जब से भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, एक बहस शुरू हो गई है कि क्या मोदी का कद वास्तव में इतना बड़ा हो गया है या वे केवल परिस्थितियों की देन हैं. इस उम्मीदवारी के लिए जो भी दावे नरेंद्र मोदी के पक्ष में किए जा रहे हैं, उन पर सवालिया निशान खड़े होते रहे हैं. वे विकास पुरुष हैं. इस दावे में हकीकत कम, चालबाजियां ज्यादा हैं. वे ईमानदार हैं. इसका हिसाब मीडिया प्रबंधन और रैलियों के नाम पर लुटाए जा रहे पैसों से मिल जाता है. मोदी अच्छे प्रशासक हैं, तो फिर उन पर हत्याओं का आरोप क्यों है? इन विफलताओं के बाद भी मोदी भाजपा के लिए सफल हैं. हालांकि उनके साथ कौैन है, इसका फैसला होना बाकी है क्योंकि तस्वीर पर अभी काफ़ी धूल जमी हुई है.
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इस समय देश, नरेंद्र मोदी के साथ कौन है और नरेंद्र मोदी के विरोध में कौन है, इस पर बंटा हुआ है. मोदी के साथ जो भी लोग हैं, वे देश भक्त हैं और जो साथ नहीं हैं, वे देशभक्त नहीं हैं, ऐसा माहौल बनाया जा रहा है. इस माहौल पर पंचतंत्र की एक कथा याद आती है, जिसमें एक रंगा हुआ सियार अपने को जंगल का राजा घोषित कर देता है और उसके रंगे होने की वजह से शेर सहित सारे जानवर उसे पहचान नहीं पाते. सियार काफ़ी दिनों तक जंगल पर अपने बहुरुपियेपन या रंगे होने की वजह से राज करता है, पर जब सियारों की एक भीड़ हुआं-हुआं करने लगती है, तो रंगा हुआ सियार भी अपने को रोक नहीं पाता और हुआं-हुआं करने लगता है. इस पर शेर चौंक जाता है और सियार को मारकर खा जाता है. इस कहानी को आज के संदर्भ में ढाल कर देखें, तो संदेश मिलता है कि जो लोग चिल्ला-चिल्ला कर अपने को बड़ा देशभक्त बताते हैं, उनमें देशद्रोही तत्व सबसे ज़्यादा भरे हुए मिलते हैं. इसके बारे में बाद में बात करेंगे. सबसे पहले हम नौजवान नरेंद्र मोदी के बारे में बात करें.
हमारे देश में भेड़चाल बहुत मज़े से चलती है. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने शिगूफ़ा छोड़ा कि बू़ढों को हटाकर नौजवानों के हाथ में राज सौंपना चाहिए. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के पास न तो विश्‍लेषण की क्षमता है, न ही इतिहास से समझ लेने की अक़्ल. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ अब तक यह नहीं समझ पाया कि जिन बूढ़ों को संघ बेकार कह रहा है उनकी उम्र, उनका अनुभव और उनकी समझदारी ही उनकी असली ताक़त है. पचासों साल की मेहनत के बाद कोई एक लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी बनता है, जिसके सामने सारा देश होता है, जिसमें हिंदू भी होते हैं, मुसलमान भी होते हैं, दलित भी होते हैं और सवर्ण भी. ऐसे लोग सत्य को नकारते नहीं, बल्कि सत्य की भाषा को शालीनता से रखते हैं. ऐसे लोगों के चेहरे और शरीर की भाषा आक्रामक नहीं होती, बल्कि सबको साथ लेकर चलने वाली होती है.
अब तक देश में सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी हुए. राजीव गांधी के युवा होने की तारीफ़ कांग्रेस के साथ-साथ संघ ने भी की थी. बहुतों का यह भी मानना है कि उन्होंने देश का बहुत भला किया, पर यह अजीब विडंबना है कि राजीव गांधी ने जितने समझौते किए, उनमें कोई भी अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच पाया. चाहे राजीव-लोंगोवाल समझौता हो या असम गण परिषद के साथ हुआ समझौता हो.
