ambaniकांग्रेस ने राफेल विमान सौदे पर भाजपा को कठघरे में खड़ा तो कर दिया, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे मुद्दा बनाने की उसकी कोशिशें अब तक कारगर नहीं हो पाई हैं. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) में शामिल पार्टियों ने भी इसे अभियान की तरह नहीं लिया, बस औपचारिक बयानबाजियों और मांगों में ही वे कांग्रेस के साथ शामिल रहीं. दूसरे दल जो संप्रग में शामिल नहीं होते हुए भी कांग्रेस के साथ हैं, उनकी भी बोली कम निकली, चुप्पी अधिक छाई रही.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठबंधन बना कर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली समाजवादी पार्टी ने राफेल विमान सौदे के मसले पर ऐसा ही रुख रखा कि जैसे उनका इस सौदे से कोई लेना-देना नहीं और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सोनिया गांधी से गलबहियां लेने वाली बसपा नेता मायावती ऐसे चुप रहीं कि जैसे वे राफेल विमान सौदे के बारे में कुछ जानती ही नहीं. वामपंथी दलों के रवैये से भी ऐसा लगा कि यह तो कांग्रेस का मसला है, लिहाजा थोड़ा-बहुत बोल कर किनारे का रास्ता पकड़ लिया. राफेल सौदे पर संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की कांग्रेस की मांग इन्हीं वजहों से अपेक्षित मजबूती नहीं दिखा पाई. विपक्ष का यह बिखराव या भटकाव भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है. देश का मीडिया भी स्वस्थ-तटस्थ पर्यवेक्षक की भूमिका में नहीं है. कोई धुर-विरोध में है तो कोई धुर-समर्थन में. यही वजह है कि देश के सारे जरूरी मसले अधूरे छूट जा रहे हैं.

आप याद करें, अभी हाल ही लखनऊ में हुए स्मार्ट-सिटी महोत्सव और इन्वेस्टर्स-समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बात बार-बार कही कि उद्योगपतियों के साथ उठने-बैठने में हर्ज क्या है. मुश्किल से दो महीने पहले लखनऊ के सार्वजनिक मंच से मोदी ने जो सफाई पेश की, उसपर आप फिर से ध्यान देते चलें. मोदी ने कहा था, ‘अगर नीयत साफ हो तो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने से दाग नहीं लगता. हम उन लोगों में से नहीं हैं, जो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने या फोटो खिंचवाने से डरते हैं. बापू को बिड़ला के यहां रहने में कभी संकोच नहीं हुआ, क्योंकि उनकी नीयत साफ थी. जिस तरह देश को बनाने में किसान, मजदूर, कारीगर, सरकारी कर्मचारी, बैंकर की मेहनत होती है, वैसे ही देश को बनाने में उद्योगपतियों की भी मेहनत है. हम उन्हें चोर-लुटेरा कहेंगे, उन्हें अपमानित करेंगे? यह कौन सा तरीका है? कुछ लोग हमारे पीछे पड़े हैं. जो लोग मेरे खिलाफ मामले ढूंढ़ रहे हैं, उनके खिलाफ सबसे ज्यादा मामले निकलेंगे. मेरे खाते में तो बस चार साल हैं, जबकि उन के खाते में 70 साल हैं.’

फ्रांस के प्रमुख अखबार ‘फ्रांस-24’ ने जो खबर छापी है, उसे देखें तो आपको जुलाई महीने में मोदी द्वारा दी जाने वाली सफाई के निहित अर्थ समझ में आएंगे. ‘फ्रांस-24’ अखबार ने लिखा है कि ‘राफेल करार’ के दरम्यान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उद्योगपति अनिल अम्बानी भी मौजूद थे. इस फ्रेंच अखबार ने भारत सरकार के रक्षा प्रतिष्ठान हिंदुस्तान एयरनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को करार से अलग कर उसमें अनिल अम्बानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को शामिल किए जाने पर गंभीर सवाल उठाए हैं. ‘फ्रांस-24’ लिखता है कि ‘राफेल करार’ में हुआ यह अहम बदलाव हैरान करने वाला है. भारत में हिंदुस्तान एयरनॉटिक्स लिमिटेड के पास सैन्य विमानों के निर्माण का पुराना अनुभव है. लेकिन ‘दसॉल्ट’ ने एचएएल से करार तोड़ कर सैन्य निर्माण क्षेत्र में गैर-अनुभवी निजी कंपनी रिलायंस डिफेंस से करार कर लिया. ‘फ्रांस-24’ अखबार ने यह भी दावा किया है कि राफेल विमान बनाने वाली कंपनी ‘दसॉल्ट’ ने एचएएल को छोड़ कर जिस निजी कंपनी को तरजीह दी, वह कंपनी ‘राफेल करार’ से महज 15 दिन पहले ही स्थापित की गई थी. कंपनी की स्थापना की तारीख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रांस दौरे से महज 13 दिन पहले की है.

