जब संसद में लालू यादव और मुलायम सिंह यादव ने यह मांग उठाई कि राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए तो देश में थोड़ी चिंता हुई. संसद में भाजपा से जुड़े अनंत कुमार ने तो लालू यादव पर हमला ही बोल दिया तथा उन्हें देशद्रोही जैसा साबित करने की कोशिश की. जो लोग देश में जाति व्यवस्था के ख़िला़फ हैं, उन्हें लगा कि कहीं इससे जाति व्यवस्था को बढ़ाने में मदद न मिले. लेकिन सरकार ने बाद में फैसला लिया कि जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए.

अगर जाति व्यवस्था समाप्त करनी है तो ऐसी विकास नीति बनानी होगी, जो सबसे पहले समाज के अंतिम आदमी को फायदा पहुंचाए, फिर कमज़ोर वर्गों को. अगर देश का समग्र विकास होता है और सबसे कमज़ोर तबकों, दलितों, पिछड़ों को फायदा मिलता है तो संभवत: बीस-पच्चीस वर्षों के बाद जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर सोचने वालों की तादाद शायद बढ़े.

जाति आधारित जनगणना में कोई ऐसी बात नहीं है, जो असंवैधानिक या अव्यहारिक हो. डॉ. लोहिया कहा करते थे कि जाति बुरी चीज़ है, लेकिन जाति जैसी कठोर सच्चाई दूसरी नहीं है. और जाति तो एक ऐसा सच है, जिसका विश्व में कहीं और उदाहरण ही नहीं मिलता. हम जब चाहें तो अपना धर्म बदल सकते हैं, हिंदू से मुसलमान, मुसलमान से हिंदू या फिर ईसाई या सिख बन सकते हैं. लेकिन हम जितना चाहें, ब्राह्मण से ठाकुर, वैश्य से शूद्र या शूद्र से ठाकुर या ब्राह्मण नहीं बन सकते. जाति तो छोड़ दें, उपजाति में भी बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं है. धर्म आसान है, जाति कठोर है.
हिंदू धर्म की इस वास्तविकता ने इस्लाम को भी अपनी जकड़ में ले लिया है. वहां भी शेख सैय्यद नहीं हो सकता, सिद्दीकी अंसारी नहीं हो सकता. बराबरी की बुनियाद पर खड़ा इस्लाम जाति व्यवस्था की वजह से ग़ैर बराबरी का शिकार हो गया है. अरब देशों में तो सब सुन्नी के रूप में जाने जाते हैं, पर जो लोग पुराने हिंदुस्तान से गए हैं, वे सब अपने साथ जातियां ले गए हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश इसकी मिसाल हैं.
इसलिए जब यहां मांग उठती है कि जाति आधारित जनगणना हो तो उसे इज़्ज़त देनी चाहिए. जनगणना दरअसल सही आंकड़ा जानने का एक माध्यम है. हमारे यहां योजनाएं ग़रीबी का आधार बनाकर, पिछड़ेपन का आधार बनाकर, दलित व अत्यंत ग़रीब आदिवासियों को आधार बनाकर बनाई जाती हैं. हिंदुस्तान में परंपरा से जो दलित, पिछड़े हैं वे आर्थिक रूप से भी कमज़ोर हैं. इनमें से कुछ आज भले आर्थिक रूप से मज़बूत हो गए हों, पर ज़्यादातर कमज़ोर हैं. बड़ी जातियों में भी ग़रीबी है. इसीलिए मांग उठ रही है कि आर्थिक रूप से ग़रीब तबकों को भी आरक्षण मिलना चाहिए. यह विषय महत्वपूर्ण है, पर इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि हमें कम से कम पता तो चले कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है. एक अंदाज़ा है कि सत्ताइस प्रतिशत पिछड़े हैं. अगर जनगणना में पता चलता है कि पिछड़ों की संख्या सत्ताइस प्रतिशत से कम है तो उनका आरक्षण प्रतिशत घटाया जा सकता है और अगर पता चलता है कि उनकी संख्या ज़्यादा है तो उनका प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है. यह बाक़ी जातियों और वर्गों के साथ भी हो सकता है.
