book-dressउत्तर प्रदेश में निजी स्कूलों की चांदी है और सरकारी स्कूलों की हालत दिन पर दिन और खस्ता होती जा रही है. कैग की रिपोर्ट भी यह कहती है कि 2010 से लेकर 2016 तक प्राइवेट स्कूलों में नामांकन 36.5 प्रतिशत बढ़ा, जबकि सरकारी स्कूलों में नामांकन प्रतिशत करीब 17 प्रतिशत घट गया. कैग की यह रिपोर्ट पिछले दिनों विधानसभा सत्र के दौरान रखी गईं और इस चिंता जताने का प्रहसन भी खेला गया. विधानसभा में चिंता की औपचारिकताओं के बीच यह बात भी सामने आई कि 2012 से 2016 के बीच साढ़े छह लाख बच्चों को पाठ्य पुस्तकें ही नहीं मिलीं, जबकि सर्व शिक्षा अभियान के तहत फंड की कोई कमी नहीं. स्पष्ट है कि फंड कहां गया. सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) पर खर्च किए गए 1.16 लाख करोड़ रुपए (17.7 अरब डॉलर) के बावजूद यह स्थिति है.

स्थिति कितनी शर्मनाक है, यह आप समझ सकते हैं. यूपी के स्कूलों में बिना किताबों के पढ़ाई चल रही है. कमीशनखोरी के चक्कर में सरकारी किताबें नहीं छापी जा सकीं. कुछ स्कूलों में बच्चों को पुरानी किताबों से पढ़ाया जा रहा है. चारों तरफ नारे लग रहे हैं, ‘पढ़ेगा इंडिया तो बढ़ेगा इंडिया’, लेकिन ये नारे व्यवहारिक तौर पर नपुंसक साबित हो रहे हैं. प्रदेश के बच्चे उन किताबों से ही वंचित हैं जो उन्हें सरकार से मुफ्त में दी जाती है. सरकार को बच्चों की किताबों के लिए कोई फिक्र नहीं, लेकिन स्कूल ड्रेस की काफी फिक्र है. सारे सरकारी स्कूलों के ड्रेस बदल दे गए हैं. इसके पीछे भीषण कमीशनखोरी के खेल की चारों तरफ चर्चा है.

योगी सरकार ने प्राथमिक स्कूलों के बच्चों के ड्रेस में बदलाव और नो-बैग-डे जैसे फार्मूले तो लागू कर दिए, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का कोई भी कारगर नहीं हो रहा. प्रदेश की स्थिति यह है कि ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों में कक्षा 3 में पढ़ने वाले महज 7.2 फीसदी और 5 में पढ़ने वाले 24.3 फीसदी बच्चे ही कक्षा दो के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं. कक्षा 5 के महज 10.4 फीसदी बच्चे गणित में भाग का सवाल कर सकते हैं. यूपी के तमाम प्राथमिक स्कूल शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं.

पांचवीं तक के स्कूलों में बमुश्किल दो से तीन अध्यापक होते हैं. इन अध्यापकों के जिम्मे न केवल पांच कक्षाओं के बच्चों का सिलेबस पूरा कराना होता है बल्कि मिड डे मिल, जनगणना, प्रबंधकीय कामकाज उन्हीं के कंधों पर होता है. ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतर स्कूलों में दो से तीन कमरे ही बने हैं, जिनमें पांचवीं तक के बच्चों की पढ़ाई होती है. ज्यादातर स्कूलों में टेबल कुर्सी की व्यवस्था नहीं है, बच्चों को दरी पर बैठाया जाता है. गंदे क्लास रूम और उजड़ी हुई दीवारें प्राथमिक शिक्षा की बदहाली बयान करती हैं.

सरकारी स्कूलों में पौने दो लाख शिक्षकों की कमी है. इस तरह देशव्यापी स्थिति देखें तो पांच साल में प्राइवेट स्कूलों में दाखिले में 17 मिलियन छात्रों की बढ़ोतरी हुई तो सरकारी स्कूलों में 13 मिलियन छात्रों का दाखिला कम हुआ. 2010-11 और 2015-16 के बीच 20 राज्यों में सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन 13 मिलियन तक नीचे गिर गया, जबकि प्राइवेट स्कूलों ने 17.5 मिलियन नए छात्रों का नामांकन हुआ. एक अध्ययन के अनुसार भारत के सार्वजनिक-विद्यालय शिक्षा संकट के अभूतपूर्व दौर से गुजर रहे हैं.

