आज तक विभिन्न राजनीतिक दल यह दावा करते आए हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन उनके वास्तविक व्यवहार से ऐसा लगता है कि कश्मीर कोई दूसरा देश है. याद कीजिए, किस धूमधाम से एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल वहां गया था. दरअसल, किसी भी दल का कोई भी नेता अपनी इच्छानुसार किसी भी समय कश्मीर जा सकता है. 
लंदन में मेरे एक मित्र हैं. वह अपने बैंक मैनेजर द्वारा क़र्ज़ उगाही के तकाजे को लेकर बहुत नाराज़ थे. एक दिन वह मैनेजर के दफ्तर में गए और कहने लगे कि अगर आपने मुझे इस तरह के अभद्र पत्र लिखने बंद नहीं किए, तो मैं अपना ओवरड्राफ्ट किसी और बैंक में लेकर चला जाऊंगा. मुझे लगता है कि शिवसेना की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. पहले तो उसने उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा-शिवसेना गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका निभाने की कोशिश की. उसके बाद गठबंधन तोड़ दिया. अब जबकि यह साबित हो गया है कि भाजपा की तुलना में उसकी स्थिति कमज़ोर है, तब भी वह यह आशा कर रही है कि भाजपा उसका सहयोग मांगने उसके पास आए. ऐसा न केवल स्थिति के ग़लत आकलन की वजह से है, बल्कि यह उसकी खुशफहमी का भी नतीजा है. हालिया चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन ने यह साबित कर दिया है कि परिवारवाद नहीं चलेगा. दरअसल, कांग्रेस के एक परिवार में प्रतिभा की कमी तीन पुश्तों के बाद महसूस हुई, वहीं शिवसेना के लिए बाला साहेब की याद ही सबसे बड़ी पूंजी है. राज ठाकरे की हालत तो इससे भी ज़्यादा ख़राब है. ऐसा लगता है कि ये दोनों पार्टियां विलय के बारे में सोच तक नहीं रही हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो ये दोनों एक-दूसरे को ख़त्म कर देंगी.
महाराष्ट्र एवं हरियाणा की दोहरी कामयाबी हासिल करके नरेंद्र मोदी ने यह साबित कर दिया कि मई में हुए लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी क्षणिक नहीं थी. मतदाताओं ने उनकी महत्वाकांक्षी घोषणाएं पसंद कीं और उनके काम करने की ऊर्जा पर मुहर लगते हुए यह भरोसा जताया कि वह उनके लिए और कड़ी मेहनत करेंगे. मराठी मानुष का नारा शिवसेना का दिया हुआ है, जो समझती है कि लोगों की आकांक्षाएं पाव-भाजी की एक रेहड़ी हैं. ग़ैर मराठियों की तुलना में मराठियों की कमज़ोर आर्थिक स्थिति से ग़ैर मराठियों के ख़िलाफ़ शिवसेना के प्रचार को मजबूती मिली. लेकिन, अब मराठी मानुष को लग रहा है कि भाजपा उनके लिए एक अच्छा विकल्प पेश कर रही है. वे सदा के लिए पिछड़े नहीं रहना चाहते हैं. दरअसल, जिस तरह से कांग्रेस बीपीएल परिवारों की ऐसी देखभाल कर रही थी कि वे अपनी ग़रीबी से कभी बाहर न निकल सकें, ठीक उसी तरह से शिवसेना अपने पक्षकारों को हमेशा नाकाम ही देखना चाहती थी. इस तरह की राजनीति 19 अक्टूबर को हार गई. एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा की कार्य प्रणाली में अंतर ज़ाहिर हो गया है. जहां भाजपा ने दूसरे चक्र के चुनावों के लिए तैयारियां करते हुए प्रभारियों की नियुक्ति शुरू कर दी, वहीं कांग्रेस अक्टूबर के नतीजों की कौन कहे, लोकसभा चुनाव में अपनी हार की समीक्षा नहीं कर सकी. सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी ने तो पहले ही महाराष्ट्र में अपनी हार मानकर कम से कम चुनावी सभाएं कीं. उन्हें कांग्रेस की स्थिति का पहले से ही अंदाज़ा हो गया था, लेकिन जो चीज़ उन्हें अब दिखाई नहीं दे रही है, वह है बाहर का रास्ता. होना तो यह चाहिए कि कांग्रेस को यह परिवार सदा के लिए अलविदा कह दे. ऐसा करने से कांग्रेस को एक आधुनिक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में पुनर्गठित करने की आशा फिर भी बची रहेगी. लेकिन, शायद उनसे यह अपेक्षा करना ज़्यादती होगा. भाग्य पर भरोसा और परिवार के स्वामित्व की उनकी भावना उन्हें गरिमा पूर्ण तरीके से बाहर जाने के रास्ते में बाधक बनेंगे और वे अपने नेता के रूप में प्रियंका गांधी की परछाईं का पीछा करते हुए नज़र आएंगे.
अभी देश में केवल एक ही राष्ट्रीय पार्टी है, जो है भाजपा. यह एनसीपी के व्यवहार से भी ज़ाहिर होता है. प्रणब मुखर्जी के राजनीति से दूर होने के बाद कभी कांग्रेस में शामिल रहे शरद पवार सबसे वरिष्ठ एवं सक्रिय नेता हैं. उन्हें मालूम है कि कब शर्तें रखनी हैं और कब नहीं. वह यह भी जानते हैं कि कांग्रेस का जहाज डूब चुका है और अगर एनसीपी को अपना अस्तित्व बचाना है, तो उसे भाजपा का सहारा लेना पड़ेगा. अगर अगले पांच वर्षों में कांग्रेस का एनसीपी में विलय हो जाए, तो कोई हैरानी की बात नहीं. पवार एक माहिर खिलाड़ी हैं. लेकिन, कहानी का असली हीरो अगली जंग जीतने की तैयारी में लग गया है. दरअसल, मोदी सांकेतिक संदेश देने में माहिर हैं. जबसे वह प्रधानमंत्री बने हैं, वह यह संदेश देना चाहते हैं कि कश्मीर भारत का वैसा ही अंग है, जैसा गुजरात या देश का कोई अन्य राज्य. वह लगातार कश्मीर जा रहे हैं. अभी हाल में उन्होंने दीपावली भी कश्मीर में मनाई है.
हालांकि आज तक विभिन्न राजनीतिक दल यह दावा करते आए हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन उनके वास्तविक व्यवहार से ऐसा लगता है कि कश्मीर कोई दूसरा देश है. याद कीजिए, किस धूमधाम से एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल वहां गया था. दरअसल, किसी भी दल का कोई भी नेता अपनी इच्छानुसार किसी भी समय कश्मीर जा सकता है. मोदी ने कश्मीर को एक सामान्य राज्य बना दिया है. इस तरह अब उनका नया निशाना जम्मू-कश्मीर के मतदाता हैं. अब उन्हें मुक्का दिखाने की बजाय उनसे हाथ मिलाया जाएगा. एक अल्पसंख्यक की बजाय उनसे आधुनिक महत्वाकांक्षी भाषा में बात की जाएगी. और, हो सकता है कि आने वाले दिनों में वे खुद को भारतीय कहलाना पसंद करने लगें.

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