kashmirकश्मीर के लोगों को आम शिकायत है कि यहां हालात बिगड़ते  ही अधिकतर राष्ट्रीय हिन्दी समाचार पत्र व पत्रिकाएं कश्मीरियों के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू कर देते हैं. इसके फलस्वरूप कश्मीरी जनता और देश के अन्य हिस्सेे के लोगों के बीच खाई बढ़ जाती है. भ्रम सच्चाई का रूप धारण कर लेते हैं और इससे नफरत में इज़ा़फा होता है. चिंतनशील तबके के लोग लंबे अर्से से यह सवाल पूछ रहे हैं कि आख़िर हिन्दी मीडिया कश्मीर की वास्तविक स्थिति जनता तक पहुंचाने के बजाय दुष्प्रचार क्यों करता है?

इसका जवाब हाल में राष्ट्रीय स्तर पर कराए गए सर्वे से मिला है. विभिन्न राज्यों में कराए गए इस सर्वे रिपोर्ट से पता चला है कि हिन्दी भाषा के अधिकतर पत्रकार कश्मीर के वास्तविक हालात व घटनाओं और यहां तक कि   ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में भी नहीं के बराबर जानते हैं. मीडिया स्टडी ग्रुप की ओर से देश के विभिन्न राज्यों में कराए गए इस सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि हिन्दी भाषा के अधिकतर पत्रकार कश्मीर के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं.

विडंबना यह है कि इनमें से अधिकतर कश्मीर के विषय पर या कश्मीर के हालात और इतिहास के बारे में अपनी जानकारी दुरुस्त करने या इसे बेहतर करने के इच्छुक भी नहीं हैं. रिपोर्ट बताती है कि सर्वे के दौरान हिन्दी भाषा के अधिकतर पत्रकारों को संविधान के आर्टिकल 370 के बारे में भी पूरी जानकारी नहीं है. जबकि संविधान व क़ानूनी विशेषज्ञ आर्टिकल 370 को देश और कश्मीर के बीच संवैधानिक और क़ानूनी रिश्तों को बहाल करने का एक पुल क़रार दे रहे हैं.

परेशान करने वाली बात यह है कि देश में हिन्दी अख़बारों, हिन्दी समाचार चैनलों और अन्य समाचार संस्थाओं की जनमत तैयार करने में अहम भूमिका होती है. भारत में अधिकतर लोग हिन्दी भाषा के समाचार-पत्र ही पढ़ते हैं और हिन्दी न्यूज़ चैनल ही देखते हैं. सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 46 प्रतिशत पत्रकारों का कश्मीर से संबंधित ज्ञान का स्रोत स्वयं हिन्दी के अख़बार ही हैं.

स्पष्ट है कि कश्मीर के वास्तविक हालात, समस्या और एतिहासिक परिदृश्य से अनभिज्ञ पत्रकार अक्सर तथ्यों के बजाय न केवल खुद इस दुष्प्रचार के शिकार हो जाते हैं, बल्कि अपने   पाठकों तक भी भ्रामक सूचनाएं पहुंचाते हैं. श्रीनगर में रहने वाले इक्नॉमिक टाइम्स के संवाददाता हकीम इरफान, जो कई वर्षों तक दिल्ली में भी काम कर चुके हैं, का मानना है कि अधिकतर हिन्दी पत्रकार कश्मीर के हालात के बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं, लेकिन उनकी नज़र में इसके कई कारण हैं.

उन्होंने   बताया कि कश्मीर के हालात व समस्याएं और यहां के इतिहास के बारे में हिन्दी भाषा में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. अंग्रेज़ी भाषा के पत्रकारों को इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है.

दूसरी अहम बात यह है कि हिन्दी के पत्रकारों को अंग्रेज़ी के पत्रकारों के मुकाबले कम वेतन मिलता है. इस कारण इन पत्रकारों में अधिक मेहनत करने का रुझान भी नहीं है.

तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार और अन्य कई कारणों से आमतौर पर पत्रकारिता के पेशे से जुड़े लोगों में सुस्ती पैदा हो गई है. अब ख़बरों की छानबीन करने और रिसर्च करने का रुझान कम हो रहा है. मेरे ख्या़ल से यही वे कारण हैं, जिसकी वजह से अधिकतर पत्रकारों को कश्मीर के हालात के बारे में कम जानकारी है.

विश्लेषकों का कहना है कि कश्मीर के बारे में भारत के केवल हिन्दी भाषा के पत्रकार ही नहीं, बल्कि उर्दू के पत्रकारों की सूचनाएं और ज्ञान भी अपर्याप्त हैं. विश्लेषक और श्रीनगर में रहने वाले रेडियो तेहरान के संवाददाता सिब्ते मोहम्मद हसन कहते हैं कि मेरे संबंध बहुत सारे भारतीय पत्रकारों से हैं. अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि भारतीय पत्रकारों को कश्मीर के बीते 70 वर्षों के इतिहास के बारे में पर्याप्त  जानकारी नहीं है.