दूसरी तरफ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. नूतन ठाकुर द्वारा उर्दू सहित भाषा शिक्षकों से सम्बन्धित यूपी-टीईटी परीक्षा निर्धारित मानदंडों के विपरीत कराए जाने के सम्बन्ध में दाखिल जनहित याचिका में राज्य सरकार द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में दिए गए हलफनामे से निजी विद्यालयों में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट) के अनुपालन की बुरी स्थिति सामने आई है. बेसिक शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव राज प्रताप सिंह द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रस्तुत हलफनामे के अनुसार आरटीई एक्ट में निजी स्कूलों द्वारा अनिवार्य रूप से दिए जाने वाले प्रवेश के नियम का अनुपालन प्रदेश में पहली बार वर्ष 2013-14 में हुआ जब मात्र 60 छात्रों को निजी स्कूलों में प्रवेश मिला था, जबकि आरटीई एक्ट वर्ष 2009 में ही लागू हो गया था.

इसी प्रकार वर्ष 2014-15 में मात्र 54, 2015-16 में 3,135 तथा 2016-17 में 14,898 छात्रों को निजी स्कूलों में आरटीई एक्ट में दाखिला मिला. हलफनामे में दी गई सूचना के अनुसार इनमें लखनऊ में 2465, बाराबंकी में 23, आगरा में 2005, वाराणसी में 1851 और गोंडा में 66 छात्र थे. वर्तमान अकादमिक वर्ष 2017-18 में अब तक मात्र 13,364 छात्रों का चयन निजी स्कूलों में दाखिले हेतु किया गया है. प्रदेश में हर वर्ष कई लाख छात्र कक्षा एक में प्रवेश लेते हैं, वहीं उनमें मात्र दस हजार छात्रों का निजी स्कूलों में दाखिला अत्यंत निराशाजनक स्थिति है और यह बेसिक शिक्षा विभाग की निष्क्रियता को दिखाता है. मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम- 2009 में 25 प्रतिशत अलाभित एवं दुर्बल वर्ग के बच्चों के लिए अपने पड़ोस के किसी भी विद्यालय में कक्षा 1 से 8 तक निःशुल्क पढ़ने का अधिकार है.

शैक्षणिक सत्र 2015-16 में लखनऊ के जिलाधिकारी ने 31 बच्चों के दाखिले का आदेश शहर के जाने-माने सिटी मांटेसरी स्कूल की इंदिरा नगर की शाखा में किया. उच्च न्यायालय में महीनों चली लड़ाई के बाद उन 13 बच्चों के दाखिले का आदेश हुआ, जिनका घर विद्यालय से एक किलोमीटर के दायरे में था. सर्वोच्च न्यायालय के कारण ये बच्चे अभी सिटी मांटेसरी स्कूल में टिके हुए हैं. सीएमएस स्कूल समूह के संस्थापक-प्रबंधक जगदीश गांधी और उनकी शिक्षाविद पुत्री गीता गांधी किंग्डन ने उन बच्चों को अपने स्कूल से निकालने की पूरी कोशिश की.

शैक्षणिक सत्र 2016-17 में सिटी मांटेसरी की विभिन्न शाखाओं में 55 बच्चों के दाखिले का आदेश हुआ लेकिन फिर जगदीश गांधी ने अड़ंगा लगा दिया और एक भी दाखिला नहीं लिया. सिटी मांटेसरी की देखा-देखी भाजपा नेता सुधीर हलवासिया ने अपने विद्यालय नवयुग रेडियंस में 25 बच्चों का, जगदीश गांधी की दूसरी पुत्री सुनीता गांधी ने अपने विद्यालय सिटी इंटरनेशनल में 12 बच्चों का, डॉ. वीरेन्द्र स्वरूप पब्लिक स्कूल महानगर ने 2 बच्चों का और सेंट मेरी इंटरमीडिएट कॉलेज की दो शाखाओं ने 11 बच्चों का दाखिला नहीं लिया. कुल मिला कर 105 बच्चों को दाखिला न देकर इन विद्यालयों ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम का सरासर उल्लंघन किया.

