cartoon-akhilesh-mulayam-copyसमाजवादी पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर आर-पार के युद्ध का माहौल है. शिवपाल बनाम अखिलेश विवाद का प्रति-उत्पाद यह है कि समाजवादी पार्टी दो खाने में बंटी हुई साफ-साफ दिख रही है. अखिलेश के समर्थक एक तरफ और शिवपाल के समर्थक दूसरी तरफ. अब तो पार्टी दफ्तर भी दो तरफ है. एक तरफ वाले दफ्तर में शिवपाल और उनके लोग तो दूसरे दफ्तर में अखिलेश और उनके लोग. अखिलेश के समर्थकों को शिवपाल पार्टी से बाहर निकाल चुके, लेकिन वे अखिलेश के साथ बने हुए हैं और समानान्तर दफ्तर में बाकायदा विराजमान हो रहे हैं. दोनों ही खाने समाजवादी पार्टी के हैं, जिनके राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव हैं. शिवपाल यादव अखिलेश के समर्थकों को संगठन से बाहर करने पर तुले हुए हैं. अखिलेश समर्थकों को चुन-चुन कर संगठन के विभिन्न पदों से हटाए जाने का सिलसिला जारी है. अब स्पष्ट तौर पर यह दिखने लगा है कि कमान संभालने के लिए मुलायम पर जोर डाला जा रहा है. इससे असहमत अखिलेश सार्वजनिक सभाओं में मुलायम के साथ मंच साझा करने से बच रहे हैं. पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता यह तर्क देते हैं कि मुलायम के कमान संभाल लेने से पार्टी टूटने से बच जाएगी. उनका मानना है कि इस पर अखिलेश चुप रह जाएंगे. लेकिन कुछ नेता इस तर्क से सहमत नहीं दिखते. उनका मानना है कि 2012 का चुनाव जीतने का श्रेय मिलने के बाद अखिलेश अब एक स्वतंत्र राजनीतिक के बतौर खुद को स्थापित करने की मंशा रखते हैं, लिहाजा विधानसभा चुनाव में वे किसी भी कीमत पर कमान अपने हाथ में ही रखना चाहेंगे, ताकि चुनाव उनके नेतृत्व और चेहरे पर लड़ा जाए और वे फिर मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता पर वापस लौटें.

सपा के नए सिपहसालारों में से एक ने कहा कि मुलायम के कमान संभालने से सत्ता के खिलाफ पड़ने वाले (एंटी-इंकमबेंसी) वोट से पार्टी बच जाएगी. स्वाभाविक है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके खेमे के नेता-मंत्री इससे असहमत हैं और इसे वे तिकड़म का हिस्सा मानते हैं. प्रभावशाली चुनावी चेहरे के अलावा पार्टी की नीतियों को लेकर भी नेतृत्व के स्तर पर भीषण अंतरविरोध है. असरकारक नेतृत्व के सवाल पर सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव अपने बड़े भाई मुलायम सिंह यादव के पक्ष में खड़े हैं. लेकिन सपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव अखिलेश यादव को ही अधिक असरकारक चेहरा मानते हैं. नीतियों को लेकर पार्टी में टकराव की स्थिति यह है कि नए बने प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव माफियाओं अपराधियों और घोटालेबाजों को चुनावी टिकट देने से कोई परहेज नहीं कर रहे तो अखिलेश ऐसे तत्वों को टिकट देने के खिलाफ खड़े हैं. नीतिगत स्टैंड को लेकर प्रदेश के आम लोग अखिलेश के प्रति समर्थन जता रहे हैं.

समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में मुलायम का चेहरा सामने रख कर विधानसभा चुनाव में उतरने का विचार इसलिए भी चल रहा है क्योंकि यह बात सब जानते हैं कि 2017 का उत्तर प्रदेश का चुनाव खास होगा और सारी राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रतिष्ठा का मानक बनेगा. लेकिन सपा में चल रहे विवाद के कारण पार्टी की जो सार्वजनिक किरकिरी हुई है, उसे लेकर भी पार्टी के नेता चिंतित हैं. उधर सारी पार्टियां कोशिश कर रही हैं कि वे सपा के इस अंदरूनी विवाद का फायदा उठाएं. बसपा और भाजपा खास तौर पर इस मुद्दे को लेकर काफी मुखर है. इस विवाद के कारण भाजपा के चुनावी चेहरे का मुद्दा चर्चा से फिलहाल बाहर चला गया है. हालांकि संघ ने अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट के हवाले से भाजपा नेताओं को फिर से चेताया है कि अगर पार्टी ने कोई प्रभावशाली नेता (यूपी निवासी) उत्तर प्रदेश के चुनाव में सामने नहीं रखा तो पार्टी को बिहार की तरह विपरीत परिणाम देखने पड़ सकते हैं.

