एक इज़रायली अख़बार है, ज्यूइश क्रॉनिकल. 9 अगस्त 1967 को इसमें एक बयान छपा. यह बयान था इज़रायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन का. हालांकि यह बयान इज़रायली प्रधानमंत्री ने बहुत पहले दिया था, लेकिन छपा 1967 में. यह एक ऐसा बयान था, जिससे इस्लामिक दुनिया सकते में आ गई थी. आख़िर वे कौन सी बातें थीं, जिन्होंने हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान को भी परेशान कर दिया. दरअसल इज़रायली प्रधानमंत्री ने कहा, यहूदी आंदोलन को पाकिस्तान से होने वाले ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. और, अब पाकिस्तान हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए. इसकी विचारधारा ही हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा है, क्योंकि पाकिस्तान यहूदियों से घृणा और अरबवासियों से प्यार करता है.
अरबवासियों को चाहने वाला यह प्रेमी अरबों से कहीं अधिक ख़तरनाक है. इसलिए इस मामले में यह बेहद ज़रूरी है कि यहूदी दुनिया के लिए हम तुरंत पाकिस्तान के ख़िला़फ कड़े क़दम उठाएं. जहां तक हिंदुस्तानियों की बात है, उनके दिल भी मुसलमानों के प्रति घृणा से भरे हुए हैं. यह बेहद ज़रूरी है कि हम पाकिस्तानियों पर हमला करें और उनका नामोनिशान तक मिटा दें. चाहे इसके लिए किसी भी साज़िश और छल-कपट का ही सहारा क्यों न लेना पड़े. इसलिए पाकिस्तान के ख़िला़फ कार्रवाई करने के लिहाज़ से भारत एक मददगार दोस्त साबित हो सकता है.
दरअसल 14 मई 1948 को अपने अस्तित्व में आने से पहले इज़रायल ब्रिटिश हुकूमत का हिस्सा था. इसके बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया का एकमात्र ऐसा मुल्क है, जिसका नाम, भाषा और ईश्वर अभी भी वही हैं, जो 3,000 साल पहले थे. यानी इज़रायल ऐसा यहूदी मुल्क है, जो अपनी पहचान के प्रति हमेशा से कट्टर रवैया अख्तियार करता रहा है.

यहूदियों के ख़िला़फ उठने वाले किसी भी क़दम को वह क़ब्र तक पहुंचाने से कभी बाज नहीं आया. ग़ौरतलब है कि किसी भी इज़रायली शासक ने अपने इन उसूलों से कभी समझौता किया भी नहीं. यही वजह है कि एक मुल्क के तौर पर इस दुनिया में क़दम रखने के बाद उसने यहूदियों के ख़िला़फ रची जाने वाली साज़िश का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए दुनिया की सबसे तेज़तर्रार ख़ु़फिया एजेंसी मोसाद की नींव रखी.