फ्रांसीसी अखबार ‘फ्रांस-24’ जो आज लिख रहा है, ‘चौथी दुनिया’ उसे 2016 में लिख चुका है. ‘चौथी दुनिया’ के 21 से 27 नवंबर 2016 के अंक में राफेल-करार पर संदेह जताते हुए लिखा गया था कि नरेंद्र मोदी की सरकार राफेल विमान को उसकी तय कीमत से दोगुना दाम देकर खरीद रही है. इस करार में अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को हिस्सेदार बना दिया गया है, जिससे रिलायंस कंपनी हज़ारों करोड़ का मुनाफा कमाएगी. राफेल-करार में घपलेबाजी की आशंका को लेकर सबसे पहले भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने आवाज़ उठाई थी. स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव और वकील प्रशांत भूषण ने भी राफेल-करार पर सवाल उठाए. उनका आरोप है कि जिस विदेशी कंपनी को काली सूची में डालना चाहिए था, उसी के साथ केंद्र सरकार ने राफेल विमान का समझौता किया.

उल्लेखनीय है कि पहली बार जब फ्रांस के साथ राफेल लड़ाकू विमान की खरीद का करार हुआ था, तब 126 विमानों को 10.2 बिलियन डॉलर में खरीदना तय हुआ था. इस हिसाब से प्रत्येक विमान की कीमत करीब 81 मिलियन डॉलर थी. पुरानी डील में टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की भी शर्त शामिल थी. मोदी सरकार ने राफेल विमान खरीदने के लिए जो करार किया, उसमें सिर्फ 36 विमानों को 8.74 बिलियन डॉलर में खरीदा जाना तय हुआ है. यानि, एक विमान की कीमत 243 मिलियन डॉलर होगी, वह भी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के बगैर.

राफेल विमानों की खरीद की प्रक्रिया कांग्रेस सरकार ने 2010 में शुरू की थी. 2012 से लेकर 2015 तक इस करार पर बातचीत का दौर चलता रहा. 126 विमानों की खरीद पर बात चल रही थी और शर्त यह थी कि 18 विमान भारत खरीदेगा और 108 विमान भारत सरकार की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड उसे भारत में ‘असेम्बल’ करेगी. विमान बनाने के लिए भारत को टेक्नोलॉजी भी मिलने वाली थी. अप्रैल 2015 में मोदी ने पेरिस में घोषणा की कि भारत सरकार 126 विमानों के सौदे को रद्द कर रही है. इसके बदले 36 विमान फ्रांस से सीधे खरीदे जाएंगे और एक भी राफेल विमान भारत में नहीं बनेगा.

यह बात रेखांकित करने वाली है कि राफेल विमान बनाने वाली कंपनी ‘दसॉल्ट’ बंद होने के कगार पर थी. इस विमान को खरीदने वाले ख़रीदार नहीं मिल रहे थे, क्योंकि इतनी कीमत पर दुनिया के कई अन्य बेहतर लड़ाकू विमान उपलब्ध हैं. संदेह है कि ‘दसॉल्ट’ को बंद होने से बचाने के लिए भारत सरकार ने विमान खरीदने का करार किया. यह भी तथ्य है कि भारत के साथ डील होते ही ‘दसॉल्ट’ कंपनी के शेयर आसमान में उछलने लगे थे. रक्षा खरीद मामलों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड और ‘दसॉल्ट’ कंपनी का ज्वाइंट-वेंचर, ‘दसॉल्ट’ को बंद होने से बचाने और रिलायंस को फायदा पहुंचाने के इरादे से हुआ. ध्यान देने की बात है कि 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने से पहले सरकार के पास उससे सस्ता और सक्षम लड़ाकू विमान का विकल्प भी था. वह विकल्प ‘यूरोफाइटर टाइफून’ लड़ाकू विमान का था, जिसे 453 करोड़ रुपए में खरीदा जा सकता था.