बहरहाल, समाजवादी पार्टी में संभावित विभाजन को रोकने के लिए मुलायम को कमान सौंपने की कवायद में राज्यसभा सदस्य अमर सिंह भी जीजान से जुटे हैं. अमर सिंह की रणनीति है कि उनकी उपेक्षा करने वाले अखिलेश यादव और अखिलेश का साथ देने वाले धुर अमर विरोधी प्रो. रामगोपाल को किनारे लगा कर वे अपनी खोई हुई ताकत फिर से हासिल कर लें. लोकसभा चुनाव के बाद से ही समाजवादी पार्टी में यह बात उठने लगी थी कि मुलायम सिंह अखिलेश को हटा कर सत्ता पर खुद काबिज हों और 2017 का चुनाव मुलायम के नेतृत्व में ही लड़ा जाए. लोकसभा चुनाव में बुरी हार के बाद मुलायम कई बार सार्वजनिक मंचों से यह बोल गए हैं कि अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते हुए पार्टी को ऐसी हार देखनी पड़ी. अखिलेश सरकार के खिलाफ भी मुलायम की बोली क्रमशः तल्ख होती गई. पंचायत चुनावों में बनाई रणनीतियों के कारण सपा की भारी जीत के बाद ही शिवपाल का प्रदेश अध्यक्ष बनना तय हो गया था. मुलायम को बस सटीक वक्त का इंतजार था. आने वाले विधानसभा चुनाव में मुलायम अकेले अखिलेश के बूते सारा कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे. अखिलेश की युवा टीम सांगठनिक नतीजे देने में कामयाब साबित नहीं हुई, इसे लेकर भी राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के मन में नाराजगी थी. आपको याद ही होगा कि कुछ अर्सा पहले बेनी प्रसाद वर्मा ने भी कहा था कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से सत्ता लेकर मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री की कमान अपने हाथ में ले लेनी चाहिए. बेनी ने कहा था कि प्रदेश की कानून व्यवस्था बहुत खराब है, यूपी के मंत्री और विधायक विकास कार्य कराने में कमीशन ले रहे हैं. ऐसे में यदि सपा को अपनी सरकार बचानी है तो इन सब पर काबू पाने की जरूरत है. बेनी ने कहा था कि हमें यूपी में भाजपा को आने से रोकना है इसलिए हम चाहते हैं कि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव प्रदेश की बदतर कानून व्यवस्था, गुंडागर्दी, रिश्‍वत व कमीशनखोरी व बेलगाम अफसरों पर शिकंजा कसें. वे खुद प्रदेश की सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले लें, इसमें हम उनका पूरा साथ देंगे. जिस समय बेनी ने यह बातें कही थी, उस समय वे कांग्रेस में थे. लेकिन इसके बाद वे समाजवादी पार्टी में आ गए और राज्यसभा के सदस्य भी बना दिए गए. उस समय जो बेनी बोल रहे थे, बाद में शिवपाल भी वही बोलने लगे.