सिब्ते मोहम्मद हसन का कहना है कि अधिकतर हिन्दी और उर्दू पत्रकारों को यह भी नहीं पता कि जम्मू-कश्मीर देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसका अपना संविधान है. इस राज्य  में दो झंडे हैं, एक राष्ट्रीय ध्वज और दूसरा जम्मू-कश्मीर का झंडा. दो झंडों का समान अनुसरण संवैधानिक और कानूनी लिहाज़ से अनिवार्य है. यही कारण है कि राज्य में जहां कहीं भी तिरंगा देखने को मिलता है, तो उसके बगल में राज्य का अपना झंडा भी लहराता नज़र आता है.

राज्यों की विधानसभा के लिए चुने जाने वाले सदस्यगण भारतीय संविधान के तहत नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर के अपने संविधान के तहत शपथ लेते हैं. यह एकमात्र राज्य है, जहां सरकार का कार्यकाल पांच वर्ष नहीं, बल्कि 6 वर्ष होता है. संसद में पास होने वाले नए कानून, तब तक जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हो सकते, जब तक राज्य विधानसभा इन्हें लागू करने की मंजूरी नहीं दे देती है.

इस राज्य की अदालतों में अपराध से संबंधित केसों की सुनवाई भारतीय कानून यानी भारतीय दंड संहिता के तहत नहीं, बल्कि राज्य के अपने कानून (रणबीर पिनल कोड) के तहत होती है. भारत और पाकिस्तान के राज्य 14 और 15 अगस्त को एक साथ अस्तित्व में आए, लेकिन जम्मू-कश्मीर 26 अक्टूबर तक एक स्वतंत्र और स्वायत्त राज्य के रूप में स्थापित था.

अन्य राज्यों के मुकाबले में जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ विलय हुआ न कि एकीकरण. 1953 तक भारत के शेष राज्यों से जम्मूू-कश्मीर आने वाले लोगों को एंट्री परमिट प्राप्त करना पड़ता था. 1953 तक इस राज्य में मुख्यमंत्री और गवर्नर के नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री और राज्य प्रमुख के पद हुआ करते थे. इस राज्य में आज भी देश के बहुत सारे कानून लागू नहीं हो सकते हैं. जम्मू-कश्मीर में कोई भी दूसरे राज्य का निवासी जमीन या कोई दूसरी संपत्ति नहीं खरीद सकता है.

यह कानून यहां विभाजन के बहुत पहले से लागू है और इसे हिंदू महाराजा ने बनाया था. अन्य राज्यों के निवासियों के उलट जम्मू-कश्मीेर का हर निवासी दोहरी नागरिकता रखता है, एक जम्मू-कश्मीर की और एक भारत की. जम्मू-कश्मीर का कोई निवासी अगर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाना चाहे तो उसे पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि ‘कारवान-ए-अमन’ नाम की बस सर्विस के तहत वह डिप्टी कमिश्नर (जिला अधिकारी, कश्मीर) की ओर से जारी किए गए परमिट पर जा सकता है.

कश्मीर के दोनों विभाजित हिस्सों के बीच बार्टर सिस्टम, यानी चीज़ों की अदला-बदली के तहत कारोबार जारी है. ऐसी बहुत सारी बातें हैं, जिनसे देश के हिन्दी और उर्दू पत्रकारों का एक बड़ा तबका अनभिज्ञ है. जहां तक राज्य के वर्तमान राजनीतिक हालात का संबंध है, यह बात सर्वेक्षण में सामने आई है कि अधिकतर भारतीय पत्रकार सुनी-सुनाई बातों को ही सही समझते हैं.

हिन्दी और उर्दू के बहुत कम पत्रकार कश्मीर के हालात को रिपोर्ट करने के लिए यहां आते हैं. यही कारण है कि हाल में जब यहां हालात खराब हुए तो नेशनल मीडिया विशेष रूप से हिन्दी मीडिया ने ऐसी खबरें पेश कीं, जिनका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था. आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय मीडिया के इस रवैये को बदलने के लिए कहीं भी कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.

इस संदर्भ में बीते दिनों चौथी दुनिया ने परंपरा से हटकर असाधारण भूमिका निभाई है. अखबार के ची़फ एडिटर संतोष भारतीय ने बीते पांच महीनों के दौरान कम से कम पांच बार कश्मीर का विस्तृत दौरा कर विभिन्न विचारधारा के लोगों से मिलकर जमीनी तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट पूरे राष्ट्र के सामने पेश की.

ज़ाहिर है कि महज़ एक संस्था की इस पहल से तब तक कुछ बदलाव नहीं होगा, जब तक देश के तमाम मीडिया संस्थान कश्मीर को उसके वास्तविक हालात व घटनाओं के संदर्भ में कवर करने के इच्छुक न हों. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक कश्मीरियों और देश की बाक़ी जनता के बीच रिश्तों को स्थिर करने और पैदा हुई खाई को पाटना संभव नहीं होगा.

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