्वीकार की है.

इसमें से 408 करोड़ रुपए या 5 फीसदी नगदी थी. आंकड़ों से पता चलता है कि बाकी पैसे व्यापार, स्टॉक, अचल संपत्ति और बेनामी बैंक खातों में निवेश किए गए. वर्ष 2015-16 में जब सबसे ज्यादा काला धन पता चलने की रिपोर्ट हुई है, तब उसमें नगदी की हिस्सेदारी 6 फीसदी थी. इधर, नोटबंदी के बाद अब यूनाइटेड नेशन यानि संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में ब्लैक मनी पर रोक लगाने के लिए केवल नोटबंदी से ही काम नहीं चलेगा. यूनाइटेड नेशन की इकोनॉमिक एंड सोशल सर्वे ऑफ एशिया एंड पैसिफिक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अनुमानित ब्लैक मनी देश की जीडीपी की 20 से 25 फीसदी के आस-पास हो सकती है. इनमें वैल्यू के लिहाज से कैश का हिस्सा सिर्फ 10 फीसदी के आस-पास ही है.

ऐसे में नोटबंदी ब्लैक मनी पर पूरी तरह से नियंत्रण करने का उपाय नहीं हो सकती है. इसके लिए सरकार को दूसरे उपायों पर विचार करना होगा. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि नोटबंदी सभी तरह की ब्लैक मनी पर नियंत्रण करने के लिए काफी साबित नहीं हुई. कैश के अलावा दूसरी तरह की संपत्ति के रूप में भी लोगों के पास अघोषित संपत्ति है. यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक प्रॉपर्टी के पंजीकरण की प्रक्रिया में बदलाव करने की जरूरत है, जिससे कि प्रॉपर्टी में निवेश को लेकर पारदर्शिता आए. वहीं, पारदर्शिता के लिए सभी तरह के टैक्स, आय घोषणा स्कीम और करदाता पहचान संख्या के माध्यम से ऊंचे मूल्य के लेन-देन पर नजर रखना शामिल है.

किसानों को न ऋृण मिल रहा न बिक रही उपज
मन्दसौर जिले के सैकड़ों किसान अब भी नोटबंदी की चपेट में हैं. प्रदेश के मालवा इलाके में इसका असर अब भी देखने को मिल रहा है. दरअसल यहां के कई किसान हर साल सहकारी समितियों के माध्यम से फसलों का लोन लेते हैं. पिछले साल का लिया गया लोन तमाम किसानों ने जमा भी करा दिया, लेकिन कैश की कमी के चलते सहकारी समितियां उन्हें दोबारा लोन नहीं दे पा रही हैं. मध्य प्रदेश के सहकारी बैंकों की ओर से किसानों को दिए जाने वाले ऋृण में सालाना 2500 करोड़ रुपए की भारी कमी आई है.

2015-16 में जहां इन बैंकों ने 13,900 करोड़ रुपए का ऋृण बांटा था, वहीं गत वित्त वर्ष में यह राशि घटकर 11,400 करोड़ रुपए रह गई. हालांकि इस वर्ष 15,000 करोड़ रुपए के ऋृण वितरण का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन नोटबंदी और समय पर नाबार्ड की सीमा नहीं मिल पाने के कारण लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका. बीते वित्त वर्ष में सहकारी बैंकों ने खरीफ सीजन में लगभग 8000 करोड़ रुपए और रबी सीजन में 3400 करोड़ रुपए का कर्ज बांटा, जबकि वर्ष 2015-16 में यह आंकड़ा क्रमश: 9400 करोड़ रुपए और 3500 करोड़ रुपए था. उधर रबी के सीजन में नोटबंदी ने ऋृण वितरण पर असर डाला. प्रदेश भर के किसानों को नोटबंदी के कारण ऋृण लेने में दिक्कत हुई. जब तक नोटबंदी खत्म हुई, तब तक किसानों की जरूरत भी समाप्त हो चुकी थी.

बहरहाल, नोटबंदी के दौरान किसानों की हालत ये थी कि उन्होंने अपने खेतों की पैदावर मवेशियों को खिला दी, क्योंकि फायदा और लागत तो दूर, उसे बेचने पर मिलने वाले पैसों से बाजार तक माल पहुंचाने का खर्च भी नहीं निकल सकता था. नोटबंदी के बाद सब्जियों की कीमतों में कमी देखी गई, किसान मजबूरी में औने-पौने दामों में अपनी सब्जियां, फल और दाल बेचने को मजबूर हुए. एमएसपी में कमी देखने को मिली और अब भी एमएसपी नहीं मिल पा रही है.

