पार्टी की तरफ से एकबार फिर भावी मुख्यमंत्री के तौर घोषित होने के बाद और जन आशीर्वाद यात्रा को मिल रही सकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए शिवराज सिंह का आत्मविश्वास और बढ़ गया है. उन्हें पार्टी आलाकमान की तरफ से भी पूरी छूट मिल गई है, जिसके बाद से शिवराज ने खुद को पूरी तरह से चुनावी तैयारियों में झोंक दिया है. फिलहाल अपने जन आशीर्वाद यात्रा के द्वारा वे पूरे मध्यप्रदेश को नाप रहे हैं, जिसमें कांग्रेस पूरी तरह से उनके निशाने पर है और वे अपनी धुआंधार घोषणाओं के जरिए हर वर्ग को साधने में लगे हुए हैं.

shivrajमध्य प्रदेश में पिछले तीन महीने की सरगर्मियों को देखें, तो कांग्रेस भाजपा के मुकाबले चुनावी तैयारियों में पीछे नजर आ रही है. कांग्रेस अभी भी आपसी गुटबाजी में उलझी हुई है. अभी भी उसका पूरा फोकस आपसी मतभेद खत्म करने और कार्यकर्ताओं को मनाने पर ही है. वहीं दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनआशीर्वाद यात्रा के जरिए सीधे मतदाताओं के बीच पहुंचकर न केवल अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिना रहे हैं, बल्कि नई घोषणाएं भी किए जा रहे हैं. उनकी यात्रा में अच्छी-खासी भीड़ भी जुट रही है. कांग्रेस शिवराज के इस यात्रा का जवाब नहीं दे पा रही है. हालांकि इसके जवाब में जीतू पटवारी की अगुवाई में जन जागरण यात्रा निकाली गई, लेकिन वो यात्रा अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही.

खुद कांग्रेसी कह रहे हैं कि शिवराज की जनआशीर्वाद यात्रा के मुकाबले कांग्रेस के प्रयास नाकाफी हैं. इस बीच भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार भी उसका चेहरा शिवराज ही होंगे, जबकि चेहरे को लेकर कांग्रेस की उलझन अभी भी बनी हुई है. शिवराज के मुकाबले कांग्रेस की तरफ से कौन होगा, इसका कोई जवाब पार्टी के पास अभी तक नहीं है. सत्ताधारी भाजपा आक्रामक है. सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिए भाजपा अपने 15 साल के शासन की तुलना दिग्विजय सिंह के कार्यकाल से कर रही है. इधर कांग्रेस कन्फ्यूज नजर आ रही है. ऐसा लगता है, उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो सत्ता में है या विपक्ष में. वो अपनी पुरानी कमियों, गलतियों को चाह कर भी सुधार नहीं पा रही है और न ही चुनाव के लिए कोई कॉमन थीम तय कर पा रही है.

अपने तोड़ेंगे सपने

कांग्रेस के लिए अगले तीन महीने बहुत कीमती साबित होने वाले हैं, इस दौरान अगर कांग्रेस अपने आप को एकजुट करके मुकाबले में खड़ी नहीं कर पाई, तो शिवराज सिंह का इतिहास रचना तय है. भाजपा चौथी बार सत्ता में होगी और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा. मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्याएं गुटबाजी और भीतरघात हैं, जो अभी भी बनी हुई हैं. कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बावजूद गुटबाजी खत्म नहीं हुई है.

बिना एकजुटता और बिना कॉमन थीम के क्षत्रप अपने-अपने तरीके से चुनावी तैयारी करते नजर आ रहे हैं. शायद इसीलिए अभी तक पार्टी संगठन स्तर पर ही तैयारियां करती दिखाई दे रही है और मामला बैठकों और सम्मेलनों तक ही अटका हुआ है. भाजपा के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर को अपना सहाराा मानकर कांग्रेसी अब भी इसी मुगालते में जी रहे हैं कि प्रदेश में उनकी स्थिति अच्छी है. लेकिन यह गलतफहमी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ सकती है.

सत्ताधारी पार्टी होने के बावजूद ज़मीनी स्तर पर भाजपा ज्यादा सक्रिय नजर आ रही है. इस स्थिति को देखते हुए राहुल गांधी ने स्थानीय नेताओं को निर्देश भी दिया कि वे बैठक करने के बजाए जनता के बीच जाने पर ज्यादा जोर दें. रही-सही कसर कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र माने जाने वाले अख़बार नेशनल हेराल्ड ने पूरी कर दी है. अखबार की वेबसाइट पर एक अनजाना सा चुनाव पूर्व सर्वे प्रकाशित किया गया है, जिसमें मध्य प्रदेश में भाजपा को एकबार फिर बहुमत मिलता हुआ दिखाया गया है.