अखिलेश-शिवपाल विवाद पर सपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि मुलायम ने शिवपाल को आगे करके क्रमशः अखिलेश की पकड़ कमजोर की है. सरकार पर खुला प्रहार, मंत्रियों के काम-काज पर आपत्ति, कौमी एकता दल के विलय को लेकर नाटक, मंत्रियों की बर्खास्तगी फिर वापसी, अखिलेश समर्थकों का निष्कासन, वापसी, फिर निष्कासन, शिवपाल के इस्तीफे का प्रहसन और उस पर मुलायम का खुला ऐलान और आखिरकार अखिलेश का पार्टी अध्यक्ष पद से निष्कासन, यह सब नियोजित है. बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से धीरे-धीरे अखिलेश के हाथ से संगठन-शक्ति छीन ली गई. अब उनसे सत्ता हथियाने की तैयारी है. उक्त नेता ने कहा कि युवाओं का अखिलेश को समर्थन मिलने के दावे को कमजोर करने के इरादे से मुलायम ने अब युवाओं की उत्पादकता पर प्रहार करना शुरू कर दिया है. पिछले दिनों लोहिया पुण्यतिथि के अवसर पर भी मुलायम ने कहा कि युवा सिर्फ नारे लगाते हैं, उनमें कोई उत्पादकता नहीं. केवल नारे लगाने से राजनीति थोड़े ही चलती है. अखिलेश को कमजोर करने के अभियान को जारी रखते हुए शिवपाल यादव ने पिछले दिनों सपा के शाश्‍वत समर्थक व अखिलेश को मानने वाले बुजुर्ग नेता एसआरएस यादव को पार्टी के सचिव पद से बेदखल कर दिया. सपाई कहते हैं कि अखिलेश यादव की अध्यक्षता वाले जनेश्‍वर मिश्र ट्रस्ट का सदस्य बनाए जाने के कारण एसआरएस यादव को सचिव पद से हटा दिया गया. अब उनकी जगह वीरेंद्र सिंह को सचिव बनाया गया है. प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव ने अपनी करीबी सुरभि शुक्ला को भी पार्टी में सचिव बना दिया है. सुरभि शुक्ला आवास विकास परिषद में उपाध्यक्ष हैं और सियासी कृपा से उनके पति डॉ. संदीप शुक्ला भी राजकीय निर्माण निगम के सलाहकार हैं. अखिलेश के करीबी गोपाल अग्रवाल को भी समाजवादी व्यापार सभा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर सुरेंद्र मोहन अग्रवाल को अध्यक्ष बना दिया गया है. इस तरह शिवपाल ने सपा के प्रदेश संगठन पर अपना कब्जा जमा लिया है. इसके पहले उन्होंने 81 सदस्यीय प्रदेश कार्यकारिणी का गठन कर अखिलेश को बाहर कर दिया और उनके समर्थकों को विभिन्न पदों से बेदखल कर दिया. चुनाव में टिकट बंटवारे के अधिकार से वंचित कर अखिलेश को पूर्ण रूप से हाशिए पर रख देने की तैयारी पर अब काम चल रहा है.

अखिलेश के पुरजोर विरोध के बावजूद माफिया सरगना मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय करा ही दिया गया. अब सार्वजनिक बयान भी आने लगे हैं कि मुख्तार अंसारी सपा के सिम्बल पर चुनाव लड़ेंगे. शिवपाल ने कुख्यात अमरमणि त्रिपाठी के बेटे हत्यारोपी अमनमणि त्रिपाठी और एनआरएचएम घोटाले के आरोपी कांग्रेस विधायक मुकेश श्रीवास्तव को विधानसभा चुनाव का टिकट देकर अपनी प्राथमिकता दिखाई. दागी और अपराधियों को टिकट दिए जाने से कुपित अखिलेश यहां तक बोल गए कि उन्होंने अपने सारे अधिकार छोड़ दिए हैं, लेकिन उनके हाथ में तुरुप का पत्ता है. कौमी एकता दल के विलय से लेकर दागी लोगों को टिकट दिए जाने या पार्टी पदाधिकारियों को बदले जाने के सभी निर्णयों के पीछे मुलायम सिंह यादव का आदेश है. शिवपाल कई बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि कौमी एकता दल के विलय से लेकर अन्य फैसले तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव से सीधे निर्देश प्राप्त कर लिए जा रहे हैं.

अब आमना-सामना होने से भी बचने लगे मुलायम-अखिलेश

समाजवादी पार्टी का मनमुटाव इतना बढ़ गया है कि अब अखिलेश या मुलायम सार्वजनिक मंचों पर आमना-सामना होने से भी बचने लगे हैं. नए सचिवालय से उद्घाटन से लेकर जयप्रकाश नारायण संग्रहालय के उद्घाटन के मौके पर अखिलेश मुलायम से बचते दिखे. पिछले दिनों लोहिया पुण्यतिथि के अवसर पर तो अखिलेश बिना भाषण दिए ही चले गए. अखिलेश के जाने के बाद मुलायम आए. अखिलेश यादव सुबह साढ़े दस बजे लोहिया पार्क पहुंचे और लोहिया की मूर्ति पर माल्यार्पण कर चले गए. यह पहला मौका था जब लोहिया की पुण्यतिथि पर मुख्यमंत्री का भाषण नहीं हुआ. इसी तरह सपा के दो समानान्तर मुख्यालय, अब किसी से छिपी बात नहीं रही. विक्रमादित्य मार्ग स्थित समाजवादी पार्टी का मुख्यालय अब शिवपाल और उनके समर्थकों के कब्जे में है और बंदरिया बाग स्थित जनेश्‍वर मिश्र ट्रस्ट अखिलेश और उनके समर्थकों का मुख्यालय बन गया है.

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