लगातार दो साल के सूखे के बाद किसान हालात से उबर ही रहे थे कि उन्हें नोटबंदी की मार झेलनी पड़ गई. नोटबंदी के पहले 50 दिनों की बात करें, तो इस दौरान किसानों की आय में 50-60 फीसदी की कमी हुई है. अरहर दाल उगाने वाले किसानों को 5050 रुपए एमएसपी की तुलना में सिर्फ 3 से साढ़े तीन हजार रुपए प्रति क्ंिवटल दाल बेचनी पड़ी.

रबी फसल की रिकॉर्ड बुआई का हवाला देते हुए कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने कहा था कि पिछले साल 438.90 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इस साल 472.43 लाख हेक्टेयर में रबी की बुआई हुई है, जो कि पिछले साल से 7.64 फीसदी अधिक है. सरकार ने सिर्फ इस आंकड़े के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की कि खेती-किसानी पर नोटबंदी का कोई असर नहीं प़डा.

जबकि सच्चाई ये है कि किसान बुआई से पहले ही बीज और खाद के लिए पैसों की व्यवस्था कर लेते हैं. इस बार भी यही हुआ था. किसानों ने पहले से व्यवस्थित संसाधनों के जरिए खेतों में बुआई कर ली थी. लेकिन समस्या अब सामने आ रही है, जब किसानों की फसल तैयार हो गई है और उन्हें अपनी फसल का कोई खरीदार नहीं मिल रहा है. सरकारी स्तर पर भी देखें तो गेहूं क्रय का काम बहुत ही धीमी गति से चल रहा है. उदाहरण के लिए यूपी सरकार ने इस साल घोषणा की थी कि वह किसानों से 80 लाख टन गेहूं खरीदेगी. लेकिन, उत्तर प्रदेश सरकार अभी तक मात्र 16 लाख टन ही गेहूं खरीद पाई है.

मैनुफैक्चरिंग सेक्टर बुरी तरह प्रभावित
मेक इन इंडिया जैसे लुभावने नारों के बाद भी 2015-16 के दौरान तैयार वस्तुओं की बिक्री में 3.7 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है. आने वाले समय में इस क्षेत्र में कर्मचारियों की और छंटनी व ऋृण के मामले में डिफॉल्टर होने की आशंका देखी जा सकती है. वैश्विक मंदी और मांग की कमी के कारण, नोटबंदी के पहले ही विनिर्मित वस्तुओं की बिक्री में गिरावट हो रही थी, जिसका असर वस्त्रों से लेकर चमड़े और स्टील के क्षेत्रों पर भी हुआ है. परिणामस्वरूप, सितंबर 2016 तक छह महीने में इंजीनियरिंग कंपनी लार्सन एंड टुब्रो ने करीब 14,000 कर्मचारियों की छंटनी की है.

नोटबंदी के पहले 34 दिनों में, सूक्ष्म और लघु उद्योगों को राजस्व में 35 फीसदी और 50 फीसदी के नुकसान का सामना करना पड़ा है. वैश्विक उथल-पुथल भी निर्माताओं के लिए समस्याओं का कारण बना है. पिछले तीन सालों से वैश्विक बाजार में अनिश्चितता की स्थिति बनी है. विदेशी मुद्रा बाजार में उतार-चढ़ाव रहा है और इससे बिक्री में कमी हुई है. इसका लाभ मार्जिन पर नकारात्मक असर पड़ा है. भारतीय रिजर्व बैंक ने यह भी कहा कि भारतीय निर्माताओं पर 6.9 लाख करोड़ रुपए का सामूहिक कर्ज है.

पिछले चार वर्षों में 1707 विनिर्माण कंपनियों का अध्ययन कर भारतीय रिजर्व बैंक ने बताया कि कमजोर कंपनियों की संख्या जिनकी ऋृण-इक्विटी अनुपात 200 फीसदी से अधिक है, 2012-13 में 215 से बढ़कर 2015-16 में 284 हो गई है, यानि इसमें 32 फीसदी की वृद्धि हुई है. उच्च ऋृण-इक्विटी अनुपात का मतलब विकास के लिए कंपनियों का आक्रामक तरीके से उधार के पैसे का उपयोग करना होता है, जिसमें डिफॉल्ट का उच्च जोखिम भी बना रहता है.

