दो राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद इन दोनों सहयोगी दलों को भी लगने लगा है कि साथ लड़ने में ही भलाई है. लोेजपा ने लोकसभा का चुनाव सात सीटों पर लड़ा था. इस लिहाज से 42 सीटों पर उसका स्वाभाविक दावा बनता है. इसी तरह रालोसपा ने भी तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था. इस लिहाज से वह 18 सीटों की स्वाभाविक हक़दार है, लेकिन इन दोनों दलों के नेताओं का कहना है कि लोेेकसभा की बात दूसरी थी. उस समय हम लोग नरेंद्र मोदी को देख रहे थे, पर अब यहां प्रदेश की बात है, तो एक पर छह का फॉर्मूला कैसे चल सकता है?
महाराष्ट्र और हरियाणा में रिकॉर्ड तोड़ जीत के बाद बिहार भाजपा के हौसले एक बार फिर बुलंंद हो गए हैं. उपचुनाव में आशा के अनुकूल परिणाम न आने के कारण भाजपा एवं उसके सहयोगी दलों का मन कुछ छोटा हो गया था, पर अब जब नरेंद्र मोदी का जादू एक बार फिर दो राज्यों में चल गया है, भाजपा के नेता पुराने तेवर में आ गए हैं. यह वही तेवर है, जो बिहार भाजपा ने लोेकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत के बाद धारण किया था. फ़़र्क स़िर्फ इतना आया है कि इस बार तेवर पहलेे से ज़्यादा तीखा है. इसकी वजह भाजपाई यह बता रहे हैं कि लोेकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने अपने लिए वोट मांगा था, लेेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में मोदी के नाम पर वोट मांगा गया है. चुनाव नतीजों ने साफ़ कर दिया कि जनता का भरोसा नरेंद्र मोदी पर बरकरार है और आने वाले समय में अगर कुछ ज़्यादा उलट-फेर न हुआ, तो झारखंड एवं बिहार में नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट मांगकर सरकार बनाने का प्रयास किया जाएगा.
भाजपा के नेता एवं कार्यकर्ता उत्साहित हैं. उन्हें नरेंद्र मोदी की छवि और अमित शाह के चुनावी रण-कौशल पर पूरा भरोसा है. यही वजह है कि भाजपा ने अपने सहयोगी दलों लोेजपा एवं रालोसपा के मित्रों से यह कहना शुरू कर दिया है कि हम चुनाव तो साथ लड़ेंगे, लेकिन ज़्यादा नाज-नखरे नहीं उठाएंगे. सुशील मोदी ने मीडिया से कहा, हम आगामी चुनावों में अपने सहयोगी दलों को नहीं छोड़ेंगे. हम साथ थे और साथ ही रहेंगे. सुशील मोदी का यह सार्वजनिक तौर पर कहना इसलिए भी ज़रूरी था, क्योंकि राजनीतिक गलियारों में चर्चा आम होने लगी थी कि कहीं बिहार में भाजपा महाराष्ट्र एवं हरियाणा वाली रणनीति न अख्तियार कर ले. लोेजपा के प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस कहते हैं कि जितनी जल्दी हो, सीटों का बंटवारा हो जाना चाहिए, ताकि एक-एक सीट पर कड़ी मेहनत कर परिणाम हासिल किया जा सके. पारस कहते हैं कि सीटों के बंटवारे में कोई परेशानी नहीं आएगी. यही बात रालोेसपा के नेता भी अब कहने लगे हैं.
दो राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद इन दोनों सहयोगी दलों को भी लगने लगा है कि साथ लड़ने में ही भलाई है. लोेजपा ने लोकसभा का चुनाव सात सीटों पर लड़ा था. इस लिहाज से 42 सीटों पर उसका स्वाभाविक दावा बनता है. इसी तरह रालोसपा ने भी तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था. इस लिहाज से वह 18 सीटों की स्वाभाविक हक़दार है, लेकिन इन दोनों दलों के नेताओं का कहना है कि लोेेकसभा की बात दूसरी थी. उस समय हम लोग नरेंद्र मोदी को देख रहे थे, पर अब यहां प्रदेश की बात है, तो एक पर छह का फॉर्मूला कैसे चल सकता है? इसलिए लोेजपा कम से कम 60 और रालोेसपा 35 सीटों की मांग कर रही थी, लेेकिन महाराष्ट्र एवं हरियाणा के नतीजे आने के बाद इन दलों के तेवर कुछ ढीले हुए हैं. इन दलों के नेताओं का कहना है कि हम सम्मानजनक समझौता चाहते हैं. भाजपा बड़ी पार्टी है, इसलिए यह उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह किस फॉर्मूले के तहत सीटों का बंटवारा करती है.
जहां तक भाजपा खेेमे की बात है, तो उसे अभी जदयू के बागी विधायकों को भी टिकट देना है. भाजपा रालोेसपा एवं लोेजपा का भी साथ चाहती है, क्योंकि यह तय है कि महा-गठबंधन बन जाने के बाद मुकाबला काफी क़रीबी होने वाला है. ऐसे में हज़ार-पांच सौ वोट भी समीकरण बना और बिगाड़ सकते है. लेकिन, इसके साथ भाजपा यह भी चाहती है कि सीटें बर्बाद न की जाएं. महाराष्ट्र का उदाहरण सामने है, जहां सहयोगी दल के स़िर्फ एक नेता ही जीत पाए. इसलिए भाजपा चाहती है कि ज़मीनी हकीकत के आधार पर सीटों का बंटवारा हो और अगर किसी खास नेता को चुनाव लड़ाने का सवाल है, तो वह भाजपा के टिकट पर भी चुनाव लड़ सकता है, जिससे सहयोगी दलों पर ज़्यादा दबाव न बन पाए और तालमेल सही ढंग से हो जाए. भरोेसेमंद सूत्र बताते हैं कि भाजपा जल्द ही अपनी इन भावनाओं से सहयोगी दलों को अवगत करा देगी. आगे अब सहयोगी दलों पर है कि वे भाजपा के प्रस्ताव पर क्या क़दम उठाते हैं. लेकिन, इतना तय है कि भाजपा अब बहुत झुकने की ग़लती नहीं करने वाली है.
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