इसके अलावा ब्रिटेन, इटली और जर्मनी की सरकारों ने यह वादा किया था कि वे विमान के साथ पूरी टेक्नोलॉजी भी देंगे. वर्ष 2012 में राफेल और यूरोफाइटर दोनों लड़ाकू विमानों को भारतीय वायुसेना की जरूरतों के अनुकूल पाया गया था. तत्कालीन यूपीए सरकार ने फ्रांस के साथ राफेल विमान खरीद को लेकर जो करार किया था, उसमें देरी हो रही थी. मोदी सरकार ने आते ही उसे रद्द कर दिया. जब ब्रिटेन, जर्मनी और इटली को पता चला तो उन्होंने 20 प्रतिशत कम दाम पर लड़ाकू विमान देने की पेशकश की, मगर सरकार ने उसकी अनदेखी कर दी. सरकार के पास उन देशों का ऑफर जुलाई 2014 से लेकर 2015 के आखिर तक पड़ा रहा.

संदेह की इन्हीं वजहों के कारण कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दल यह मांग कर रहे हैं कि मोदी सरकार राफेल-करार की जानकारियों को सार्वजनिक करे, लेकिन केंद्र सरकार रक्षा-गोपनीयता का आधार बना कर इससे बच रही है. कांग्रेस राफेल-करार की जानकारियां तो मांग रही है, लेकिन जब केंद्र में खुद कांग्रेस की सरकार थी, तब कांग्रेस सरकार ने रक्षा सौदों की जानकारी सार्वजनिक करने से इन्कार कर दिया था. मोदी सरकार ने कहा भी कि वह 2008 में भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षरित समझौते के तहत गोपनीय प्रावधानों का पालन कर रही है.

रक्षा मंत्रालय ने कहा राफेल विमान के पुर्जे-पुर्जे की कीमत बताना, विमान के निर्माण और ‘कस्टमाइजेशन एंड वेपन-सिस्टम’ के बारे में सूचनाएं देना देश की सैन्य तैयारियों और सुरक्षा संवेदनशीलता के मद्देनजर उचित नहीं है. यूपीए सरकार ने भी अपने कार्यकाल में यही गोपनीयता बरती थी. राज्यसभा के दस्तावेज बताते हैं कि गोपनीयता का मोदी सरकार का स्टैंड कोई पहली बार नहीं हुआ है. पूर्व में कांग्रेस की सरकार भी रक्षा सौदों की जानकारी सार्वजनिक करने से इन्कार करती रही है. कांग्रेस सरकार में रक्षा मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी और एके एंटनी ने क्रमश: वर्ष 2005 और 2008 में रक्षा सौदों से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक करने से इन्कार कर दिया था.

2005 में प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे, तब कांग्रेस के सांसद जनार्दन पुजारी ने रक्षा खरीद से जुड़ी सूचनाएं मांगी थीं, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर प्रणब मुखर्जी ने मांग ठुकरा दी थी. तीन वर्ष बाद 2008 में जब एके एंटनी रक्षा मंत्री बने, तब सीपीएम के दो सांसदों प्रसंता चटर्जी और मोहम्मद आमीन ने बड़े रक्षा सौदों के सप्लायर्स देश और उनसे हुई खरीद की जानकारी मांगी थी, लेकिन एंटनी ने सप्लायर्स देशों का नाम बताने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बताया था. एंटनी ने इससे अधिक जानकारी देने से साफ मना कर दिया था. वर्ष 2007 में सीताराम येचुरी ने भी इजराइल से मिसाइल खरीद की जानकारी मांगी थी, तो उन्हें भी जवाब में इन्कार ही मिला था. तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने कहा था कि इस खरीद का ब्यौरा सदन में रखना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं है. उसी कांग्रेस पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल-करार का विवरण सार्वजनिक करने की लगातार मांग कर रहे हैं.