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश और अर्थव्यवस्था का दोबारा मुद्रीकरण व अन्य कदम उठाकर नोटबंदी से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए सरकार को प्रयास करना चाहिए. सरकार को जल्दी से जल्दी वित्तीय प्रणाली के मुद्रीकरण करने की जरूरत है, जिसमें विनिर्माण क्षेत्र के कुछ हिस्से भी शामिल हैं.

आंकड़ों के मकड़जाल में विकास
8 नवंबर को जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का ऐलान किया, तब ये माना गया कि अर्थव्यवस्था पर इसका असर काफ़ी व्यापक हो सकता है. लेकिन भारत सरकार के आंकड़ों से यह पता चलता है कि गिरावट वैसी नहीं है, जिसकी कल्पना आर्थिक मामलों के जानकारों ने की थी. सरकार द्वारा जारी ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक साल 2016-17 की तीसरी तिमाही में, यानि अक्टूबर से दिसंबर 2016 के बीच विकास दर 7 फ़ीसदी रहने की उम्मीद है. इस पूरे साल की अनुमानित विकास दर 7.1 फ़ीसदी बताई जा रही है, जबकि साल 2015-16 में ये दर 7.9 फीसदी थी.

ख़ास बात ये है कि खेती में बढ़ोतरी अच्छी ख़ासी देखी जा रही है, हालांकि माइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में गिरावट है. 2016-17 में खेती की अनुमानित विकास दर बीते साल के 0.8 फीसदी से बढ़कर 4.4 फीसदी हो गई है. हालांकि मैन्युफैक्चरिंग में 10.6 फीसदी का विकास दर इस साल 7.7 फीसदी रहने का अनुमान है. कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में भी मामूली बढ़ोतरी है, यह 2.8 फीसदी से बढ़कर 3.1 फीसदी हुई है.

इधर, फिक्की द्वारा मार्च और अप्रैल 2017 में किए गए सर्वेक्षण के बाद अनुमान लगाया गया है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर वित्त वर्ष 2017-18 में लगभग 7.4 फीसदी रहेगी.

इसका अधिकतम स्तर 7.6 फीसदी और न्यूनतम स्तर 7 फीसदी रह सकता है. फिक्की के आर्थिक परिदृश्य सर्वेक्षण में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 3.5 फीसदी रहेगी, साथ ही उद्योग और सेवा क्षेत्र में सुधार से भी जीडीपी को समर्थन मिलेगा. सर्वेक्षण के नतीजों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की दर 4.8 फीसदी रहने का अनुमान है, जिसकी अधिकतम दर 5.3 फीसदी और न्यूनतम दर चार फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत को सुधारों पर ध्यान देने की जरूरत है. देश में निवेश के माहौल को सुधारने की जरूरत है, जो अभी पटरी से उतरी हुई दिख रही है.

तो इसलिए हुई थी नोटबंदी
कालाधन का पता कैसे लगाया जाए, यह सवाल केंद्र सरकार के सामने सुरसा के मुंह की तरह खड़ी थी, इसलिए सरकार ने इन्कम डिस्क्लोज़र स्कीम लॉन्च किया था. लेकिन, इस योजना के तहत कालाधन का पता लगाने की कोशिशों के दौरान यह पता चला कि खुद देश के विभिन्न बैंकों के माध्यम से ही बहुत बड़ी मात्रा में कालेधन का ट्रांजेक्शन हो रहा है. कई सारे बैंक पैन नंबर दर्ज किए बगैर करोड़ों और अरबों रुपये का लेन-देन कर रहे हैं. ऐसे सात लाख ट्रांंजेक्शन से ज़ुडे लोगों को सरकार की तरफ से नोटिस भेजा गया.

लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से 6 लाख 90 हजार नोटिस एड्रेसी नॉट फाउंड यानि पता नहीं मिला, लिख कर वापस आ गईं. इसका अर्थ ये हुआ कि इन ट्रांजेक्शंस में जो पते बताए गए थे, उन पतों पर कोई रहने वाला कोई नहीं था यानि ये सभी पते फर्जी थे. सवाल है कि ऐसी स्थिति में सरकार क्या कदम उठाए? किन लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाए? गौरतलब है कि 90 लाख बैंक ट्रांंजेक्शन पैन नंबर के बिना किए गए थे. इनमें 14 लाख हाई वैल्यू ट्रांजेक्शन हैं. इनमें सात लाख बड़े ट्रांंजेक्शन हाई-रिस्क वाले हैं. इन्हीं सात लाख ट्रांंजेक्शन के सिलसिले में नोटिस जारी हुई थी और पता नहीं मिलने पर वापस आ गई थी.

