2014_9$img25_Sep_2014_PTI9_महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर एनडीए और यूपीए के घटकों के बीच चल रही रस्साकशी समाप्त हो गई. जहां भाजपा और शिव सेना ने अपना 25 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस और एनसीपी ने अपने 15 साल पुराने गठबंधन को ख़त्म करने का ऐलान कर दिया. इस घटनाक्रम ने राज्य विधान सभा चुनाव को बहुत दिलचस्प बना दिया है. जहां पहले ये चुनाव एकतरफ़ा नज़र आ रहे थे, अब सभी बड़ी पार्टियों के अलग-अलग चुनाव लड़ने से बहुकोणीय हो गए हैं. दरअसल महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव कई लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं. हरियाणा के साथ होने वाले यह चुनाव लोक सभा चुनावों के बाद होने वाले सबसे अहम चुनाव हैं जिसमें सभी बड़े दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है. जहां एक तरफ कांग्रेस और एनसीपी अपनी खोई हुई ज़मीन तलाश करने में जी-जान से जुटे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ हालिया उपचुनावों में ख़राब प्रदर्शन की वजह से बैकफूट पर नज़र आ रही भाजपा को भी ये साबित करना है कि अब भी उसका जादू बरक़रार है. शुरू में भाजपा कम से कम इस चुनाव में किसी तरह का जोखिम उठाने के पक्ष में नहीं दिख रही थी. वहीं शिव सेना इस स्थिति को भली भांति समझते हुए सीटों के बटवारे को लेकर लोक सभा चुनावों में मिली शानदार कामयाबी से उत्साहित भाजपा से शह और मात की जंग में उलझाए हुई थी. लोक सभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस की स्थिति को एनसीपी समझती थी इसलिए वह भी सीट शेयरिंग के नए फॉर्मुले की मांग कर रही थी.
दरअसल यह चुनाव शिव सेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व के लिए भी परीक्षा की घ़डी है. क्योंकि पार्टी के वजूद में आने से लेकर अब तक यह पहला मौक़ा है जब पार्टी अपने संस्थापक बाल ठाकरे के बिना चुनाव मैदान में उतरी है. सीटों के बटवारे को लेकर उद्धव लोक सभा चुनावों की कामयाबी से उत्साहित भाजपा को कोई बहुत ज्यादा फायदा देने पक्ष में नहीं थे. बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात इत्यादि राज्यों के हालिया उपचुनाव में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन ने उन्हें भाजपा पर हमले करने के मौके दिए, तो वह इस मौके का लाभ उठाने से भी नहीं चूके. इन चुनावों में भाजपा को 33 सीटों में से केवल 13 पर ही संतोष करना पड़ा था. इस बीच वे कभी आक्रामक मुद्रा दिखाते हुए भाजपा पर हमले किये तो भाजपा का सख्त रुख देख कर नर्म भी पड़े. उद्धव ठाकरे यह भलीभांति जानते थे कि उनके लिए भाजपा के बिना सत्ता तक पहुंचना बहुत ही कठिन है.
वहीं दूसरी ओर लोक सभा चुनाव में मिली शानदार कामयाबी की वजह से राज्य की राजनीति जूनियर पार्टनर की भूमिका में रही भाजपा 1989 में हुए शिव सेना-भाजपा गठबंधन के समझौते में बदलाव की मांग पर डटी रही. 1989 के समझौते के मुताबिक शिव सेना राज्य की 288 विधान सभा सीटों में से 171 पर चुनाव ल़डती थी, जबकि बाकी की सीटें भाजपा के खाते में जाती थीं और लोक सभा में भाजपा को ज्यादा सीटें मिलती थीं और शिव सेना को कम. लोक सभा चुनावों के इलावा भाजपा की इस मांग की एक वजह यह भी कि अगर शिव सेना-भाजपा गठबंधन के इतिहास को देखा जाए तो जीत प्रतिशत के लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन अपने सीनियर पार्टनर से बेहतर रहा है. मिसाल के तौर पर अगर 2009 के विधान सभा नतीजों पर ही निगाह डाली जाये तो यह तथ्य उजगर हो जाते हैं कि 2009 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के हिस्से में कुल 119 सीटों आईं थीं जिनमें से उसने 46 सीटों पर जीत हासिल की थी वहीं शिव सेना ने 160 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे जिसमें से सिर्फ 44 उम्मीदवार ही जीत का स्वाद चख सके थे. वर्ष 2014 आम चुनाव में भी भाजपा का जीत प्रतिशत शिव सेना से बेहतर था. भाजपा ने कुल 24 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें उसे 23 सीटें मिलीं जो 2009 की तुलना में 14 अधिक थीं. शिव सेना ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उससे 18 सीटों पर जीत मिली थी. 2009 की तुलना में भाजपा के मत प्रतिशत में 9.13 प्रतिशत का इजाफा हुआ था वहीं शिव सेना के मत प्रतिशत में 3.60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी.
भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को पिछले लोक सभा चुनाव में महाराष्ट्र में मिली शानदार जीत का सेहरा प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के सर बांधा गया था. चूंकि महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहां की सियासत में शिव सेना, भजपा, कांग्रेस और एनसीपी सभी पार्टियों का संगठनात्मक ढांचा मज़बूत है. अब ऐसी स्थिति में भाजपा के वोट प्रतिशत में आए 9.13 प्रतिशत का उछाल पार्टी के लिए एकला चलो की निति अपनाने के लिए काफी था. या यह कहें कि कम से कम वह अपनी शर्तों पर शिव सेना से सीटों के बंटवारे का समझौता करती या फिर 24 साल पुराने गठबंधन को समाप्त कर देती. भाजपा ने आखिरी विकल्फ को अपनाकर एक जोखिम उठाया. वहीं दूसरी और भाजपा की परेशानी की एक वजह राज्य के कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे की असमय मौत भी है. मुंडे एक ऐसे नेता थे जिनका अपना एक जनाधार था जो इस चुनाव में भी असरदार साबित होता.
सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह की रस्साकशी भाजपा और शिवसेना में चल रही थी कुछ वैसा ही हाल कांग्रेस एनसीपी गठबंधन का था. भाजपा की तर्ज पर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद एनसीपी ने मौके का फायदा उठाते हुए ज्यादा सीटों की मांग शुरू कर दी. भाजपा की तरह उनका भी यही तर्क था कि लोकसभा में उन्हें ज्यादा सीटें मिली हैं इसलिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा सीटें चाहिए. पिछले कुछ वर्षों में एनसीपी ने जिस तरह के इशारे दिए हैं उससे कांग्रेस यह को भरोसा नहीं था कि नतीजे के बाद एनसीपी उसके साथ रहेगी या नहीं इसलिए कांग्रेस एनसीपी को ज्यादा सीटें देने के पक्ष में नहीं थी. जिस तरह एनसीपी ने भाजपा के तुरंत बाद गठबंधन तोड़ने की घोषणा की उससे इस विचार को मजबूती मिलती है कि जैसे एनसीपी पहले ही गठबंधन तो़डने का मन बना चुकी थी. हालांकि राज्य की सभी बड़ी पार्टियां इस हकीकत से वाकिफ थीं कि दोनों में से जो भी गठबंधन बना रहेगा, वह फायदे की अवस्था में होगा.
महराष्ट्र में दोनों गटबंधनों के टूटने से सत्ता की लड़ाई चौतरफा और बहुत ही दिलचस्प हो गई है. और सभी दावेदारों के एकला चलो की नीति अपनाने की वजह से किसी एक दल को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है, इसलिए चुनाव के बाद के समीकरण भी चुनाव के ही तरह से दिलचस्प होंगे. अगर कुल मिला कर देखा जाये तो इस स्थिति से सबसे ज्यादा फायदे में एनसीपी दिख रही है क्योंकि वह चुनाव के बाद शिव सेना के साथ भी जा सकती है भाजपा के साथ भी जा सकती है और कांग्रेस के साथ भी रह सकती है. कांग्रेस अगर एनडीए गटबंधन के टूटने के बाद एनसीपी के साथ अपना गठबंधन बचा लेती तो उससे इस चुनाव में फायदा हो सकता था. पहले नवनिर्माण सेना अकेले खेल बिग़ाडने वाली पार्टी थी जो शिव सेना और भाजपा का खेल ख़राब करती थी इस बार असददुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के कांग्रेस और एनसीपी का खेल ख़राब करने के लिए मैदान में मौजूद है. बहरहाल, यह तो 19 अक्टूबर को नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा कि महाराष्ट्र के सियासी बिसात पर किसके मोहरे पिटे और किसने बाज़ी मारी, लेकिन फ़िलहाल चुनाव को लेकर कयासआरियों का बाज़ार गर्म है.

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