मिथिला के कई अनसुलझे प्राचीन रहस्य आज भी उन पांडुलिपियों में छिपे हुए हैं, जो अभी भी शिक्षण संस्थाओं के अलावा कई घरों में कैद हैं. इन पांडुलिपियों में प्राचीन कालीन इकोलॉजी पर आधारित जीवन के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, तंत्र, मंत्र, ज्योतिष शास्त्र सहित कई ऐसी ज्ञान संबंधित बातों का रहस्य सारगर्भित है, जिसकी तलाश में शोधार्थी के अलावा कई विशेषज्ञों की टीम जुटी हुई हैं. मिथिला शुरू से ही ज्ञान की भूमि के रूप में विश्वविख्यात रही है. महाकवि विद्यापति से लेकर मंडन मिश्र तक ना जाने कितने ही विद्वानों के रचनाओं व जीवनी का जिक्र इन पांडुलिपियों में छिपा हुआ है. हजारों वर्ष पुरानी मिली प्राचीन पांडुलिपियों से ऐसी-ऐसी जानकारी मिली है, जो आधुनिक युग में भी शोधार्थियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं. न केवल देश, बल्कि विदेशों से भी दर्जनों की संख्या में प्रतिवर्ष शोधकार्य करने के लिए विद्यार्थी मिथिला की अघोषित राजधानी दरभंगा आते हैं. एक जानकारी के मुताबिक, दरभंगा में केवल हजारों की संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियों का कलेक्शन है. इसके अलावा हजारों की संख्या में कई प्राचीन पांडुलिपियां कई विद्वानों के घर विरासत के तौर पर मौजूद हैं. हालांकि पिछले कुछ वर्षों में सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर पांडुलिपियों के संरक्षण की दिशा में काम किया जा रहा है. जानकारों की मानें तो इनमें से कई पांडुलिपि रख-रखाव के अभाव में नष्ट हो चुके हैं. कुछ आंशिक रूप से खराब हो चुके थे, जिन्हें नष्ट होने से बचाने की मुहिम चल रही है. दरभंगा में दो विश्वविद्यालय के अलावा कई ऐसे शिक्षण संस्थान हैं, जहां दुर्लभ पांडुलिपियों का कलेक्शन है. राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की ओर से इनके संरक्षण की दिशा में काम किया जा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि इन पांडुलिपियों से मिथिला के कई रहस्यों से पर्दा उठ जाएगा. जो अब तक लोगों के सामने नहीं आए. केवल बुजुर्ग लोगों की जुबानी ही सुनते आए हैं.

मिथिला शोध संस्थान में हैं 16 हजार पांडुलिपियां- बागमती के तट पर कबडाघाट स्थित मिथिला शोध संस्थान की स्थापना 16 जून 1951 को तत्कालीन देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने की थी. इस संस्थान में ऑन रिकॉर्ड करीब साढ़े बारह हजार   प्राचीन दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह है. इनमें से ज्यादातर संस्कृत, मैथिली, उड़िया आदि भाषाओं में हैं. इनमें वेद, उपनिषद, ब्राह्‌मण ग्रंथ, पुराण, काव्य साहित्य, तंत्र, योग, सांख्य, वेदांत, न्याय आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. यहां जापान, मलेशिया, ऑस्ट्रिया, इंडोनेशिया आदि देशों से शोधार्थी प्रतिवर्ष आते हैं. हालांकि समुचित व्यवस्था नहीं रहने के कारण इन शोधार्थियों को बाहर होटलों में अपने खर्च पर रहना पड़ता है. जानकारों की मानें तो न्याय पर लिखी कई पांडुलिपियों का यहां भरपूर कलेक्शन है. इतना पूरे देश में शायद ही कहीं मिले. संस्थान के पांडुलिपि विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ मित्रनाथ झा की मानें तो संस्थान में 1000 साल से अधिक पुरानी पांडुलिपियों का संग्रह है. उचित रख-रखाव के अभाव में इनमें से कुछ आंशिक रूप से नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई थीं. श्री झा के मुताबिक यहां संस्कृत भाषा में लिखी हजारों पांडुलिपियों का दुर्लभ संग्रह है. जो भी शोधार्थी यहां शोध करने आते हैं, उन्हें पांडुलिपि की फोटो कॉपी या फिर उनकी फोटो खींचने की इजाजत नहीं होती. अपना दर्द और पांडुलिपियों से बेहद लगाव के कारण वे भावुक अंदाज में कहते हैं कि पांडुलिपियों के संरक्षण की दिशा में भवन के शिलान्यास के बाद सरकार की ओर से कोई मदद नहीं दी गई. हालांकि संस्थान के निदेशक डॉ देवनारायण यादव के प्रति आभार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि संस्थान में उनके आने के बाद काफी कुछ बदलाव आया. उनके प्रयास से कुछ चीजें काफी हद तक तेजी से बदलीं. चाहे वह संरक्षण की दिशा में किया गया प्रयास हो, या फिर कुछ और. राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन की ओर से इसके संरक्षण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को उन्होंने काफी सराहा.

कई पांडुलिपियों की हुई चोरी- उचित देख-रेख के अभाव में या यूं कहें तो कर्मचारियों की उदासीनता के कारण दरभंगा के मिथिला शोध संस्थान से तकरीबन 26 दुर्लभ पांडुलिपियों की चोरी 28 मार्च 2003 को चोरों ने कर ली. हालांकि चोरी की प्राथमिकी थाने में दर्ज की गई, लेकिन इस दिशा में कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं होने से चोरी की गई पांडुलिपियां अभी तक पुलिस के हाथ नहीं लग सकीं. इतना ही नहीं, कई संस्थाओं से पांडुलिपियों को कर्मचारियों की मिलीभगत से गायब भी कर दिया गया. उदासीनता कहें या नीयत में खोट, संस्थान से जो भी पांडुलिपि गायब या चोरी हुई कभी नहीं मिली.

पांडुलिपियों का संग्रह विभिन्न संस्थाओं में- एक रिकॉर्ड के मुताबिक, दरभंगा स्थित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पास तकरीबन 94, चंद्रधारी म्यूजियम के पास करीब पांच हजार, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के पास पांच हजार, मिथिला शोध संस्थान के पास तकरीबन ऑन रिकॉर्ड 12500, महरानी कल्याणी फांउडेशन के पास एक हजार व रसायनशास्त्र के भूतपूर्व शिक्षक आईएस झा के पास 2315 फोलियो पांडुलिपियां हैं. इनमें से श्री झा ने अपनी पास रखी सभी पांडुलिपियों को बिहार राज्य अभिलेखागार पटना को दानस्वरूप दे दिया. इसके अलावा कई लोगों के पास आज भी हजारों की संख्या में दुर्लभ पांडुलिपियां हैं, जो उनके पास विरासत के तौर पर रखी हुई हैं. सरकार कहीं इनको अपने पास ना ले ले, इस डर से भी कई लोग इस बात को छिपाकर रखे हुए हैं. एक आंकड़े के मुताबिक यहां के चंद्रधारी म्यूजियम में नेवारी भाषा में लिखी व चित्रित पांडुलिपि मौजूद है. ये काफी संख्या में अभी तक पाई गई हैं. इसके अलावा तिरहुत, मैथिली, देवनागरी, उड़िया, तिब्बती, आसामी, बांग्ला आदि भाषाओं में लिखी पांडुलिपि मौजूद हैं.

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