अंबेडकर आजीवन हिंदू धर्म और जातिवाद से जूझते रहे. उनके वृहद् ज्ञान का अंदाज़ा भगवद्गीता पर उनकी आलोचना और जातीय व्यवस्था पर उनके तीखे विश्लेषण से लगाया जा सकता है. दरअसल, अंबेडकर जिस तरह का बदलाव चाहते थे, वह नहीं हो सका. कांग्रेस के नेता जाति व्यवस्था में किसी तरह की छेड़छाड़ के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े हो जाते थे. 

ambedउन दिनों मैं माटुंगा के रुईया कॉलेज में पढ़ने वाला एक किशोर था. दिसंबर महीने के एक दिन मैंने एक लंबी कतार देखी, जो कहीं दूर से शुरू हुई थी और हमारे कॉलेज के सामने से मुड़कर दोहरी हो गई थी. कतार में खड़े लोग शांत थे, लेकिन उनके चेहरे से उदासी सा़फ झलक रही थी. देखने में वे ग़रीब थे, लेकिन उन्होंने अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से अच्छे कपड़े पहन रखे थे. हालांकि, कई लोगों के कपड़े पुराने और फटे हुए थे. उनके वहां एकत्र होने की वजह हमें जल्द ही मालूम हो गई. मैंने लोगों से पूछा, इतनी लंबी कतार क्यों? जवाब मिला कि वे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को श्रद्धाजंलि देने के लिए खड़े हैं. अंबेडकर का कुछ समय पहले स्वर्गवास हुआ था. इस दृश्य ने मेरे राजनीतिक विचार को बदल दिया. दरअसल मैं डॉ. अंबेडकर से वाकिफ था. मुझे मालूम था कि उन्होंने सिद्धार्थ कॉलेज की स्थपना की थी. मुझे यह भी मालूम था कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की शुरुआत की थी, लेकिन जो बात मेरी समझ में नहीं रही थी, वह थी दबे-कुचले लोगों में उनके प्रति समर्थन की गहराई. उस समय दलित शब्द आम बोलचाल की भाषा में अपनी जड़ें उतनी मजबूती से स्थापित नहीं कर पाया था, जितनी वर्तमान में कर सका है. ऊंची जाति के एक मध्यमवर्गीय परिवार के बालक होने के नाते मेरी परवरिश किसी भी सवर्ण हिंदू बच्चे की तरह हुई थी, जो अछूतों के शोषण की कौन कहे, उनके वजूद से भी बे़खबर था. वे हमारे लिए अदृश्य थे. लेकिन, उस दिन मैं अपने जीवन में पहली बार उस शख्स की शक्ति देख रहा था, जिसने असंख्य लोगों के दिलों में अपने प्रति श्रद्धा और भक्ति की भावना पैदा कर ली थी.
यह 59 साल पहले की बात है. उस समय से लेकर अब तक देश में बहुत कुछ बदल चुका है. कुछ लोग यह तर्क देंगे कि कांशी राम ने बाबा साहेब के समर्थकों के बड़े समूह को एक राजनीतिक शक्ति में बदल दिया. आज विभिन्न राजनीतिक दल अंबेडकर पर अपना दावा इसलिए पेश कर रहे हैं, क्योंकि दलित एक वोट ब्लॉक के तौर पर सशक्त हो चुके हैं. भाजपा/संघ द्वारा बाबा साहेब पर किए गए दावे को लेकर कांग्रेस हंगामा कर रही है, लेकिन वह यह भूल गई है कि गांधी जी ने अंबेडकर की महान उपलब्धियों को गोलमेज कांफ्रेंस में कितना नुक़सान पहुंचाया था. कांग्रेस ने गोलमेज कांफ्रेंस में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया था, जबकि देश के बाकी सभी दावेदार, जिनमें सभी धर्म, अछूतों समेत सभी जातियां और राजा-महाराजा शामिल थे. अंबेडकर ने अपने लोगों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल (इलेक्टोरेट्‌स) की ज़ोरदार तरीके से मांग उठाई, लेकिन स्वर्ण हिंदू निचली जाति के लोगों को ऐसी कोई रियायत देने लिए तैयार नहीं थे. गांधी जी आमरण अनशन पर चले गए, जिसे बाबा साहेब ने ख़राब क़दम करार दिया था, लेकिन अंबेडकर को हार माननी पड़ी थी. अंबेडकर और कांग्रेस के नेताओं के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें एक सेक्युलर पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सवर्णों की ओर से एक पक्ष थी. इस तरह अछूतों ने अपने जीवन में सुधार लाने का एक मौक़ा खो दिया. दलितों को उस समय सीटों के आरक्षण का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उसका मतलब यह था कि सवर्णों को अछूत उम्मीदवारों के लिए मतदान करना पड़ता. ऐसे में, वही लोग चुनाव जीत सकते थे, जो वर्ण व्यवस्था को चुनौती नहीं देते थे.
अंबेडकर आजीवन हिंदू धर्म और जातिवाद से जूझते रहे. उनके वृहद् ज्ञान का अंदाज़ा भगवद्गीता पर उनकी आलोचना और जातीय व्यवस्था पर उनके तीखे विश्लेषण से लगाया जा सकता है. दरअसल, अंबेडकर जिस तरह का बदलाव चाहते थे, वह नहीं हो सका. कांग्रेस के नेता जाति व्यवस्था में किसी तरह की छेड़छाड़ के विरुद्ध दृढ़ता से खड़े हो जाते थे. उनके पास बाबू जगजीवन राम जैसे अपने पसंदीदा अछूतों के लिए बचे-खुचे रोटी के टुकड़े थे. यहां तक कि उन्हें भी भेदभाव का सामना करना पड़ा. जनता पार्टी के दिनों में जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने के जयप्रकाश नारायण के विचार को चरण सिंह ने रद्द कर दिया. इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि अछूत के तौर पर आप कितनी भी ऊंचाई तय कर लें, आप ऊंची जाति के लोगों की ओर से हमेशा अपमान का बिंदु बने रहेंगे. अब यह देखिए कि ग़रीब बाबा साहेब को भाजपा/संघ एक महान हिंदू बना रहे हैं. दरअसल, जब मामला वोट हासिल करने का हो, तो पाखंड की कोई सीमा नहीं रहती. जाति व्यवस्था के विरुद्ध उनके परिवर्तनकारी संघर्ष (यह ऐसी लड़ाई थी, जिसे कम्युनिस्ट मूवमेंट का भी समर्थन नहीं था) पर बात करने के बजाय ये लोग अंबेडकर को संविधान सभा की संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के निष्पक्ष पद पर बैठा रहे हैं. संविधान-पिता के रूप में इस बात की बहुत कम संभावना है कि उन्हें हिंदू धर्म को चुनौती देने वाले के तौर पर याद किया जाए, जो सभी बड़े राजनीतिक दलों के लिए सुविधाजनक स्थिति है.
अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद को नकार दिया था. उन्होंने ब्राह्मणवाद पर एक हज़ार साल पहले के बौद्ध धर्म की क्रांतिकारी चुनौती को अपना विषय बनाया. इतिहास के इस अध्याय को भारतीयों की स्मृति से बाहर कर दिया गया था. दरअसल, बाबा साहेब जो थे, उन्हें उसी रूप में याद किया जाना चाहिए. वह ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के कट्टर आलोचक थे. उन्हें वोट बैंक के वाहक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. और, अपने जीवन में एक लंबे संघर्ष के बाद अब उनकी आत्मा को शांति मिल जानी चाहिए.

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