राफेल लड़ाकू विमान को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच जमकर तकरार हो रही है. इस तकरार में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी भी शामिल होकर राफेल-करार की जानकारियां सार्वजनिक करने की मांग करने लगे हैं. राफेल विमान खरीदने की डील 23 सितम्बर 2016 को राजधानी दिल्ली में फ्रांस के रक्षा मंत्री ज्यां ईव द्रियां और भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर के हस्ताक्षर से हुई थी.

डील के मुताबिक, भारत सरकार 36 राफेल फाइटर जेट विमान खरीदेगी. पहला विमान सितम्बर 2019 तक मिलेगा. बाकी के विमान बीच-बीच में 2022 तक मिलेंगे. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का आरोप है कि मोदी सरकार ने फ्रांस की कंपनी से 58,000 करोड़ (7.8 अरब यूरो) में 36 राफेल विमान खरीदने का समझौता किया. जबकि वर्ष 2012 में यूपीए सरकार ने यह विमान तीन गुना कम कीमत पर खरीदने का करार किया था. यूपीए सरकार ने यह सौदा 10.2 अरब डॉलर में तय किया था, जबकि मोदी सरकार इसी सौदे के लिए 30.45 अरब डॉलर दे रही है.

राहुल कहते हैं कि मोदी सरकार ने रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फायदा पहुंचाने के लिए यह करार किया. राहुल के इन आरोपों के जवाब में भाजपा का कहना है कि अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआइपी हेलीकॉप्टर घोटाले में पूछताछ के डर से कांग्रेस लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है. फ्रांस ने कांग्रेस के आरोपों को खारिज किया है. फ्रांस का कहना है कि पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता का पालन किया गया है. संसद के मानसून सत्र में भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि संप्रग सरकार के समय राफेल लड़ाकू विमान के लिए जो सौदा किया गया था उस वक्त प्रत्येक विमान की कीमत 520 करोड़ रुपए थी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के फ्रांस जाने पर उसी विमान की कीमत 1600 करोड़ रुपए प्रति विमान हो गई. राहुल ने यह दावा किया कि उनकी मुलाकात फ्रांस के राष्ट्रपति से हुई थी. बकौल राहुल, फ्रांस के राष्ट्रपति ने उनसे कहा कि राफेल विमान सौदे को लेकर भारत और फ्रांस के बीच गोपनीयता की कोई शर्त नहीं है.

राहुल गांधी के इस बयान के बरक्स ‘इंडिया टुडे’ में प्रकाशित और समाचार चैनल पर प्रसारित फ्रांस के राष्ट्रपति का इंटरव्यू उल्लेखनीय है. उस इंटरव्यू में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों साफ-साफ कहते हैं कि दोनों देशों के बीच जब किसी मामले पर बेहद ‘सेंसिटिव बिजनेस इंटरेस्ट’ संलग्न हो तो इसका खुलासा करना उचित नहीं रहता. इस डील में ‘कमर्शियल एग्रीमेंट’ के तहत प्रतियोगी कंपनियों को डील की बारीकियों की जानकारी नहीं होनी चाहिए. लिहाजा इन पर गोपनीयता बरतना जायज है. डील की किन बातों को विपक्षी दलों के सामनेया संसद में लाना है, यह वहां की सरकार तय करे. जहां तक करार का सवाल है तो डील के तहत राफेल के कई कलपुर्जे अब भारत में ही बनेंगे. राफेल विमान सुरक्षा श्रेणी के बेहद उन्नत विमान हैं. मौजूदा वक्त में इसका कोई मुकाबला नहीं है. फ्रांस के नजरिए से देखें तो यह सौदा हमारे लिए भी बहुत खास है.