मोसाद को एक शातिर ख़ु़फिया एजेंसी के तौर पर दुनिया में लाने का पूरा श्रेय इज़रायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन को ही जाता है. डेविड गुरियन चारों तऱफ से इस्लामिक देशों से घिरे इज़रायल के अस्तित्व की चुनौतियों से पूरी तरह वाक़ि़फ थे. मुमकिन है, चारों तऱफ से इस्लामिक मुल्कों से घिरे रहने के ख़तरे ने इज़रायल को ख़ौ़फ  के साये में जीने पर मजबूर कर दिया हो. उसने इस ख़ौ़फ का सामना करने के लिए दुनिया की ख़तरनाक ख़ु़फिया एजेंसी मोसाद की नींव डाली और पूरी इस्लामिक दुनिया को अपना दुश्मन समझ लिया. यह बात इज़रायली प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन के बयान से भी सा़फ ज़ाहिर होती है.
मोसाद ने अपने इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने की कवायद भी शुरू कर दी और उसके इस कारनामे में साथ दिया भारतीय ख़ु़फिया एजेंसी रॉ ने. ख़ु़फिया सूत्रों की मानें तो मोसाद और रॉ ने चार ऐसी जासूसी एजेंसियां बनाई थीं, जिनका मक़सद पाकिस्तान में घुसपैठ करना था. साथ ही उनका मक़सद पाकिस्तान की
महत्वपूर्ण धार्मिक और सैन्य शख्सियतों को निशाना बनाना था. उनके निशाने पर स़िर्फ यही लोग नहीं, बल्कि पाकिस्तानी पत्रकार, नौकरशाह एवं राजनेता भी थे. इसके अलावा मोसाद और रॉ की मिलीभगत से बनी एजेंसियों के निशाने पर वहां के रेलवे स्टेशन, सिनेमाहॉल, होटल और कई मस्जिदें भी थीं. ऐसा हम यूं ही नहीं कह रहे हैं. मोसाद के सारे काले कारनामों का ख़ुलासा किया है 2001 में आई एक ख़ु़फिया रिपोर्ट ने, जिसके मुताबिक़ उक्त एजेंसियां पाकिस्तान के 20 से लेकर 30 साल तक के युवकों को भारत आने का झांसा दे रही थीं, ताकि उन्हें जासूसी और नक़ली नोटों के कारोबार के मामले से जुड़ा बताकर अपनी साज़िश के जाल में फंसाया जा सके.
उसके बाद इन पाकिस्तानी युवकों का ब्रेनवॉश कर भारत और मोसाद के लिए जासूसी करने पर मजबूर किया जा सके. मोसाद पाकिस्तान के शीर्ष संस्थानों में भी घुसपैठ की फिराक़ में लगी हुई थी. यह निश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कई ख़ुफिया एजेंसियों को का़फी क़रीब से जानने-समझने वाले बताते हैं कि जाने या अनजाने में एक पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भी कभी मोसाद और रॉ के हाथों की कठपुतली रहे. जानकारों के मुताबिक़, मौजूदा आंतरिक सुरक्षा मंत्री को तब संघीय जांच एजेंसी (एफआईए) का मुखिया बनाया गया और जिन्होंने मुसलमानों के ख़िला़फ सेकरेट वॉर यानी गुप्त अभियान छेड़ा. यहां तक कि पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई को भी नहीं बख्शा गया. उस पर भी हमले किए गए.
मोसाद के इस कारनामे की भनक पाकिस्तानी सेना को लग चुकी थी. इसीलिए 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्ख़ास्त करने के तुरंत बाद एफआईए प्रमुख को बग़ैर किसी ठोस आधार पर भ्रष्टाचार के आरोप में बर्ख़ास्त कर दिया. फिर एफआईए के एडीजी को हिरासत में ले लिया गया. हालांकि इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के तमाम क़दम पाकिस्तान के अंदरूनी हालात की वजह से उठाए गए या पर्दे के पीछे की असली कहानी कुछ और थी?
ख़ु़फिया एजेंसियों पर पैनी नज़र रखने वाले सूत्रों की मानें तो यदि उक्त सारे ताबड़तोड़ फैसले मोसाद की साज़िश का पता लगने के बाद लिए गए तो भी पाकिस्तानी हुक्मरान यह कभी नहीं कबूलेंगे. ऐसा करना उनके बूते की बात भी नहीं है. भला कोई मुल्क अपनी नाकामयाबी को कैसे कबूल कर सकता है? वह भी यह बात कि प्रधानमंत्री मोसाद और रॉ के हाथों की कठपुतली बन गए थे और इसीलिए मजबूरन उन्हें सत्ता से बेदख़ल करना पड़ा. ऐसा करने से पाकिस्तान की हालत बद से बदतर हो जाने की आशंका थी. मोसाद ने किस तरह भारतीय एजेंसी रॉ की मदद से पाकिस्तान में इस्लाम विरोधी मिशन चलाए, इसका सबसे बड़ा ख़ुलासा किया एक पाकिस्तानी मंत्री ने, जो लंदन में पाकिस्तान के राजदूत रह चुके हैं.
उन्होंने अपने एक लेख में इज़रायल और भारत के बीच ख़तरनाक गठजोड़ का ख़ुलासा किया, जिसे एक अप्रैल, 2001 को पाकिस्तानी अख़बार में प्रकाशित भी किया गया. इस लेख में दोनों देशों के बीच बढ़ रही नज़दीकियों का ज़िक्र किया गया है. उन्होंने यह भी लिखा कि भारत ने किस तरह इज़रायली ख़ु़फिया एजेंसियों को इन इलाक़ों में अपनी पैठ जमाने में मदद की, ताकि इस्लामिक संगठनों के ख़िला़फ मौत की मुहिम छेड़ी जा सके. मोसाद के उक्त सारे कारनामे और भारत के साथ उसका गठजोड़ यह साबित करने के लिए का़फी हैं कि उसने पाकिस्तान के ख़िला़फ एक बहुत बड़ी मुहिम छेड़ी. यह मोसाद के ही बूते की बात है कि वह तेल अवीव स्थित अपने मुख्यालय से पाकिस्तान को भी मोहरा बना सकता है.

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