यही हाल मौजूदा सत्र में भी हो रहा है. शैक्षणिक सत्र 2017-18 में भी उपर्युक्त विद्यालय बच्चों का दाखिला नहीं ले रहे. कानपुर शहर में डॉ. वीरेन्द्र स्वरूप, चिंटल पब्लिक व स्टेपिंग स्टोन पब्लिक स्कूल जैसे विद्यालय इस वर्ष दाखिला नहीं ले रहे. इस तरह शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12 (1) (ग) के तहत दाखिला न लेने वाले विद्यालयों की संख्या बढ़ती जा रही है और इन्होंने मिलकर राष्ट्रीय कानून का मजाक बना कर रख दिया है. सामाजिक संगठनों की मांग है कि इन विद्यालयों की मान्यता रद्द होनी चाहिए और इनके संचालकों के खिलाफ सख्त कानून कार्रवाई होनी चाहिए.

जिस तरह गुजरात में कानून लाकर प्राथमिक विद्यालयों के लिए 15 हजार रुपए सालाना, माध्यमिक विद्यालयों के लिए 25 हजार रुपए और उच्च माध्यमिक विद्यालयों के लिए 27 हजार रुपए सालाना की सीमा तय की गई है, उसी तरह उत्तर प्रदेश में भी निजी विद्यालयों द्वारा लिए जाने वाले शुल्क की सीमा तय होनी चाहिए. इस कानून को पारित कराते समय गुजरात के शिक्षा मंत्री भूपेन्द्र सिंह चुड़ास्मा ने कहा था कि शिक्षा सेवा का कार्य है कोई व्यवसाय नहीं.

जिन्हें पैसा कमाना है वे कोई कारखाना लगाएं, व्यापार करें, स्कूल न खोलें. ठीक ऐसा ही रुख उत्तर प्रदेश सरकार का भी होना चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय का कहना है कि निजी विद्यालयों के मनमाने तरीके से काम करने पर अंकुश लगाने के लिए शिक्षा आयोग का गठन होना चाहिए और जो निजी विद्यालय सरकार का नियम-कानून मानने को तैयार नहीं हैं, उनका संचालन सरकार को अपने हाथों में ले लेना चाहिए. उत्तर प्रदेश जन-मंच ने मांग की है कि सरकारी प्राइमरी विद्यालयों को बंद करने का उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध है, इसे सरकार को वापस लेना चाहिए.

उत्तर प्रदेश सरकार ने कम उपस्थिती वाले स्कूलों को बंद करने का फैसला करके सरकारी शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने के उच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत जाने का काम किया है. यह प्रदेश की पहले से ही जर्जर प्रारंभिक सरकारी शिक्षा व्यवस्था को और बदतर बनाएगा. सरकार का यह फैसला नागरिकों को कल्याणकारी राज्य देने के संवैधानिक दायित्वों से मुंह चुराना है. निजी विद्यालयों और कॉरपोरेट शिक्षा प्रणाली के पक्ष में लिए गए इस निर्णय से छात्राएं और दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी समाज के वंचित वर्ग की बुनियादी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा.

सरकार का यह तर्क कि जिन विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति कम है उसे बंद किया जाएगा, वंचित समुदाय के प्रति नाइंसाफी है, क्योंकि बच्चों की उपस्थिति कम होने का कारण सरकारी प्राथमिक स्कूलों में गुणत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी आक्रोश जताते हुए कहा था कि इसका हल यही है कि राजनेताओं और अधिकारियों के बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ाया जाए तभी सरकारी विद्यालयों की दशा में सुधार हो सकता है.