मोदी ने अम्बानी-हित के लिए देश-हित को तहस-नहस कर डाला

वर्ष 2001 के बाद से भारतीय वायुसेना को लगभग 200 मध्यम मल्टीरोल लड़ाकू (एसएमआरसीए) विमानों की सख्त आवश्यकता थी. तत्कालीन यूपीए सरकार ने वर्ष 2007 में भारतीय वायुसेना की इस मांग को मंजूरी दे दी और विभिन्न कंपनियो से टेंडर आमंत्रित करने की प्रक्रिया शुरू हुई. भारतीय वायुसेना ने विभिन्न मध्यम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट निर्माताओं के विभिन्न उत्पादों का बड़े पैमाने में परीक्षण किया. इसमें अमेरिकी एफ-16 और एफ-18, रूस के मिग-35, स्वीडेन के साब ग्रिपन सहित यूरोफाइटर टाइफुन और फ्रांसीसी ‘दसॉल्ट’ एविएशन कंपनी के राफेल विमानों का परीक्षण किया गया. अंतिम फैसला लेने से पहले चार वर्ष तक अलग-अलग जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में विमानों की विश्वसनीयता और संचालन सम्बन्धी क्षमता और गुणवत्ता जांचने के लिए टेस्ट किया गया.

इन परीक्षणों के बाद यूरोफाइटर और राफेल को आखिरी तौर पर चुना गया. यूरोफाइटर और राफेल के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा में राफेल ने सबसे कम बोली लगा कर सौदा जीता. ‘दसॉल्ट’ 10.2 अरब डॉलर में 126 राफेल विमान देने वाली थी, जिसमें 18 विमानों को रेडी-टू-फ्लाई हालत में दिया जाना था और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के जरिए बाकी के 108 विमान भारत में बनाता. ‘दसॉल्ट’ के साथ समझौते में भारत में 50 प्रतिशत राजस्व निवेश करने की भी शर्त थी.

संप्रग सरकार के बाद केंद्र की सत्ता में आई राजग सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मूल सौदे को ही बदल डाला. मोदी ने घोषणा कर दी कि उनकी सरकार 36 राफेल लड़ाकू विमान मूल सौदे की कीमत से लगभग तीन गुना अधिक कीमत पर खरीदेगी. टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और भारत में एचएएल द्वारा 108 विमानों का निर्माण मूल सौदे का सबसे अहम पहलू था, लेकिन इसे मोदी ने खत्म कर दिया. भारत ने जैसे ही ‘दसॉल्ट’ के साथ करार पर हस्ताक्षर किए, रिलायंस ‘दसॉल्ट’ संयुक्त उद्यम ने तुरंत ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट हासिल कर लिया, जो भारत सरकार की कंपनी हिंदुस्तान एयरनॉटिक्स लिमिटेड को मिलना चाहिए था.

रिलायंस और ‘दसॉल्ट’ का साझा उद्यम पहले चरण में विमान के स्पेयर पार्ट्स बनाएगा और द्वितीय चरण में ‘दसॉल्ट’ एयरक्राफ्ट का निर्माण शुरू करेगा. विशेषज्ञ बताते हैं कि रिलायंस को 30,000 करोड़ रुपए में से 21,000 करोड़ रुपए मिलेंगे. खर्च अलग करने के बाद रिलायंस इस सौदे से लगभग 1.9 अरब यूरो (लगभग 1,42,97,50,00,000 भारतीय रुपए) का शुद्ध मुनाफ़ा कमाएगा. ‘दसॉल्ट’ अम्बानी की साझेदारी ने सारा परिदृश्य ही बदल डाला. ‘दसॉल्ट’ 126 राफेल विमान 10 से 12 अरब अमेरिकी डॉलर में देने को तैयार था, जिसमें 18 विमान ‘रेडी- टू-फ्लाइट कंडीशन’ में होते और शेष 108 विमान एचएएल द्वारा भारत में तैयार किए जाते, मोदी ने उस करार का बंटाधार कर दिया.

उसी ‘दसॉल्ट’ कंपनी ने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और हथियार सिस्टम के लिए अतरिक्त पैसे की मांग की और सौदा 18-22 अरब डॉलर तक पहुंच गया. ‘दसॉल्ट’ ने एचएएल को तकनीक देने से भी इन्कार कर दिया. केंद्रीय सत्ता गलियारे के जानकार कहते हैं कि मोदी के इस रवैये से तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली से लेकर मनोहर पर्रीकर तक रुष्ट थे. भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर अपना रोष जताया था और जनहित याचिका दायर करने तक की धमकी दी थी. लेकिन मोदी ने सबको चुप करा दिया. स्वामी राज्यसभा में मनोनीत हो गए और अरुण जेटली फिर मनोहर पर्रीकर रक्षा मंत्रालय से क्रमशः विदा कर दिए गए.

