दो महीने बचे हैं संसदीय चुनाव के और अब संसद का कोई सत्र भी नहीं बचा है, इसलिए यह सब सुधारा नहीं जा सकता है. लेकिन, मैं सोचता हूं कि सभी दलों, विशेष रूप से कांग्रेस और भाजपा की ओर से इस चुनाव में स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि नई लोकसभा में उचित नियमों का पालन किया जाएगा. अध्यक्ष सख्त होगा. एक और बात, जिसके बारे में मैंने सुना कि कांग्रेस पार्टी को सुबह से ही यह बात पता थी कि काली मिर्च का स्प्रे किया जाना है. सब कुछ सुनियोजित था. बावजूद इसके, उन लोगों ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. यह शर्मनाक है. वे शासन करने के लायक नहीं हैं.
इस लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो गया. इसके साथ ही यूपीए-1 और 2 के भी अंतिम सत्र का अंत हो गया है. चुनाव कौन जीतता है, यह एक खुला सवाल है. किसी भी सरकार के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए दस सालों का समय काफी है. पीछे मुड़कर पिछले दस सालों को देखें. मैं सरकार को आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ने के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता, जैसा कि कई लोग करते हैं. अमेरिका संकट में है, यूरोप संकट में है, अपेक्षाकृत भारत कम संकट में है. वित्तमंत्री पर दोष लगाने का क्या अर्थ है? उन्होंने वह नहीं किया, जो करना चाहिए था. उन्होंने जो किया, वह हमें कहीं नहीं ले जाता. अर्थशास्त्र का गंभीर छात्र भी सरकार के छोटे दोषों के बारे में बता सकता है, लेकिन कोई बड़ा दोष नहीं हो सकता. मुद्रास्फीति नियंत्रण में नहीं है और वह लोगों के बीच गुस्से का एक कारण है. मुद्रास्फीति पर नियंत्रण आसान नहीं है. हालांकि, असली समस्या दस सालों के दौरान अन्य सभी मोर्चों से जुड़ी है, जो किसी आपदा से कम नहीं है.
सबसे पहले संसदीय मानदंडों, प्रक्रियाओं, सरकार के कामकाज, उसके मानक और प्रक्रियाओं को देखें. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यूपीए-1 एवं 2 के दौरान इन सबकी जो अनदेखी हुई, उपेक्षा हुई, वह शायद कभी देखने को नहीं मिली थी. यूपीए-1 ने जो किया था, उसी का असर यूपीए-2 में देखने को मिला. एक विशेष तिथि के बाद एक निविदा जारी की गई, एक विशेष तिथि से पहले निविदा बंद कर दी गई. अपने लोगों को ठेके, खदान और स्पेक्ट्रम दे दिए गए. ऐसा जानबूझ कर पहले कभी नहीं किया गया. पिछले दस वर्षों में क्या हुआ, मैं यह देखने के बाद आश्‍चर्यचकित हूं. यहां तक कि नौकरशाही को भी यह समझना चाहिए कि अगर यही सब कुछ आगे भी होने जा रहा है, तो वह दिन दूर नहीं, जब इस देश में लोकतंत्र नहीं बचेगा.
आख़िर क्यों सेना पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज हो जाती है? वह देखती है कि राजनीतिज्ञ केवल अपनी जेब भर रहे हैं और वे आम लोगों के बारे में चिंतित नहीं हैं. ये नेता वह काम नहीं कर रहे हैं, जिसके लिए जनता ने उन्हें सत्ता के लिए चुना था. वे जनादेश के बारे में चिंतित नहीं हैं. एक सीमा होती है. सीमा एक बार पार हो जाए, तब फिर सेना हस्तक्षेप करती है. मैं उम्मीद करता हूं कि ऐसी कोई तारीख भारत के इतिहास में कभी नहीं आएगी. लेकिन, मैं यह कहना चाहता हूं कि इन दस सालों में सत्ता में बैठे लोगों ने हस्तक्षेप करने के लिए सेना को भड़काने की अपनी अधिकतम कोशिश की. यह हमारा सौभाग्य है कि भारतीय सेना अपने कार्य के लिए समर्पित है और वह इस तरफ़ देखती भी नहीं.
संसद के इस सत्र में तेलंगाना राज्य को मंजूरी दी गई. हालांकि जिस तरीके से यह हुआ, बिना राज्य विधानसभा की मंजूरी लिए, वह भारत के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ है. अगर राज्यों के पुनर्गठन का निर्णय लिया जाना था, तो उसे अखिल भारतीय स्तर पर किया जाना चाहिए था. तेलंगाना एक मजबूत मामला है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तेलंगाना नहीं बनना चाहिए था, लेकिन यह जिस तरीके से किया गया, वह लोकतंत्र के कामकाज के लिए बहुत हानिकारक था. कांग्रेस के खुद के मुख्यमंत्री ने इस्तीफ़ा दिया. यह हमारे लोकतांत्रिक चेहरे की एक फूहड़ तस्वीर है. मैं नहीं समझता कि किसी भी सरकार ने इससे पहले इस तरीके से ऐसा सब कुछ किया हो.