राजीव गांधी की जल्दबाज़ी ने उनकी मां द्वारा खड़ी की गई लिट्टे नाम की ताक़त को तोड़ दिया. उधर प्रभाकरण के लोग मारे गए, वे भी अपने लोग थे और जो इधर मारे गए, वे भी अपनी सेना के ही लोग थे. हमारे देश का कन्याकुमारी का हिस्सा प्रभाकरण की वजह से ही सुरक्षित था, क्योंकि उसकी वजह से चीन, श्रीलंका में प्रवेश नहीं कर पा रहा था. राजीव गांधी के इस फैसले ने चीन को श्रीलंका में जगह दे दी. इससे हमारी सुरक्षा की एक दीवार गिर गई.
राजीव गांधी के युवा होने की वजह से उनकी जल्दबाज़ी की मानसिकता को अगर कोई बुजुर्ग होता तो वह न अपनाता. नरेंद्र मोदी को भी आडवाणी और जोशी के मुक़ाबले युवा होने का फ़ायदा आरएसएस ने दिया. नरेंद्र मोदी में भी वही उतावलापन और वही जल्दबाज़ी है, जो राजीव गांधी में थी. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने प्रचार की बदौलत बाज़ार में एक मायाजाल बुन दिया कि वो गुजरात में बहुत सफ़ल हैं और उन्होंने जो गुजरात में किया, वही सारे देश में करेंगे. बक़ौल मोदी उनके ऊपर सिर्फ एक लांछन है और वो भी गुजरात का.

मान लेते हैं कि मोदी ने गुजरात के दंगे नहीं कराए या मोदी का गुजरात के दंगों को बढ़ाने में कोई हाथ नहीं था. यह भी माना जा सकता है कि स़िर्फ मोदी पर दंगों का आरोप लगाना, उनके साथ अन्याय है, क्योंकि दंगे तो कांग्रेस के शासनकाल में भी बहुत हुए और आज उसी तरह के आरोपों से अखिलेश भी घिरे हुए हैं. मोदी अपने को देश में सबसे ज्यादा विकास करने वाले व्यक्ति के रूप में सामने लाते हैं. इसलिए मोदी का आकलन विकास को लेकर होना चाहिए, दंगों को लेकर नहीं.

चलिए मान लेते हैं कि मोदी ने गुजरात के दंगे नहीं कराए या मोदी का गुजरात के दंगों को बढ़ाने में कोई हाथ नहीं था. यह भी माना जा सकता है कि स़िर्फ नरेंद्र मोदी पर दंगों का आरोप लगाना उनके साथ अन्याय है, क्योंकि दंगे तो कांग्रेस के शासनकाल में भी बहुत हुए और आज उसी तरह के आरोपों से अखिलेश यादव भी घिरे हुए हैं. अगर दंगों को आधार मानते हैं, तो वोटों का ध्रुवीकरण होता है. इसलिए नरेंद्र मोदी को दंगों से अलग रखकर बात करते हैं, क्योंकि अगर नरेंद्र मोदी की नीति दंगे कराने की होती, तो 2002 के बाद भी गुजरात में दंगे हुए होते. मोदी को दंगों के नाम पर बदनाम किया जाता है, लेकिन खुद नरेंद्र मोदी क्या कहते हैं? मोदी अपने को देश में सबसे ज्यादा विकास करने वाले व्यक्ति के रूप में सामने लाते हैं. इसलिए मोदी का आकलन विकास को लेकर होना चाहिए, दंगों को लेकर नहीं.
2014 के चुनाव में कुछ लोग दंगों को पैमाना बनाना चाहते हैं, लेकिन ख़ुद मोदी विकास को पैमाना बनाना चाहते हैं. इसलिए मोदी के इस दावे को जांचने-परख़ने की आवश्यकता है. 50 के दशक से ही औद्योगीकरण की दिशा में गुजरात देश में सबसे आगे था. हिंदुस्तान की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस गुजरात में है. हिंदुस्तान की सारी बड़ी रिफाइनरी गुजरात में हैं. सारे बड़े पॉवर प्रोजेक्ट गुजरात में हैं. गुजरात देश का अकेला ऐसा समुद्री तट है, जहां से प्राचीन काल से ही व्यापार होता रहा है. इसलिए स्वाभाविक है कि गुजरात में सबसे ज्यादा औद्योगीकरण होगा ही होगा. यह नरेंद्र मोदी की वजह से नहीं है. यह गुजरात के व्यापार संबंधी पारंपरिक आर्थिक सुदृढ़ता में है. अगर दिल्ली में डे़ढ करोड़ लोग आकर बस रहे हैं, तो इसमें शीला दीक्षित का कोई कमाल नहीं है, क्योंकि इसका कारण है कि दिल्ली में ही सारे बड़े दफ़्तर हैं. दिल्ली से ही राज-काज चलता है, इसलिए दिल्ली में लोग आएंगे ही और बसेंगे.