राफेल प्रसंग भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया

राफेल विमान करार का मसला भी अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र, न्यायाधीश एएम खानविलकर और न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने इस मामले में दाखिल याचिका पर सुनवाई करने की स्वीकृति दे दी. याचिका में डील को रद्द करने और कानूनी कार्रवाई करने की मांग की गई है. डील में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई है और कहा गया है कि यह करार अनुच्छेद 253 के तहत संसद के माध्यम से नहीं किया गया है. इसी तरह की एक अन्य याचिका में भी राफेल सौदे की स्वतंत्र जांच कराने का आग्रह किया गया है.

संदेह राफेल की खरीद प्रक्रिया पर है, गुणवत्ता पर नहीं

राफेल लड़ाकू विमानों की गुणवत्ता पर किसी को भी कोई संदेह नहीं है. विपक्षी दलों का संदेह और आरोप खरीद को लेकर अपनाई गई प्रक्रिया पर है. खरीद के करार से पहले राफेल विमानों की गुणवत्ता परखने फ्रांस गए लड़ाकू विमानों के विशेषज्ञ अधिकारियों की टीम के एक सदस्य ने बताया कि राफेल विमान दो इंजन वाला लड़ाकू विमान है. इस विमान की लम्बाई 15.27 मीटर है और इसमें एक या दो पायलट साथ-साथ बैठ सकते हैं. राफेल विमानों को ऊंचाई वाले इलाकों में लड़ने में महारत हासिल है. यह एक मिनट में 60 हजार फुट की ऊंचाई तक जा सकता है. यह अधिकतम साढ़े 24 हजार किलोग्राम भार उठाकर उड़ने की क्षमता रखता है.

राफेल विमान में ईंधन क्षमता 4700 किलोग्राम है. इसकी अधिकतम रफ्तार 2500 किलोमीटर प्रतिघंटा है और इसकी फायरिंग रेंज 3700 किलोमीटर है. इस विमान में 1.30 मिलीमीटर की एक गन लगी होती है जो एक मिनट में 125 राउंड गोलियां फायर करती है. इसके अलावा इस विमान में कई अन्य घातक किस्म की मिसाइलें भी लगी होती हैं. राफेल विमान अत्याधुनिक किस्म की रडार प्रणाली (थाले आरबीई-2 रडार) और युद्दक प्रणाली (थाले स्पेक्ट्रा वारफेयर सिस्टम) से युक्त होता है. इसमें ऑप्ट्रॉनिक सिक्योर फ्रंटल इंफ्रा-रेड सर्च और ट्रैक सिस्टम भी लगा होता है. भारतीय वायुसेना के उप प्रमुख एयर मार्शल एसबी देव ने भी कहा है कि राफेल एक ताकतवर विमान है और इससे देश की हवाई सुरक्षा में जबरदस्त बढ़ोत्तरी होगी. वायुसेना उप प्रमुख ने यह भी कहा कि वर्ष 2030-35 तक ‘जगुआर’ और ‘मिराज़ 2000’ लड़ाकू विमानों को भी अपग्रेड कर दिया जाएगा.

कांग्रेस पर जवाबी हमले की तैयारी में जुटी भाजपा सरकार

राफेल-करार पर कांग्रेस के आरोपों पर जवाबी हमले की भाजपा तैयारी कर रही है. इस तैयारी में भाजपा सरकार के मंत्रियों को समुचित सूचनाओं के साथ तैयार किया जा रहा है. भाजपा सरकार के मंत्री राफेल-करार पर कांग्रेस के आरोपों की सच्चाई जनता के बीच रखेंगे. मोदी सरकार के सभी मंत्रियों को पिछले दिनों बाकायदा एक प्रेजंटेशन के जरिए राफेल-करार से जुड़े तथ्यों की विस्तार से जानकारी दी गई. प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने विशेष तौर पर मंत्रियों को अलग से ब्रीफिंग दी. पांच सितम्बर की शाम को बुलाई गई मिनिस्टर ऑफ काउंसिल की बैठक में लगभग सभी कैबिनेट और राज्यमंत्री मौजूद थे. राफेल विमान खरीद को लेकर दिए गए प्रेजेंटेशन में मंत्रियों को बताया गया कि यह डील किस तरह से भारत के हित में है और राफेल विमान आने से भारत की सुरक्षा व्यवस्था कितनी पुख्ता होगी.

