बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव ने अगर दस लाख नौकरियों की हवा न चलाई होती और यह नहीं कहा होता कि नीतीश थक चुके हैं तो भी हमें लगता है नीतीश का खेल चौपट ही था। क्योंकि इंकमबेंसी बहुत ज्यादा है। लोग आजिज आ चुके हैं नीतीश से। तो स्वभावत: नीतीश को तो जाना ही था। कोई करिश्मा ही उन्हें बचा सकता है। फिर भी उन पर वार करना ठीक था, सो किया। मगर विपक्ष ने मोदी को घेरने में क्यों कोताही की। यह समझ से परे है। इतने राज्यों में बीजेपी के पिछले दरवाजे से बेशर्म खेल कर सत्ता हथियाने के बावजूद अगर विपक्ष ने मोदी को खुला छोड़ दिया तो इसके मायने क्या हैं। नीतीश के लिए तो यहां तक कहा जा रहा है कि उनको विपक्ष नहीं भाजपा ही हराएगी। और यह सब पुख्ता है। राजद के रणनीतिकारों में मनोज झा जैसे घुटे हुए लोग भी हैं। तो वे क्यों नहीं समझ पा रहे कि अब नीतीश पर नहीं मोदी की रणनीतियों को धराशायी करने का वक्त है। मोदी और भाजपा जैसे तैसे बहुमत जुटाने के खेल में माहिर हैं। तो क्या विपक्ष और खासकर तेजस्वी को नहीं चाहिए था कि मोदी को घेरा जाए। तीन सबसे बड़ी चीजें हैं जिनको कैश कराना चाहिए था। एक लाकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दशा, दूसरा चीन पर मोदी का झूठ और तीसरा गिर चुकी अर्थ व्यवस्था।

बिहार की जनता सब जानती है और नहीं भी जानती। गरीबों के साथ त्रासदी यही है। गरीबों को इस देश में अहसास कराया जाता है कि यह दशा तुम्हारी इस कारण के चलते है। नोटबंदी में भी मोदी की तारीफ में गरीबों द्वारा लंबे समय तक कसीदे पढ़ना यही बताता है। जनता से मोदी स्टाइल में ही प्रश्न करना चाहिए था कि चीन के अतिक्रमण पर मोदी जी ने झूठ बोला कि नहीं।अर्थव्यवस्था कोरोना से पहले डूबी थी कि नहीं। लाकडाउन को सोच समझ कर किया जाता और ट्रेनें समय पर चलायी जातीं तो क्या प्रवासी मजदूर मरते। नीतीश पर वार के चक्कर में ये सारी बातें लगभग लोप हैं। मोदी के झूठ से नहीं मोदी के स्टाइल से ही बिहार की जनता के दिमागों को सैट करना था। पर ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा। सिवाय इसके कि नीतीश पर चुन चुन कर वार किए जाएं। मत भूलिए कि गरीबों की नासमझी और अज्ञानता से आज भी मोदी की लोकप्रियता उन लोगों में कम नहीं हुई है। साफ है कि जेडीयू की सीटें यदि कम आयीं जो आनी ही हैं और भाजपा की बढ़त हुई तो सरकार भाजपा की ही बनेगी। इसे रोका जा सकता है पर इस दिशा में तो लगभग शून्य ही नजर आ रहा है।

इधर दिल्ली में सोशल मीडिया के क्षेत्र में एक बड़ी पहल हुई है। डिजिटल क्षेत्र में खबरों की प्रतिबद्धता और स्वतंत्रता के हितों की रक्षा के लिए 11 डिजिटल समाचार संस्थानों ने एक सामूहिक प्लेटफार्म तैयार किया है। नाम है – ‘डिजिटल न्यूज़ इंडिया फाऊंडेशन’। अच्छी बात यह है कि इनमें लगभग वे सभी न्यूज प्लेटफार्म हैं जिन पर सरकार की कुदृष्टि है। यह पहल समय रहते की गयी। इससे जाहिर है अब सरकार के लिए डिजिटल मीडिया को अपने कब्जे में रखने की कोशिश भी आसान नहीं होगी। जो डर सबको सता रहा था और जिस तरह यह सरकार हर क्षेत्र में दखल देकर उसे अपने कब्जे में करती जा रही है उस लिहाज से यह पहल बहुत मायने रखती है।

इन दिनों बिहार चुनाव पर हर कोई लगा हुआ है। आशुतोष एंड पार्टी ने तो अति ही कर दी। हर कोई बता रहा है कि बिहार में कौन जीतेगा। प्रसून वाजपेयी भी अपने तरीके से लगे हुए हैं। लेकिन एक बार उनसे उन्नीस के चुनावों में उनके चुनाव विश्लेषणों से जो धोखा मिला तो अब मन ही नहीं होता कि चुनाव पर उनको सुना जाए। आलोक जोशी और विजय त्रिवेदी की बातें दमदार और संतुलित होती हैं। लेकिन मन करता है इन विश्लेषणों को सुनने के बजाय ओढ़ कर सोया जाए और सीधे दस नवंबर को परिणाम ही देखें जाएं। भाषा सिंह के बिहार दौरे, आरफा खानम के दौरे इनका बहुत मतलब इसलिए नहीं कि जिस जनता से ये लोग बात करते हैं वे चूज़ी होती है। नीतीश और मोदी समर्थकों से बात करके उनसे प्रश्न क्यों नहीं पूछे जाते। ‘लल्लनटॉप’ की भी चुनाव यात्रा जारी है। उसकी भी चार टीमें लगी हुईं हैं। उसका सब कुछ रोचक रहता है। फिर भी ऐसे में चुनाव से अलग कुछ ताजा सुनने का मन करता है। दामिनी यादव ने गौहर रज़ा से साहिर लुधियानवी पर बात की। चुनाव के उबाऊ विश्लेषणों के बीच गौहर रज़ा को सुनने में मजा आया। विनोद दुआ ने बताया कि वे दाढ़ी क्यों बढ़ा रहे हैं। संतोष भारतीय की स्टार पत्रकारों से बातचीत भी अच्छी लगती है। नीलू व्यास ‘सत्य हिंदी’ पर फिर से लौट आयी हैं एक नये और अच्छे प्रोग्राम के साथ। अपूर्वानंद का लेख ‘सत्य हिंदी’ में फ्रांस की घटना पर पढ़ने लायक लगा।

रवीश कुमार हफ्ते भर बाद लौट आये हैं। जो मुद्दे उठा कर वे सीधे बिहार पर आते हैं वह भी नीति के तहत लगता है। बढ़िया चल रहा है सब कुछ। बस इन दिनों पत्रकार जो पंडित बने हुए हैं उनसे बोरियत भी हो रही है।
पर फिलहाल तेजस्वी की बिहार में धूम है और सुना है कि पहले दौर में बाजी भी मार ले गये हैं। देखिए बाकी दो में क्या होता है।

By basant pandey

Adv from Sponsors