नरेंद्र मोदी अगर गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं होते, तो भी गुजरात का विकास होता ही. रिलायंस की फैक्ट्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले लगी. पहले उसकी कैपिसिटी 120 मिलियन टन थी, मोदी के आने के बाद आज भी उतनी ही कैपिसिटी है. अगर प्रगति होती तो नई-नई चीज़ें गुजरात में आतीं. नरेंद्र मोदी के राज में नया क्या आया? नरेंद्र मोदी के राज में टाटा की नैनो आई, जो कि फ्लॉप हो गई. मारुति का नया प्लांट आया. अदानी के कुछ पॉवर प्रोजेक्ट आए. अब इन प्लांट्स की गहराई में जाएं. नरेंद्र मोदी ने उद्योगों को 12 प्रतिशत सेल टैक्स की छूट दे दी. अब अगर इस छूट को कैलकुलेट करें, तो यह प्लांट मुफ़्त का पड़ जाता है. उदाहरण के लिए 10 करोड़ की लागत का एक प्लांट 100 करोड़ का उत्पादन करता है. अगर इस पर 12 प्रतिशत की सेल टैक्स की छूट को देखें, तो उद्योगपति 12 करोड़ की बचत करता है. 10 करोड़ की लागत से लगा हुआ प्लांट अगर 12 करोड़ का मुनाफा सेल टैक्स में छूट से कमा लेता है, तो कौन उद्योग लगाने नहीं जाएगा, क्योंकि प्लांट तो मुफ़्त का हो गया. नरेंद्र मोदी ने अपने शासनकाल में जितनी घोषणाएं कीं, उनमें से कितनी पूरी हुईं? अभी उन्होंने घोषणा की है कि वे सरदार पटेल की मूर्ति को स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से बड़ी बनाएंगे. उन्होंने यह काम बीते 12 सालों के भीतर क्यों नहीं किया, क्या देश में लोहे की कमी थी? सरदार पटेल की मूर्ति बनाने की बात 2014 के चुनावों के समय ही क्यों उठी? और वो सरदार पटेल, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को प्रतिबंधित किया था. इसे जांचना चाहिए कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात का विकास किस क़ीमत पर किया और सरदार पटेल की मूर्ति 12 साल पहले क्यों नहीं बना ली?
नरेंद्र मोदी के ऊपर स़िर्फ इशरत जहां केस का आरोप ही नहीं है. जांच एजेसियों की रिपोर्टों को देखें, तो हरेन पांड्या का हत्याकांड भी याद आता है. सीबीआई ने फ़ाइनल रिपोर्ट लगा दी थी कि इसका कोई सुराग़ नहीं मिल रहा, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से दोबारा खोला जा रहा है. इसकी जड़ में तुलसी प्रजापति का केस भी है और अब यह सत्य सामने आने वाला है कि जो पुलिस अधिकारी इशरत जहां केस में शामिल थे, वही अधिकारी हरेन पांड्या के हत्यारों को अपनी गिरफ़्त में लेकर नेपाल बॉर्डर पर उन्हें सुरक्षित छोड़ आए थे. अगर एक भी आरोप साबित हो गया, तो यह माना जाएगा कि नरेंद्र मोदी सत्ता के लिए अपने साथियों को भी नहीं ब़ख्शते हैं. कुछ अख़बारों ने तो हत्या के आरोपी प्रधानमंत्री जैसी संभावनाएं भी व्यक्त कर दी हैं. इसका मतलब साफ़ है कि औद्योगीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ, न कि इसके पीछे मोदी हैं. जिन नये कारखानों को लाने में वे अपनी प्रगति देखते हैं, वे इसलिए आए, क्योंकि उन्हें मुफ़्त में ज़मीनें और सेल टैक्स में छूट मिली. जहां भी यह सुविधाएं मिलेंगी, वहां उद्योगपति जाएंगे ही, क्योंकि सेज़ के नाम पर उद्योगपति ही ज़मीनें लूट रहे हैं. जो रिफ़ाइनरी नरेंद्र मोदी के आने से पहले लगीं, वो रिफ़ाइनरी तो उठ कर कहीं जा नहीं सकतीं. अब अगर रिफ़ाइनरी होगी, तो एक लाख लोगों को रा़ेजगार मिलेगा ही. अगर रिफ़ाइनरियां रहेंगी, तो तेल का आवागमन बढ़ेगा. पर कैपिटा इनकम होगी, तब इसमें नरेंद्र मोदी का नया कमाल क्या था?