राफेल डील पर विपक्ष के हमले का जवाब देने के लिए मंत्रियों के समूह को सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और रक्षा सचिव संजय मित्रा ने भी संबोधित किया. सुरक्षा से जुड़े दूसरे कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने भी मंत्रियों के समूह को राफेल फाइटर जेट विमान डील के बारे में जानकारियां दीं. बैठक ढाई घंटे से अधिक समय तक चली. मंत्रियों को बताया गया कि राफेल-करार भारत और फ्रांस की दो सरकारों के बीच की डील है, इसमें कोई प्राइवेट पार्टी शामिल नहीं है. मंत्रियों को बताया गया कि डील में भ्रष्टाचार का रत्ती भर भी स्थान नहीं है.

विवाद अपनी जगह, राफेल विमान पहुंचा अपनी जगह

राफेल विमान खरीद सौदे पर मचे राजनीतिक घमासान के बीच ही पहली बार फ्रांस के तीन राफेल लड़ाकू विमान भारत पहुंचे. ये तीनों राफेल लड़ाकू विमान ग्वालियर एयरबेस पर तीन दिन रहे और भारतीय वायुसेना के पायलटों ने इसे जाना और इस पर उड़ान भरी. ऐसे समय में जब कांग्रेस राफेल को लेकर देशभर में हायतौबा मचा रही है, फ्रांस के तीन राफेल लड़ाकू विमान मध्य प्रदेश के ग्वालियर एयरबेस पहुंचे. फ्रांस वायुसेना के तीन राफेल लड़ाकू विमान ऑस्ट्रेलिया में एक अंतरराष्ट्रीय युद्धाभ्यास में शामिल होने गए थे और वापसी में ग्वालियर में रुके.

तीन राफेल लड़ाकू विमानों के अलावा फ्रांस वायुसेना का एक एटलस-400-एम मिलिट्री ट्रांसपोर्ट विमान, एक सी-135 रिफ्यूलर विमान और एक एयरबस कार्गो विमान भी आस्ट्रेलिया से लौटते हुए ग्वालियर एयर बेस पहुंचा. वर्ष 2015 में बेंगलुरू में हुए एयरो-शो में भी राफेल लड़ाकू विमानों ने हिस्सा लिया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राफेल विमानों की हवा में कलाबाजियां लेने की अभूतपूर्व क्षमता का निरीक्षण किया था.

ऑस्ट्रेलिया में हुए युद्धाभ्यास में भारतीय वायुसेना ने भी हिस्सा लिया था. उसी साझा अभियान के तहत भारतीय वायुसेना के पायलटों ने ग्वालियर में राफेल लड़ाकू विमान उड़ाए और विमान को नजदीक से जाना. फ्रांस वायुसेना के पायलटों ने भारत के मिराज-2000 लड़ाकू विमानों पर हाथ आजमाया. ऑस्ट्रेलिया में हुए ‘पिच ब्लैक’ युद्धाभ्यास में भारतीय वायुसेना के ट्रांसपोर्ट और सुखोई-30 विमानों ने हिस्सा लिया था. वायुसेना के एक आला अधिकारी ने बताया कि राफेल विमानों की पहली खेप 36 विमानों की होगी, जो सितम्बर 2019 से भारत में आना शुरू होंगे. 36 राफेल लड़ाकू विमानों को भारतीय वायुसेना के दो स्न्वाड्रनों में बांटा जाएगा. एक स्न्वाड्रन पाकिस्तान से मुकाबले के लिए हरियाणा के अंबाला में तैनात होगी, जबकि चीन का जवाब देने के लिए दूसरी स्न्वाड्रन पश्चिम बंगाल के हाशिमारा एयरबेस में तैनात की जाएगी.

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