maxresdefaultक्या पश्चिम बंगाल में भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष द्वारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बारे में दिये गये बयान के बाद उठा विवाद अब थम जाएगा? यह सवाल इसलिए कि ताज़ा रिपोर्टों के मुताबिक दिलीप घोष ने अपने बयान के लिए माफ़ी मांगी और कहा कि उनका इरादा कोई निजी हमला करने का नहीं था और न ही किसी की भावनाओं को आहात करना था.

दरअसल घोष ने नोटबँदी को लेकर ममता बनर्जी के कहा था कि “हमारी सीएम दिल्ली गई हैं. वह वहां काफी नाच गाना कर रही हैं. हमें बताइए हमारी तो सरकार वहां पर है. अगर हम चाहते तो उनके बाल पकड़कर उन्हें बाहर निकाल देते.”

घोष के बायन के बाद टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम मौलाना नूरुरहमान बरकती ने दिलीप घोष के खिलाफ कथित रूप से एक फतवा जारी करके एक नए विवाद को जन्म दे दिया. मौलाना बरकती ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि उन्होंने फतवा दिया है कि घोष को पत्थर से मारना चाहिए और उन्हें बंगाल से बहार खदेड़ देना चाहिए.

अब दिलीप घोष ने अपने विवादित बयान पर माफ़ी मांग ली है और शायेद यह विवाद अब यहीं समाप्त हो जाए. लेकिन एक सवाल मौलाना बरकती के फतवे से ज़रूर उभरता है कि वे किस हैसियत से यह फतवा जारी कर रहे थे. यानी उनके फतवे की कानूनी हैसियत क्या थी? सवाल यह भी उठता है कि एक पूर्ण रूप से राजनीतिक विवाद के लिए धर्म का सहारा कहाँ तक उचित है? अपने फतवे से वे मुस्लमानोँ का फायदा पहुँचा रहे थे या नुक़सान?

बहरहाल, अपने बयान पर खेद जताते हुए घोष ने राज्य विधानसभा में कहा, ‘‘मैंने कभी किसी की भावनाओं को आहत करने का प्रयास नहीं किया या किसी के खिलाफ कोई निजी हमला करने का मेरा इरादा नहीं था. मैंने जो कहा वह भावनाओं में आकर कह गया. मैंने सुना कि मुख्यमंत्री के खिलाफ मेरे शब्दों के चुनाव को लेकर तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता दुखी हैं. अगर हमारी मुख्यमंत्री ने मेरे शब्दों से अपमानित महसूस किया हो तो मैं अत्यंत क्षमाप्रार्थी हूं.’’

घोष के माफी मांगने से पहले तापस रॉय ने बीजेपी नेता के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई. हालांकि प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष ने उम्मीद जताई कि ममता के नेतृत्व में राज्य में निष्पक्ष राजनीति होगी.

अपने विवादास्पद बयानों के लिए चर्चा में रहने वाले घोष ने केंद्र के नोटबंदी के फैसले के खिलाफ मुख्यमंत्री के विरोध प्रदर्शन को लेकर पिछले कुछ दिनों में उनके बारे में कुछ आपत्तिजनक बयान दिये हैं.

Read More : जयललिता की भतीजी लापता, शशिकला से था मनमुटाव

बहरहाल, पिछ्ले कुछ र्वषोँ से राजनीति मेँ फूहड भाषा के प्रयोग का चलन बढा है. और आम तौर पर जब चुनाव का मौसम आता है तो नेताओँ के ज़ुबान फिसलने का सिलसिला शुरु हो जाता है. ज़रूरत यह है कि राजनीतिक दल इस ओर ध्यान देँ.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here