हां, नरेंद्र मोदी का एक नया कमाल है ज़रूर. उन्होंने गुजरात में संघ का सारा ढांचा तोड़ दिया, यानी बाढ़ ही खेत को खा गई. बंजारा की चिठ्ठी बताती है कि इशरत जहां को मारने या तुलसी प्रजापति जैसे लोगों को मारने का फैसला उनका नहीं, राज्य सरकार का था और राज्य सरकार से सीधा मतलब अमित शाह और नरेंद्र मोदी से है. सवाल तो खड़ा होता है न! नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस नीति को बनाया, उस नीति का पालन करने वाले स़िर्फ अफ़सर दोषी क्यों? नीति बनाने वाले भी तो दोषी होने चाहिए और हत्याओं को अगर सुप्रीम कोर्ट सही मान लेता है, तो नीति बनाने वाले लोग भी हत्या के षडयंत्र के हिस्सेदार हो जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जो लोग जेल में हैं, उन्हें चुनाव नहीं लड़ना है. इसका सीधा-सा मतलब है कि या तो डीआईजी, आईजी, होम सेक्रेट्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री एफिडेविट दें कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे या फिर सुप्रीम कोर्ट यह सुनिश्‍चित करे कि इशरत जहां, हरेन पांड्या और तुलसी प्रजापति केस का फैसला दिसंबर तक हो जाएगा. ताकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के ऊपर हत्या के संभावित कॉन्सिपिरेटर के तौर पर लगा धब्बा अपने आप हट जाए.
आसाराम बापू के बेटे नारायण साईं ने कहा कि मेरे पिताजी ने बलात्कार नहीं किया. सवाल उठता है कि तब रात में आसाराम बापू लड़की के साथ क्या कर रहे थे? अदालत में आसाराम बापू के दोस्त और देश के एक नामी वकील त़र्क देते हैं कि लड़की को यौन आकर्षण की बीमारी है. क्या यह त़र्क शोभनीय है. यही बड़े वक़ील नरेंद्र मोदी के भी गहरे दोस्त हैं. उन्हें राज्यसभा में लाने का ़फैसला नरेंद्र मोदी की वजह से ही हुआ. वकालत का पेशा करना एक बात है और वकालत के साथ न्याय करना दूसरी बात. जो वकालत का पेशा करते हैं, वे धूर्तता की चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं. यह वकील साहब नरेंद्र मोदी की टीम का अहम हिस्सा हैं और हमारे शास्त्रों में लिखा है कि आदमियों की पहचान उसके संगी-साथियों से भी होती है.
एक और कमाल हुआ है. अभी तक किसी ने नरेंद्र मोदी से यह नहीं पूछा कि उनकी धारा 370 के बारे में क्या राय है. किसी महान पत्रकार ने यह भी नहीं पूछा कि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद पर उनकी क्या राय है. समान सिविल कोड पर भी मोदी ख़ामोश हैं. इन सवालों पर मोदी इसलिए ख़ामोश हैं, क्योंकि जवाब आते ही या तो हिंदू रूठेगा या फिर मुसलमान. और अगर वे जवाब देते हैं कि अदालत के फैसले को मानेंगे, तो वे कट्टर हिंदू हृदय सम्राट नहीं रह जाते. वो पत्रकार, जो इन सवालों को पूछने में अपनी शान समझते थे, आज ख़ामोश बैठे हैं. दरअसल, अभी समुद्र में ज्वार आया हुआ है और जब ज्वार आता है, तो भाटा भी आता है. हिंदुस्तान के मीडिया को एक पप्पू की तलाश होती है और इस समय उन्होंने नरेंद्र मोदी को पप्पू बनाया है. और जब कोई पप्पू बन जाता है, तो वह पप्पू बने रहने के लिए पैसे देता है और उसका विरोधी खेमा पप्पू को डब्बू बनाने के लिए पैसे देता है. मीडिया यही खेल कर रहा है. यह भी जानने की ज़रूरत है कि नरेंद्र मोदी के दावों में सच्चाई कितनी है. स़िर्फ एक चीज समझ में नहीं आती कि अगर वे अच्छे प्रशासक हैं, तो उन पर हत्याएं कराने का आरोप क्यों लग रहा है? अगर अच्छे प्रशासक हैं, तो ज़मीनें मुफ़्त में क्यों दे रहे हैं?
