आधी सदी के बाद भी भारत के संसदीय लोकतंत्र की तस्वीर धूमिल नज़र आती है. संसदीय पद्धति में चुनावी अंकगणित की मजबूरियां होती हैं, जिनकी वजह से भारत पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बंटा और बिखरा हुआ नज़र आता है. आज हमारी राजनीतिक व्यवस्था जाति, मज़हब और संप्रदायों में बंटी हुई है. आज भारत में कोई भी राजनीतिक दल ख़ुद को राष्ट्रीय स्तर का होने का दावा नहीं कर सकता है. इन दलों का प्रभाव कुछ क्षेत्र विशेष में हो सकता है, लेकिन सभी जगहों पर इनका प्रभाव नहीं है. सभी राजनीतिक दलों के नेता चुनावों में अपनी पत्नियों, क़रीबियों और निजी सहायकों को ही टिकट देते हैं. इनकी योग्यता अथवा जनसेवा से चुनावी टिकट का कोई मतलब नहीं होता है.
इन तथाकथित नेताओं ने ही अपराधी और बाहुबली क़िस्म के नेताओं को बढ़ावा दिया है. इन नेताओं का ध्यान स़िर्फ इसी बात पर होता है कि उक्त असामाजिक तत्व उनके लिए कितनी सीटें जीत सकते हैं. स्पष्ट जनादेश के अभाव में भारत गठबंधन राजनीति के युग में प्रवेश कर चुका है, जहां दलबदल रोज़मर्रा की बात है और राजनीतिक दलों की ईमानदारी पैसों से तय होती है. सरकार में मंत्रियों को कार्यभार उनकी कार्यक्षमता के आधार पर नहीं, बल्कि समर्थन के आधार पर दिया जाता है. यदि उन्हें अहम मंत्रालय नहीं दिया जाता है तो वे समर्थन वापस लेने की धमकी देने लगते हैं. जबकि  इनमें से कई नेताओं पर अपराध के मामले चल रहे होते हैं. इन वजहों से भारत की विदेश नीति साधारण और सांप्रदायिक होती जा रही है. साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकता को भी ताक पर रखा जा रहा है.

संविधान निर्माताओं ने जिन्हें सरकार चलाने का अधिकार दिया है, वही इसके ख़िला़फ हो रहे हैं. इस मामले में पहला झटका इंदिरा गांधी द्वारा दिया गया, जब उन्होंने संविधान में 42वें संशोधन के ज़रिए यह अनिवार्य कर दिया कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से ही काम करेंगे. आज भारत में सरकार की संसदीय व्यवस्था के साथ का़फी हद तक समझौता किया जा रहा है. हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था बनाई थी, उसकी धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. संविधान की बिगड़ती शक्ल-ओ-सूरत और संसदीय प्रणाली की विद्रूपता को देखकर इसके निर्माता अपनी क़ब्रों में भी शर्म महसूस कर रहे होंगे.

