146464बात चाहे हरियाणा की हो या महाराष्ट्र की, दोनों ही राज्यों के क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरण ध्वस्त हो गए. भाजपा हरियाणा में इस चुनाव से पहले तक तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी थी, महाराष्ट्र में भी यह शिवसेना की कनिष्ठ सहयोगी थी, लेकिन इस विधानसभा चुनाव के परिणामों ने तमाम क्षेत्रीय दलों समेत कांग्रेस और एनसीपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के तमाम राजनीतिक समीकरणों को धता बता दिया. 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में भाजपा ने 47 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया. हरियाणा में वह पहली बार सत्ता में आई. ग़ौरतलब है कि 2009 में यहां भाजपा को महज 4 सीटें मिली थीं. 4 से 47 का यह सफर वाकई ऐतिहासिक माना जाएगा. चुनाव से पहले तक जोरदार रैली करने वाली इनेलो और उसके मुखिया ओम प्रकाश चौटाला की लहर देखी जा रही थी. यह उम्मीद जताई जा रही थी कि इनेलो सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है, लेकिन इनेलो के हिस्से में महज 19 सीटें आईं और इस तरह वह दूसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई.
दूसरी तरफ़ दस सालों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस यहां तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई. उसके हिस्से में महज 15 सीटें आईं. हरियाणा में जीत के बाद मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया. खट्टर ग़ैर जाट नेता हैं. मई में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को महज 31 फ़ीसद वोट मिले थे. इस हिसाब से देखें, तो भाजपा के वोट प्रतिशत में हरियाणा में भारी इजाफ़ा हुआ है. हरियाणा में भाजपा को 33.2 फ़ीसद मत मिले, जबकि कांग्रेस को मात्र 20.6 फीसद. भाजपा की इस जीत के पीछे मोदी लहर का असर भी माना जा रहा है. नरेंद्र मोदी ने हरियाणा में 11 रैलियां की थीं. दूसरी तरफ़, दस सालों से काबिज कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर थी. लोगों में ज़मीन घोटालों और कांग्रेस के भ्रष्टाचार को लेकर प्रति खासा गुस्सा भी था.

महाराष्ट्र का चुनाव और भी कई मायनों में खास रहा. महाराष्ट्र में इस बार महिलाओं की भूमिका जबरदस्त रही. तक़रीबन सभी दलों की ओर से ठीकठाक संख्या में महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में थीं. 16 महिलाओं ने इस विधानसभा चुनाव में जीत भी दर्ज की. भाजपा से 10, कांग्रेस से पांच और एनसीपी से एक महिला उम्मीदवार विधायक चुनी गई हैं. भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में न स़िर्फ अपनी सीटों में तीन गुना वृद्धि की, बल्कि उसने अपने वोट प्रतिशत में भी दो गुना वृद्धि की. भाजपा ने महाराष्ट्र के सभी क्षेत्रों में जीत दर्ज की है. वह चाहे शिवसेना का गढ़ बन चुके कोंकण का क्षेत्र हो या फिर कांग्रेस का गढ़ रहा विदर्भ.

महाराष्ट्र में भाजपा भले ही अकेले दम पर बहुमत नहीं ला सकी, लेकिन अकेले दम पर वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी ज़रूर बन गई. शिवसेना से अलग होकर अकेले दम पर चुनाव लड़ने का उसका फैसला अंतत: सही साबित हुआ. 123 सीटों के साथ भाजपा ने यहां पहली बार सौ का आंकड़ा पार कर लिया. इससे पहले तक वह शिवसेना की कनिष्ठ सहयोगी बनकर ही चुनाव लड़ती रही थी. विदर्भ में उसे सबसे अधिक फ़ायदा मिला. विदर्भ की 62 में से 44 सीटें भाजपा के खाते में गईं. 2009 के चुनाव में भाजपा को वहां स़िर्फ 19 सीटें मिली थीं. विदर्भ में भाजपा को बड़ी संख्या में सीट मिलने के पीछे दो कारण थे. एक तो यह कि भाजपा के संभावित मुख्यमंत्रियों में से नितिन गडकरी और देवेंद्र फणनवीस विदर्भ क्षेत्र से ही आते हैं. मराठवाड़ा की 46 में से 15 सीटें भाजपा को मिलीं. कुल मिलाकर सबसे अधिक नुक़सान कांग्रेस और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को उठाना पड़ा.
महाराष्ट्र का चुनाव और भी कई मायनों में खास रहा. महाराष्ट्र में इस बार महिलाओं की भूमिका जबरदस्त रही. तक़रीबन सभी दलों की ओर से ठीकठाक संख्या में महिला उम्मीदवार चुनावी मैदान में थीं. 16 महिलाओं ने इस विधानसभा चुनाव में जीत भी दर्ज की. भाजपा से 10, कांग्रेस से पांच और एनसीपी से एक महिला उम्मीदवार विधायक चुनी गई हैं. भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में न स़िर्फ अपनी सीटों में तीन गुना वृद्धि की, बल्कि उसने अपने वोट प्रतिशत में भी दो गुना वृद्धि की. भाजपा ने महाराष्ट्र के सभी क्षेत्रों में जीत दर्ज की है. वह चाहे शिवसेना का गढ़ बन चुके कोंकण का क्षेत्र हो या फिर कांग्रेस का गढ़ रहा विदर्भ. मुंबई, ठाणे और कोंकण शिवसेना के मजबूत क्षेत्र रहे हैं. यहां की 75 सीटों में से भाजपा को 25 सीटें मिलीं, जबकि पिछले चुनाव में भाजपा के खाते में स़िर्फ दस सीटें आई थीं.
बहरहाल, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और लहर के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का प्रबंधन कौशल भी इस चुनाव में खूब चला. अमित शाह का इस जीत से आत्मविश्‍वास ज़रूर बढ़ा है. वैसे ये चुनाव इस बात को लेकर भी खास रहे कि क्षेत्रीय राजनीति करने वाले दलों को करारा जवाब मिला है. इनेलो हो या मनसे या फिर शिवसेना, इन सबको जनता ने यह सबक दिया है कि अब राजनीति के नियम बदल रहे हैं. अब सौदेबाजी की राजनीति का वक्त नहीं रहा. राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय भावना से ऊपर उठकर भी सोचना होगा. मनसे प्रमुख राज ठाकरे के अड़ियल रवैये और स़िर्फ मराठी मानुष की बात करने वाले दलों को मराठी मानुषों ने ही सबक सिखा दिया है कि स़िर्फ मराठी अस्मिता या मराठी मानुष की बात करने से वोट नहीं मिलेगा. जाहिर है, अब नए राजनीतिक युग में क्षेत्रीय दलों को भी राष्ट्रीय नज़रिया अपनाने की ज़रूरत होगी. यह समझने की ज़रूरत होगी कि जनता चाहे हरियाणा की हो या महाराष्ट्र की, उसकी राजनीतिक समझ कम से कम क्षेत्रीय संकीर्णता से ऊपर उठ चुकी है. अब उसके लिए राष्ट्र पहले, राज्य बाद में है.

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