सत्य का एक पहलू यह भी है कि दुनिया का कोई क़ानून किसी की भलाई के लिए नहीं बनता. जो लोग ताक़तवर होते हैं, वे अपनी भलाई के लिए क़ानून बनाते हैं और इस प्रक्रिया में जिसका फ़ायदा होना हो, हो जाए. कुछ लोगों का हो भी जाता है. जैसे दिल्ली में कुछ कॉलोनियों को नियमित करने का ़फैसला हुआ. यह ़फैसला झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को ध्यान में रखकर नहीं किया गया. इसलिए किया गया, ताकि कांग्रेस जीत जाए. इसी बहाने झुग्गी-झोपड़ी वालों को फ़ायदा हो गया. मोदी बहुत जल्दी में थे, उन्होंने सारे देश में एक अच्छे राज्य और प्रशासक का प्रचार कराया. इसके लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों की सेवाएं लीं. मीडिया में इसका प्रचार कराया, जिसमें बड़ा पैसा टेलीविज़न चैनलों पर ख़र्च हुआ. किसी ने नहीं पूछा कि इतना पैसा आ कहां से रहा है. यह पैसा अंबानी, अदानी और रुइया ख़र्च कर रहे हैं या यह पैसा राज्य की योजनाओं के रास्ते बेईमानी से बह रहा है. नरेंद्र मोदी की रेवाड़ी में एक बड़ी रैली हुई. इस रैली में करोड़ों रुपये ख़र्च हुए. वह पैसा कहां से आया? भाजपा के हमारे मित्र बताते हैं कि कम से कम एक लाख लोगों की सभा कराने का वायदा कोई करे, तो उसे प्रति व्यक्ति एक हज़ार रुपये के हिसाब से ख़र्च गुजरात में एक टीम दे सकती है.
मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार न तो कार्यकर्ताओं के दबाव में बने, न ही पार्टी ने उत्साहित होकर बनाया. न ही वे साज़िश का परिणाम हैं और न ही पैसे वाले उन्हें चाहते थे कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनें. परिस्थितियां बन गईं. एक तरफ़ मीडिया पर अंधाधुंध पैसा जिस पर मीडिया ने कोई सवाल नहीं उठाया कि यह पैसा कहां से आ रहा है. अन्ना हजारे अगर जनता के बीच घूमें, तो सवाल उठता है कि उनकी कार में पेट्रोल कौन डलवा रहा है. इस पर तुर्रा यह कि मोदी ईमानदार व्यक्ति हैं. शायद ईमानदारी कि परिभाषा बदल गई है. गुलजारीलाल नंदा इस देश के प्रधानमंत्री हुए, लेकिन नरेंद्र मोदी को याद नहीं है.
गुलजारीलाल जी निहायत ईमानदार थे. दूसरा उदाहरण लाल बहादुर शास्त्री का है, जो मृत्यु के समय बैंकों के कर्ज़े में थे. अब तो यह तय करने का सवाल है कि ईमानदार शब्द नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ेगा या गुलजारीलाल नंदा और लाल बहादुर शास्त्री के साथ. सवाल उठता है कि कौन मोदी के लिए इतना पैसा ख़र्च कर रहा है?