करीब तीन महीने पहले अनुभवी नेता कमलनाथ को पीसीसी अध्यक्ष और युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान सौंपी गई थी. इसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि अंदरूनी गुटबाजी पर लगाम लगेगा और राज्य में पार्टी की जीत की संभावनाएं मजबूत होंगी. लेकिन अभी तक ऐसी उम्मीद पूरी होती नजर नहीं आ रही है. कांग्रेस अपने खिलाफ बनी धारणाओं को खत्म करने में नाकाम साबित हुई है. अब तक के कार्यकाल में कमलनाथ का फोकस संगठन पर रहा है, लेकिन इसी चक्कर में मैदान खाली छोड़ दिया गया. सूबेदार के तौर पर कमलनाथ का अभी तक प्रदेश का दौरा शुरू भी नहीं हुआ है.

उन्होंने खुद को अभी संगठन की बैठकों तक ही सीमित किया हुआ है. प्रदेश में जहा कहीं भी सत्ता विरोधी आक्रोश का प्रदर्शन हो रहा है, कांग्रेस पार्टी वहां से नदारद है. कमलनाथ ने बसपा के साथ गठबंधन को लेकर काफी जोर लगाया है, लेकिन बात अभी तक बनी नहीं है. उल्टे बसपा के साथ गठबंधन पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की वजह से बसपा के भाव बढ़ गए हैं और वो अपनी शर्तों पर मोल-भाव की स्थिति में आ गई है. अब बसपा की तरफ से कहा जा रहा है कि यदि मध्य प्रदेश में सम्मानजनक सीटें मिलेंगी, तभी हम गठबंधन को तैयार होंगे. इस तरह से कमलनाथ के उतावलेपन का विपरीत असर पड़ा है और सीटों के बंटवारे को लेकर पेंच फंसा हुआ है.

बावरिया ने बढ़ा दिया बवाल! 

कांग्रेस पार्टी के करीब आधे दर्जन नेता पहले की तरह ही अपनी अपनी राजनीति करने में व्यस्त हैं और राष्ट्रीय नेतृत्व अपने में ही मस्त है. इन सबकी वजह से विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस पार्टी लावारिस नजर आ रही है. सबसे बड़ा पेंच तो पार्टी की तरफ से चेहरे पर ही फंसा हुआ है. जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने कांग्रेस का कोई एक चेहरा नहीं है. इस मामले में फिलहाल यही बदलाव हुआ है कि पहले के मुकाबले अब दो ही चेहरे सामने हैं, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया का, जिनके समर्थक इन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताकर सोशल मीडिया पर खूब पोस्टरबाजी कर रहे हैं.

पार्टी के बीच की गुटबाजी को खत्म करने के लिए जिन्हें तालमेल बनाने की जिम्मेदारी देकर मध्य प्रदेश भेजा गया था, वे खुद ही बवाल मचाए हुए हैं. मध्य प्रदेश कांग्रेस में पहले से ही इतना प्रपंच ऊपर से दीपक बावरिया को प्रभारी बनाकर भेज दिया गया, जो रायता समेटने के बजाए इसे फैलाने में अपना योगदान ज्यादा दे रहे हैं. बावरिया लगातार अपने विवादित बयानों के माध्यम से नए संकट खड़ा करते रहे हैं. रीवा में उन्होंने बयान दिया कि अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया या कमलनाथ में से कोई एक मुख्यमंत्री बनेंगें.

यह बात विंध्य के नेता अजय सिंह के समर्थकों को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने बावरिया के साथ सरेआम दुर्व्यवहार कर डाला. इससे पहले उन्होंने उप-मुख्यमंत्री के तौर पर सुरेंद्र चौधरी के नाम की घोषणा करके पार्टी में घमासान मचा दिया था. कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य राव सिंधिया जैसे नेताओं के सामने बावरिया का कद छोटा है. सितंबर 2017 को जब उन्हें प्रदेश प्रभारी के रूप में मध्य प्रदेश भेजा गया था, तो स्थिति दूसरी थी. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के समय उन्हें तवज्जो भी मिल रही थी, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है. कमलनाथ और सिंधिया उन्हें ज्यादा भाव नहीं दे रहे हैं. ऐसे में अनाप-शनाप बयान देकर वे अपनी महत्ता साबित करने में लगे रहते हैं.