भारत विविधताओं का देश है, इसीलिए इसकी विविधता की एकता को बरकरार रखने के लिए एक ख़ास तरह के संविधान की ज़रूरत है. हमारे निर्माताओं ने इसके लिए इंग्लैंड, फ्रांस और कनाडा जैसे प्रारूप की तलाश की. वे चाहते थे कि हर जाति, धर्म, भाषा के लोग अपनी ख़ास पहचान बनाए रखें, लेकिन वे इस विविधता की एकता को बनाए रखने के लिए मज़बूत बुनियाद अपनाने की सलाह देने में नाकाम रहे. इसीलिए शासन में राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने की ज़रूरत है.
दुनिया के कई देशों में राष्ट्रपति प्रणाली अपनाई गई है. कुछ हिस्सों जैसे दक्षिण अमेरिका में तानाशाही है, जबकि कुछ हिस्सों जैसे अमेरिका, फ्रांस, स्विटजरलैंड आदि में राष्ट्रपति शासन की उदार व्यवस्था अपनाई गई है. उक्त सभी देश उतने ही लोकतांत्रिक हैं, जितना हमारा देश. हमारे संविधान निर्माताओं ने क्यों राष्ट्रपति प्रणाली की वक़ालत नहीं की? यदि हम देखें तो इसकी एक ही वजह थी कि वे किसी व्यक्ति विशेष के हाथों में सारी सत्ता नहीं सौंपना चाहते थे. फिर भी, आज भारतीय प्रधानमंत्री के पास अमेरिकी राष्ट्रपति की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तियां हैं. इस तरह सारा मामला राष्ट्रपति प्रणाली के चुनाव पर निर्भर करता है. इसी से यह तय होता है कि एक देश कितना उदार और लोकतांत्रिक होगा.
उदारवादी लोकतांत्रिक राष्ट्रपति प्रणाली के कुछ निश्चित फायदे हैं. यही प्रणाली अमेरिका में है. सबसे अहम फायदा यह है कि इस तरह की व्यवस्था में राष्ट्रपति के पास अपने मंत्रिमंडल के चयन का अधिकार होता है. जबकि हमारे यहां ऐसा नहीं है. इस प्रणाली में राष्ट्रपति को पूरी आज़ादी होती है कि वह उसी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करे, जो सबसे योग्य हो.
राष्ट्रपति शासन का अमेरिकी प्रारूप भारत के लिए सबसे उपयुक्त है. राष्ट्रपति का चयन प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चार साल के लिए किया जाता है. वह अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति करता है, जो स़िर्फ उसी के प्रति जवाबदेह होते हैं. इसी तरह अमेरिकी संघीय राज्य में एक गवर्नर होता है. हाउस ऑ़फ रिप्रेजेंटेटिव के सदस्यों का चुनाव भी जनता द्वारा दो साल के लिए किया जाता है. यदि राष्ट्रपति शासन प्रणाली भारत में भी शुरू हो जाए तो सांसद और विधायक प्रशासन के क्रियाकलापों में प्रत्यक्ष तौर पर दख़ल नहीं दे पाएंगे. केंद्र और राज्यों में अधिकारी बिना भय और पक्षपात के काम कर सकेंगे. तयशुदा अवधि से पहले उनका तबादला नहीं होगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति या गवर्नर योग्य और क़ाबिल लोगों को ही ज़िम्मेदार ओहदे पर एक निश्चित अवधि के लिए नियुक्त करते हैं. यदि हम भी राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनाते हैं तो हमें भी दलबदल के नाटक और गठबंधन की राजनीति से दो-चार नहीं होना पड़ेगा.
मौजूदा व्यवस्था ने हमारे सामाजिक जीवन को भ्रष्ट बना दिया है. इसने चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में पूरी सत्ता सौंप दी है. वे किसी भी तरह सत्ता में बने रहते हैं और इन्हीं लोगों ने समाज को जाति एवं मज़हब की संकीर्ण गलियों में बांट दिया है. एकता की भावना या राष्ट्रीयता को वोट बैंक की वेदी पर क़ुर्बान कर दिया गया है. इसीलिए जनहित में यह ज़रूरी है कि इन चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकारों में कटौती की जाए. यहां यह चर्चा लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को बर्बाद करने के लिए नहीं, बल्कि उसे बदलने के लिए की जा रही है. शासन का मौजूदा स्वरूप सबसे अधिक ख़र्चीला और विभाजित करने वाला साबित हुआ है. यहां यह डर है कि कहीं राष्ट्रपति तानाशाह न हो जाए, लेकिन लोकसभा या विधानसभा में ज़बरदस्त बहुमत हासिल करने वाला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी एक तानाशाह में बदल सकता है. वित्तीय तौर पर भी संसदीय प्रणाली अपने भारी-भरकम मंत्रिमंडल के कारण सरकारी ख़जाने पर बोझ ही साबित होती है. दोनों सदनों के 800 से अधिक सदस्यों पर होने वाले तमाम ख़र्चों का बोझ भी सरकार ही उठाती है. यही बात राज्य सरकारों पर भी लागू होती है. राजनीतिक दलबदल के कारण मध्यावधि चुनाव होने से फिजूल व्यय का बोझ भी चिंता की बात है. इसलिए कई लोगों को यह लगता है कि अब व़क्त आ गया है कि भारत में भी संसदीय व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाए, क्योंकि यह अपना प्रभाव और उपयोगिता साबित करने में असफल रही है. भारत को भी शासन की राष्ट्रपति प्रणाली अपनानी चाहिए, जिसमें प्रत्यक्ष मतदान के ज़रिए राष्ट्रपति का चुनाव चार वर्षो के लिए किया जाता है. वह राज्य और केंद्र सरकार दोनों का ही प्रमुख होगा. यह प्रणाली राज्य स्तर पर भी अपनाई जानी चाहिए, जिसमें गवर्नर का भी चुनाव प्रत्यक्ष मतदान के ज़रिए होता है.
अमेरिकी और फ्रेंच व्यवस्था की राष्ट्रपति शासन प्रणाली में अमेरिकी प्रणाली भारत के लिए अधिक उपयुक्त है. इससे यह सुनिश्चित हो पाएगा कि जो भी राज्य और केंद्र सरकार का मुखिया बनेगा, वह भारत के लिए अपना सबसे बेहतर योगदान देने में भी सक्षम होगा. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की बौद्धिकता और व्यक्तिगत निष्ठा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. इससे अपराधी और दाग़ी लोगों को सरकार से दूर रखने में मदद मिलेगी. सबसे अहम बात यह है कि हर भारतीय के लिए वोट देना अनिवार्य किया जाना चाहिए. इस प्रणाली के ज़रिए देशवासी खुद भारत का भविष्य तय कर सकेंगे.
यह सही है कि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं है, लेकिन इस समय जब हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा तय किए गए मानकों के मुताबिक़ काम नहीं कर रही हैं तो शासन में राष्ट्रपति प्रणाली लागू होना समय की मांग है. यह व़क्त की दरकार है कि क़ानून निर्माता अपना पूरा समय लें, वर्तमान स्थिति पर पैनी नज़र रखें और अमेरिकी प्रारूप के मुताबिक़ भारत में भी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाए जाने के संबंध में अपनी एक स्पष्ट राय ज़ाहिर करें.

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