भारतीय जनता पार्टी आडवाणी जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर देख चुकी थी और उसकी सीटें कम हुई थीं. इस बार उसके सामने दो ही चेहरे थे. महिलाओं में सुषमा स्वराज और पुरुषों में नरेंद्र मोदी. सुषमा स्वराज के पास पैसा नहीं था. हाइप क्रिएट करने की ताक़त नहीं थी. उनके पास स़िर्फ उनकी वाणी थी. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के पास सब कुछ था. अरुण जेटली और उमा भारती किसी कैटिगरी में नहीं आते. इसलिए नरेंद्र मोदी उम्मीदवार बनकर सामने आए. संघ नरेंद्र मोदी से छुटकारा पाना चाहता था. क्योंकि संघ गुजरात में नरेंद्र मोदी की वजह से अपने तंत्र की छिन्न-भिन्नता देख चुका था. नरेंद्र मोदी पूरी तरह से परिस्थिति की देन हैं. नरेंद्र मोदी स्वाभाविक उम्मीदवार कहे जा सकते हैं, लेकिन वे स्वाभाविक उम्मीदवार हैं नहीं. संघ में संघ को नियंत्रित करने वाले जितने लोग हैं, उन सबकी उम्र आडवाणी जी से कम है. वे न आडवाणी जी से कुछ कह पाते थे, न ही उनसे ऊंची आवाज़ में बात कर पाते थे. वे लोग आडवाणी नाम के बवाल से छुटकारा भी पाना चाहते थे. इसके लिए उन्हें नरेंद्र मोदी सबसे उपयुक्त पात्र नज़र आए. कहा जा सकता है कि सुषमा स्वराज और मोदी में, मोदी के पास पैसा था और मीडिया को इस्तेमाल करने की चालाकी थी. बीजेपी को एक चेहरे की तलाश थी, ताकि आडवाणी के समय से और कम सीटें न आ सकें. संघ न केवल आडवाणी से छुटकारा पाना चाहता था, बल्कि देश में यह कंट्रोवर्सी भी क्रिएट करना चाहता था, क्योंकि उसको इस कहावत पर भरोसा था कि बदनाम हुए तो क्या, नाम न हुआ.
भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े नेता से मेरी बात हुई, जिन्हें इस रणनीति में बहुत बड़ी ख़ामी नज़र आती है. वे कहते हैं कि अगर अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव से दो महीने पहले मोदी के नाम की घोषणा होती, तो जनता दल उनसे दूर नहीं जाता. तब तक ममता बनर्जी और जयललिता से भी पक्की बात हो सकती थी. तब तक आडवाणी जी के नाम का भ्रम बने रहने देना चाहिए था. अब जयललिता ने कह दिया है कि वह चुनाव के बाद गठंबधन पर विचार करेंगी. करुणानिधि ने मोदी से मिलने से मना कर दिया है. ममता बनर्जी मोदी का नाम नहीं सुनना चाहतीं और नीतीश कुमार ने तो खुद को पहले ही अलग कर लिया है. इतना ही नहीं, बिहार में सरकार भी नहीं जाती. अगर बिहार में सरकार नहीं जाती, तो उसका असर दिल्ली पर पड़ता. उस स्थिति में बिहार और पूर्वांचल के सारे वोट भाजपा को मिलते, तो दिल्ली में भाजपा बहुमत के साथ सरकार बनाती. राजस्थान में जनता दल यू की उपस्थिति है. वहां वह बीजेपी का साथ देता और आसानी से उनकी सरकार बनती. आज की तारीख़ में वसुंधरा राजे सिंधिया और अशोक गहलोत बराबरी पर खड़े हैं. राज्यों के चुनाव भी निकल जाते और मोदी का टेस्ट भी नहीं होता. मोदी संभावित अघोषित उम्मीदवार के तौर पर कर्नाटक गए थे. भाजपा वहां बुरी तरह न केवल चुनाव हारी, बल्कि उपचुनाव भी हारी. अगर अचानक घोषणा होती, तो कांग्रेस भी परेशानी में पड़ जाती और उस समय यही हाइप क्रिएट होती, जो आज हुई है, तो मोदी 370 सीटें ला सकते थे. अगर कोई राजनीतिक दिमाग़ ़फैसला लेता तो ऐसा ़फैसला लेता. चूंकि यह ़फैसला परिस्थितिजन्य रहा, इसलिए इन बातों पर विचार ही नहीं हुआ. अगर मान लीजिए चार राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी पिट गई, तो क्या होगा? जब तक नतीजे नहीं आ जाते, तब तक कुछ कहा नहीं जा सकता. मोदी ब्रांड का तब क्या होगा? पिछला लोकसभा चुनाव इसका उदाहरण है. कोई नहीं मानता था कि कांग्रेस 110 या 112 से ऊपर जाएगी, लेकिन कांग्रेस 200 सीटें ले आई.

मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार न तो कार्यकर्ताओं के दबाव में बने, न ही पार्टी ने उत्साहित होकर बनाया. न ही वे साजिश का परिणाम हैं और न ही पैसे वाले उन्हें चाहते थे कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनें. परिस्थितियां बन गईं. एक तरफ़ मीडिया पर अंधाधुंध पैसा, जिस पर मीडिया ने कोई सवाल नहीं उठाया कि यह पैसा कहां से आ रहा है.

भारतीय जनता पार्टी में साज़िशें आजकल बहुत होती हैं. दो घंटे बाद नितिन गडकरी को भाजपा के अध्यक्ष पद पर दूसरा कार्यकाल मिलने वाला था. एक इनकम टैक्स अफ़सर नितिन गडकरी के यहां चाय पीने गया और वस्तुत: वह उन्हें एक नोटिस देने वाला था. उसने चाय पीनी शुरू की और इधर सारे देश के चैनलों में यह ख़बर चलनी शुरू हो गई कि गडकरी के यहां छापा पड़ा है. भारतीय जनता पार्टी का कौन नेता वित्त मंत्री के संपर्क में था और कौन टेलीविज़न चैनलों के संपर्क में था, जो चाय की शुरुआत होते ही सब जगह ख़बरें चलने लगीं कि छापा पड़ा. आडवाणी जी ने ऐसा क्या गुनाह किया था कि साज़िशी लोगों ने मोहन भागवत से ऐसा बयान दिलवा दिया कि वह अध्यक्ष पद पर डी4 को नहीं चाहते. डी4 यानी आडवाणी जी के साथी. इस देश का मीडिया आज तक तो इतना तेज़ नज़र नहीं आया कि एक इनकम टैक्स का अधिकारी चाय पीने जाए और उन्हें ख़बर मिल जाए. क्या भारतीय जनता पार्टी साज़िशी पार्टी बन गई है. इससे तो यही लगता है कि इस पार्टी में साज़िशें बड़ी ख़ूबसूरती से चलाई जा रही हैं. नरेंद्र मोदी के राज्य में अंबानी, रुइया, अदानी, टाटा सहित व्यापारियों की मजबूरी है कि वे मोदी का साथ दें और नरेंद्र मोदी का फ़ायदा 100 रुपये लगाकर 1000 रुपये कमाएं. शरीर विज्ञान को जानने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि उछल-उछल कर चलने वाला आदमी सोची-समझी तरक्की करता है और संयोग से नरेंद्र मोदी की चाल उछल-उछल कर चलने वाली ही है. नरेंद्र मोदी ने इस थ्योरी को सही साबित किया है. उनकी शुरुआत राजनीति की सबसे निचली सीढ़ी से हुई और आज वे पहले पायदान पर आ चुके हैं. नरेंद्र मोदी के दिमाग़ की और उनकी रणनीति की बिना शर्त तारीफ़ करनी चाहिए.
देशद्रोह स़िर्फ देश के बारे में दुश्मनों को समाचार देना ही नहीं होता. लोकतंत्र के अस्तित्व पर प्रहार करना भी देशद्रोह होता है. और अगर हम भारत की सेना में सांप्रदायिकता ़फैलाने की कोशिश करें, तो यह देशद्रोह से कम नहीं है. अगर 20 करोड़ लोगों को अरब सागर में डुबा देने या 20 करोड़ लोगों की सामूहिक हत्याएं करने की योजना मन में नहीं है, तो 20 करोड़ लोगों को साथ लेकर जीने की और विकास करने की बातें सामने आनी चाहिए. जो अभी तक सामने नहीं आई हैं. इसलिए जो ज्यादा देशप्रेम-देशप्रेम चिल्लाते हैं, दरअसल वे अपनी देशद्रोही वृत्ति को छिपाने के लिए देशप्रेम का नाम लेते हैं. सबसे बड़े यक्षप्रश्‍न का उत्तर अभी भी भविष्य के गर्भ में है. अगर नरेंद्र मोदी 160-180 या दो सौ सीटें भी जीत जाते हैं, तो बाक़ी 73 सीटें कहां से आएंगी और तब भारतीय जनता पार्टी और संघ को लालकृष्ण आडवाणी के दरवाज़े पर जाना ही पड़ेगा. भारतीय जनता पार्टी में इस समय वही एकमात्र नेता हैं, जिनका ज़्यादातर राजनीतिक दलों में संपर्क है और यही लालकृष्ण आडवाणी की ताक़त है.

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