गौरतलब है कि प्रदेश में पहले से ही स्कूल नहीं जा सकने वाले बच्चों की बड़ी तादाद है. ड्र्रॉपआउट दर भी तकरीबन 55-60 फीसदी है. मोदी सरकार बाल श्रम में कार्यरत बच्चों के विशेष स्कूल अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष में बंद कर चुकी है. मर्जर के नाम पर स्कूल बंद करके प्रदेश सरकार शिक्षाधिकार कानून के अनुसार 9 से 14 साल के हर बच्चे को शिक्षा पहुंचाने के संवैधानिक दायित्व से भी मुकर रही है.

इसलिए प्रदेश सरकार को इस फैसले को वापस लेकर स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने काम करना चाहिए. जन मंच की समन्वयक डॉ. वीणा गुप्ता का कहना है कि बुनियादी शिक्षा हर धर्म और जाति के प्रत्येक बच्चे का हक है. जब तक इन स्कूलों में बच्चे हैं, भले ही कम हों, पर संविधान इन स्कूलों को बंद करने की इजाजत नहीं देता. शिक्षा के बिना विकास कैसे हो सकता है! सरकार ने इस फैसले से सरकारी स्कूलों को बंद करके प्राइवेट स्कूलों को मदद पहुंचा कर शिक्षा के बाजारीकरण की ओर एक और कदम बढ़ाया है. प्रदेश के 50 फीसदी से ज्यादा स्कूलों में बुनियादी संरचनाओं के साथ अध्यापकों का बहुत अभाव है.

न पुस्तकालय हैं न प्रयोगशालाएं. शौचालयों व खेल के मैदान की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब है. तराई के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में बरसात में पानी भरा रहता है, उसके बाद महीनों पानी सूखने में लगता है. पढाई का आधा सत्र बीत जाने के बाद किताबें पहुचती हैं, यूनिफॉर्म और बस्ते के स्कूल तक पहुंचने की कोई समय सीमा नहीं है, सब सरकार और नौकरशाही की मर्जी पर है. अध्यापक तीन आवश्यक ड्यूटी जनगणना, चुनाव और आपदा के अतिरिक्त कोई ड्यूटी नहीं करेंगे, ऐसा कानून बन जाने के बाद भी उसे लागू नहीं किया जाता. आज भी महीनों तक प्राइमरी के अध्यापक बोर्ड में ड्यूटी करने और कॉपी जांचने को मजबूर हैं.

इस अवधि में स्कूल बंद रहते हैं. स्पष्ट है कि सरकार प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार के लिए गंभीर नहीं है. प्रदेश सरकार का दायित्व है कि स्कूलों की गुणवत्ता सुधारे और उपस्थिती सुनिश्चित कराए. नागरिक समाज की भी जिम्मेदारी है कि वे सरकार को उसका दायित्व याद दिलवाएं. डॉ. वीणा गुप्ता ने प्रदेश की सभी संस्थाओं और संगठनों से भी अपील की है कि प्रदेश के बच्चों और भावी पीढी के सुनहरे भविष्य के लिए और शिक्षाधिकार कानून में वर्णित बच्चों के अधिकारों के लिए आगे आएं और जरूरत पड़े तो सीधे संघर्ष के लिए तैयार रहें.

किताबों से पक रहा मिड-डे मील

एक तरफ स्कूलों में किताबें नहीं तो दूसरी तरफ कई स्कूलों में किताबें ही ईंधन का काम कर रही हैं. इन स्कूलों के प्रबंधन का कहना है कि बच्चों के लिए किताबों से अधिक जरूरी मिड डे मील है. बस्ती जिले के सदर ब्लॉक डारडीहा में ऐसा ही नायाब वाकया सामने आया है. वहां के एक प्राइमरी स्कूल में किताबों को जलाकर मिड-डे मील तैयार किया जा रहा था. स्कूल के प्रबंधन ने कहा कि बच्चों के लिए खाना जरूरी था. ईंधन के लिए स्कूल के पास फंड उपलब्ध नहीं है. सरकारी स्कूलों में किताबें सरकार की ओर से दी जाती हैं, इसलिए उन किताबों को ही मुफ्त का ईंधन बना लिया जाता है.

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