संसद के इस सत्र में तेलंगाना राज्य को मंजूरी दी गई. हालांकि जिस तरीके से यह हुआ, बिना राज्य विधानसभा की मंजूरी लिए, वह भारत के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ है. अगर राज्यों के पुनर्गठन का निर्णय लिया जाना था, तो उसे अखिल भारतीय स्तर पर किया जाना चाहिए था. तेलंगाना एक मजबूत मामला है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तेलंगाना नहीं बनना चाहिए था, लेकिन यह जिस तरीके से किया गया, वह लोकतंत्र के कामकाज के लिए बहुत हानिकारक था. कांग्रेस के खुद के मुख्यमंत्री ने इस्तीफ़ा दिया. यह हमारे लोकतांत्रिक चेहरे की एक फूहड़ तस्वीर है.

संसदीय कार्यवाही को पूरी दुनिया देख रही थी. कागज छीने जा रहे थे. उत्तर प्रदेश विधानसभा में जो कुछ हुआ, वह वहां पहले भी हुआ था, लेकिन ऐसा कभी लोकसभा और राज्यसभा में नहीं देखा गया था. आख़िर हम कहां जा रहे हैं? क्या हम लोकसभा और राज्यसभा के काम को बंद करना चाहते हैं? क्या हम चाहते हैं कि लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही पुलिस रखवाली में हो? क्या बचा है? मैं शर्मिंदा हूं. मैं राज्यसभा का सदस्य रहा हूं. मैंने लोकसभा की कार्यवाही को देखा है. अधिक से अधिक यही होता था कि कोई सदस्य एक-आध असंसदीय शब्द का इस्तेमाल कर लेता था, उसे भी रिकॉर्ड से हटा दिया जाता था. बस, इतना ही, इससे ज़्यादा कुछ नहीं.
अब हम कहां तक आ गए हैं! सदस्य महासचिव के साथ लड़ रहे हैं. लोग एक-दूसरे को पकड़ रहे हैं. इस सबके लिए कौन ज़िम्मेदार है? किसकी ज़िम्मेदारी इस सबको ठीक करने की है? जाहिर है, प्रधानमंत्री. वह सरकार के नेता हैं. सोनिया गांधी, जिन्हें मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का जनादेश मिला. मुझे लगता है कि वे अपने कर्तव्यों को भूल गए, आगामी चुनाव की जल्दी में. ऐसा कहने के लिए माफी चाहता हूं. वैसे कोई जल्दी नहीं थी. इतनी जल्दी दिखाने की जगह तेलंगाना का मुद्दा नई आने वाली सरकार के लिए छोड़ा जा सकता था.
उन्हें लगा कि वे तेलंगाना बना रहे हैं, कुछ सीटें मिल जाएंगी, लेकिन इससे उन्हें सत्ता नहीं मिलने जा रही है. भाजपा ने भी इसी डर से समर्थन दिया. वह पहले समर्थन का वादा भी कर चुकी थी, लेकिन जिस तरीके से यह काम किया गया, उससे केवल ग़ैर-राजनीतिक बलों को ही ताकत मिलेगी. ऐसे लोग, जिन्हें हमेशा से लोकतंत्र अच्छा नहीं लगता रहा है, उन्हें फिर से संसदीय लोकतंत्र के ख़िलाफ़ बोलने का अवसर मिलेगा. यही चीज ये सभी सांसद एक साथ मिलकर हासिल कर रहे हैं. क्या हम चाहते हैं कि संसदीय लोकतंत्र ख़त्म हो जाए?
दो महीने बचे हैं संसदीय चुनाव के और अब संसद का कोई सत्र भी नहीं बचा है, इसलिए यह सब सुधारा नहीं जा सकता है. लेकिन, मैं सोचता हूं कि सभी दलों, विशेष रूप से कांग्रेस और भाजपा की ओर से इस चुनाव में स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि नई लोकसभा में उचित नियमों का पालन किया जाएगा. अध्यक्ष सख्त होगा. एक और बात, जिसके बारे में मैंने सुना कि कांग्रेस पार्टी को सुबह से ही यह बात पता थी कि काली मिर्च का स्प्रे किया जाना है. सब कुछ सुनियोजित था. बावजूद इसके, उन लोगों ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. यह शर्मनाक है. वे शासन करने के लायक नहीं हैं. अब हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि नई संसद ही हमें रास्ता दिखाएगी और समृद्धि, विकास एवं लोकतांत्रिक कामकाज की ओर भारत को वापस ले जाएगी.

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