इसलिए अगर सही योजना बनानी है और उसका सही फायदा उचित लोगों तक पहुंचाना है तो जाति आधारित जनगणना आवश्यक है. राजस्थान में गूजर अपने को दलित वर्ग में आरक्षित करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. ऐसी मांग दूसरी जातियां देश के कई हिस्सों में कर सकती हैं. ये मांगें भी इसीलिए उठ रही हैं, क्योंकि एक वर्ग को लगता है कि दूसरे वर्ग को जाति विशेष में होने का ज़्यादा फायदा मिल रहा है. अगर जातियों की सही संख्या पता चलती है तो उनकी आर्थिक स्थिति का भी पता चल जाएगा. सबसे बड़ी बात यह होगी कि हिंदुस्तान की बुनियादी संरचना के आधार का पता चल जाएगा और हम आज़ादी के बाद सही योजना बनाने की शुरुआत कर सकेंगे.
यहीं पर सुप्रीम कोर्ट की बात भी करनी चाहिए. एक मांग उठ रही थी कि ईसाई व मुस्लिम धर्म मानने वाले लोगों में जो लोग वही काम कर रहे हैं, जो हिंदुओं में दलित वर्ग के लोग कर रहे हैं तो उन्हें वैसी सुविधाएं क्यों नहीं मिल रही हैं. यह सच्चाई है कि दलित जातियों से ईसाई व मुसलमान हुए लोग वहां भी वही काम कर रहे हैं, जो पहले करते थे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह रंगनाथ मिश्र आयोग से कहे कि वह ईसाई व मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों की पहचान करे. अब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट आ गई है और रंगनाथ मिश्र ने कई स़िफारिशें की हैं. जाति आधारित जनगणना से यह भी पता चल जाएगा कि ईसाई व मुस्लिम समाज में वे जातियां कौन हैं, जिन्हें आरक्षण या अन्य सुविधाएं वैसी ही मिलनी चाहिए, जैसी हिंदू समाज की जातियों को मिलती हैं.
इसीलिए कई लोग इस तरह की जनगणना का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके हिस्से की सुविधाएं बांटने कई और लोग आ जाएंगे. जबकि सोच यह होना चाहिए कि हम सब मिल बांट कर खाएंगे. आज कमी है, पर संसाधन बढ़ाने की कोशिश तो की जा सकती है. इसका बुनियादी आधार भी हमें जाति आधारित जनगणना से मिल जाएगा.
जाति समाप्त होनी चाहिए, देश के सामाजिक आंदोलन कई बार यह मांग उठा चुके हैं. बड़े राजनैतिक नेता भी इसकी मांग करते रहे हैं. जाति व्यवस्था को देश के विकास के लिए सामाजिक अवरोध बताने वाले भी कम नहीं हैं. जाति को सत्ता प्राप्ति का साधन बनाने के लिए कई लोग कोशिश करते भी हैं और सफल भी होते हैं. इसका फिर इलाज क्या है. इस पर सोचने की शुरुआत यहां क्यों नहीं होती.
अगर जाति व्यवस्था समाप्त करनी है तो ऐसी विकास नीति बनानी होगी, जो सबसे पहले समाज के अंतिम आदमी को फायदा पहुंचाए, फिर कमज़ोर वर्गों को. अगर देश का समग्र विकास होता है और सबसे कमज़ोर तबकों, दलितों, पिछड़ों को फायदा मिलता है तो संभवत: बीस-पच्चीस वर्षों के बाद जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर सोचने वालों की तादाद शायद बढ़े. आज तो जाति आधारित समाज में भी ऐसे लोगों की कमी हो गई है, जो अपनी जाति के ग़रीबों के बारे में सोचते हों.
भारत में जाति और वर्ग एक दूसरे के पर्याय जैसे हो रहे हैं. ऐसे राजनैतिक नेतृत्व की ज़रूरत है, जो देश के सभी वर्गों व जातियों के बारे में सोचे. न सोचने का ही नतीजा है कि देश में अपराध, छीनाझपटी व नक्सलवाद बढ़ रहा है. इसे सोचने के लिए किसी सुकरात या तुलसीदास की ज़रूरत नहीं है. आज का राजनैतिक नेतृत्व यह कर सकता है, बशर्ते वह करना चाहे. आशा अच्छे की करनी चाहिए.

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