जब कालाधन पकड़ने की सभी योजनाएं फेल हो गईं, तब ये सवाल उठा कि आखिर इसका समाधान क्या होगा? वापस लौट कर आई नोटिसों का आयकर विभाग क्या करे, ये भी एक बड़ा सवाल था? कैसे कालाधन के इन चोरों के खिलाफ कार्रवाई हो? इतनी अधिक संख्या में लोगों से पूछताछ कैसे की जाए? क्या इसके लिए बैंकों के खिलाफ कार्रवाई भी की जाए? आर्थिक मामलों के कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यदि तब इतने बड़े पैमाने पर बैंकों के खिलाफ कार्रवाई की जाती तो पूरे बैंकिंग प्रणाली के ध्वस्त होने का खतरा था. सरकार इतनी बड़ी जोखिम नहीं ले सकती थी.

जाहिर है, इसका एकमात्र रास्ता जो सरकार को सूझा, वह नोटबंदी जैसे कदम उठाना ही था. नोटबंदी ही एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके जरिए उक्त अवैध ट्रांंजेक्शन पर वार किया जा सकता था. हालांकि, वो वार कितना सफल हुआ, कितना असफल, ये कहना तब तक मुश्किल है, जब तक आरबीआई या सरकार की तरफ से कोई ठोस आंकड़ा पेश नहीं किया जाता है. लेकिन, नोटबंदी का एक तात्कालिक कारण ये उक्त अवैध ट्रांंजेक्शन भी थे.

वादा तेरा वादा…
1. विदेशों में जमा काला धन की जांच करवाएंगे. काला धन देश में वापस लाकर उसे विकास कार्यों में लगाएंगे.
2. वाराणसी को देश की सांस्कृतिक राजधानी बनाकर उसे दुनिया के नक्शे पर चमकाया जाएगा.
3. नदियों को जोड़ा जाएगा. तटीय क्षेत्रों का विकास, तटों को जोड़ने के लिए सागरमाला प्रोजेक्ट लाया जाएगा.
4. देशभर में बुलेट ट्रेन चलाई जाएंगी.
5. 100 नए शहर बसाए जाएंगे.
6. करप्शन दूर करेंगे. इसके लिए नए तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा.
7. महंगाई कम की जाएगी. ऐसी योजनाएं बनाई जाएंगी जिनसे महंगाई कम हो सके.
8. सबको पक्का घर और हर घर में पानी.
9. पटना, रांची, वाराणसी और कोलकाता को पूर्वोत्तर का केंद्र बनाकर पूर्वी राज्यों का विकास.
10. गुजराती मछुआरों की पाकिस्तान से रक्षा की जाएगी.
11. किसानों को 50 फीसदी अतिरिक्त एमएसपी
12. हर साल दो करोड़ रोजगार

कॉरपोरेट ऋृण में कमी क्यों
आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक पिछले छह वर्षों के दौरान एनपीए में वृद्धि और सुस्त आर्थिक विकास से कॉर्पोरेट उधार में 600 फीसदी की गिरावट आई है. ऑटोमोबाइल कंपनियों द्वारा डीलरों को गाड़ी वितरण करने में काफी परेशानी हो रही है. पिछले छह वर्षों में घर की बिक्री सबसे निचले स्तर पर है. जनवरी, 2017 को रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए गए आंकड़ों का हवाला देते हुए एक रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2016-17 के पहले आठ महीनों में बुनियादी ढांचे वाली कंपनियों के लिए बैंक ऋृण में लगातार गिरावट आई है.

सवाल है कि 12 लाख करोड़ से भी ज्यादा जब बैंकों में वापस आ गए हैं, तब भी कॉर्पोरेट क्षेत्र को उधार देने में मुश्किलें क्यों आ रही हैं. विनिर्माण क्षेत्र के लिए शुद्ध ऋृण में 77 फीसदी की गिरावट हुई है. एनपीए में वृद्धि कॉर्पोरेट उधारी में गिरावट का एक कारण है. उधर, आर्थिक मंदी और मौजूदा औद्योगिक क्षमता में कमी की वजह से मांग में गिरावट से ऋृण देने में गिरावट आई है. नोटबंदी ने लघु उद्योगों के संकट को और बढ़ा दिया है. अखिल भारतीय निर्माता संगठन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, नोटबंदी के पहले 34 दिनों में छोटे एवं लघु उद्योगों में 35 फीसदी नौकरियों का नुकसान हुआ है और राजस्व में 50 फीसदी की गिरावट हुई है.

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