भारी पड़ेेगी कांग्रेसी आलाकमान की आरामतलबी

जमीनी स्तर पर कांग्रेस की निष्क्रियता के कारण भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर मंद पड़ती दिख रही है. पिछले 15 वर्षों से सत्ता में काबीज भाजपा ऐसा लगता है आसानी से मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है. व्यापम जैसे घोटालों और मंदसौर गोलीकांड के बाद किसानों के गुस्से के बाद से माहौल बदलता हुआ नजर आ रहा था. बढ़ते सत्ता विरोधी लहर से शिवराज सरकार परेशानी में नजर आ रही थी, लेकिन पिछले चंद महीनों के दौरान भाजपा के लिए माहौल में सुधार देखने को मिल रहा है. कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का आलाकमान भी मध्य प्रदेश को लेकर ज्यादा गंभीर नजर आ रहा है.

अमित शाह और नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश में कई दौरे कर चुके हैं, उन्होंने कई रैलियों व सभाओं को संबोधित भी किया है. लेकिन राहुल गांधी अब तक खुद को मध्य प्रदेश में जमीन पर नहीं उतार सके हैं. अभी तक राहुल गांधी की एकमात्र मंदसौर में ही सभा हुई है. इधर विधानसभा चुनावों को देखते हुए अमित शाह ने मध्य प्रदेश में ही कैम्प करने का फैसला किया है, जहां से वे तीनों राज्यों पर नजर रखेंगे. अमित शाह 25 सितंबर तक प्रदेश के सभी संभागों में जाने वाले हैं, जहां वे बूथ एवं पन्ना प्रमुखों से सीधे तौर पर जुड़ेंगे.

पार्टी की तरफ से एकबार फिर भावी मुख्यमंत्री के तौर घोषित होने के बाद और जन आशीर्वाद यात्रा को मिल रही सकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए शिवराज सिंह का आत्मविश्वास और बढ़ गया है. उन्हें पार्टी आलाकमान की तरफ से भी पूरी छूट मिल गई है, जिसके बाद से शिवराज ने खुद को पूरी तरह से चुनावी तैयारियों में झोंक दिया है. फिलहाल अपने जन आशीर्वाद यात्रा के द्वारा वे पूरे मध्यप्रदेश को नाप रहे हैं, जिसमें कांग्रेस पूरी तरह से उनके निशाने पर है और वे अपनी धुआंधार घोषणाओं के जरिए हर वर्ग को साधने में लगे हुए हैं.

शिवराज सिंह कांग्रेस को राजाओं और कारोबारियों की पार्टी बताते हुए खुद को मध्य प्रदेश का मामा घोषित कर रहे हैं. पिछले दिनों जब कमलनाथ ने उनकी बेलगाम घोषणाओं का मजाक उड़ाते हुए कहा कि शिवराज मदारी की तरह कर रहे हैं, घोषणाएं कर रहे हैं तो शिवराज का जवाब था, हां, मैं मदारी हूं. मैं ऐसा मदारी हूं, जो डबरू बजाता है तो बिजली बिल जीरो हो जाता है, मैं मदारी हूं, जो गरीबों के लिए घर बनाता है, बच्चों की फीस भरता है.

बहरहाल, मध्य प्रदेश में चुनावी तैयारियों के पहले राउंड में भाजपा बढ़त बनाने में कामयाब रही है, जबकि इस दौरान कांग्रेस मौका खोती हुए नजर आई है. अगले तीन महीनों में दूसरा राउंड होना है, जिसमें राष्ट्रीय धुरंधर भी ताल ठोकते नजर आएंगे. कांग्रेस की गुटबाजी और नेताओं की निष्क्रियता के कारण अभी तक तो भाजपा के लिए राह आसान रही है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि शिवराज सिंह के लिए सत्ता की थाली सजी हो. भले ही जन आशीर्वाद यात्रा में भीड़ उमड़ रही है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ये भीड़ वोट में भी तब्दील हो जाए.

कांग्रेस के पास समय कम है और वो अभी भी बिखरी हुई नजर आ रही है. भाजपा के सामने चुनौती पेश करने से पहले उसे खुद को ही संभालना है. आने वाले महीनों में टिकट को लेकर भी आपसी घमासान होना तय है. सभी क्षत्रप अपने-अपने चहेतों को टिकट दिलाना चाहेंगे, जिससे उनकी दावेदारी मजबूत हो सके. ऐसे में पार्टी कितना एकजुट हो सकेगी उसपर सवालिया निशान है. फिलहाल मैदान में मदारी मामा ही नजर आ रहे हैं.

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