supreme courtदेश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने किसानों की सुध लेना छोड़ दिया है. यह बात न सिर्फ किसानों की आत्महत्या के बढ़ते हुए आंकड़ों से साबित होती है, बल्कि अब सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश ने भी इसपर अपनी मुहर लगा दी है. वर्ष 2003 से 2012 के बीच गुजरात में 600 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी.

इस संबंध में एक एनजीओ द्वारा दायर मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आड़े हाथों लिया. कोर्ट ने कहा कि किसान आत्महत्या के दो महत्वपूर्ण कारणों, क़र्ज़ और मौसम की मार से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है. कोर्ट ने केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से चार हफ़्तों के भीतर इस संबंध में जवाब मांगा है.

दरअसल, किसान कल भी हालात से मजबूर हो कर आत्महत्या कर रहे थे और आज भी आत्महत्या करने पर मजबूर हैं. हाल ही में जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2014 की तुलना में वर्ष 2015 में किसानों की आत्महत्या के मामलों में 42 प्रतिशत वृद्धि हुई है, जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है. लेकिन इस संबंध मे केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और राजनेताओं की ओर से या तो उल्टी सीधी दलीलें दी जाती हैं या फिर ख़ामोशी अख्तियार कर ली जाती है.

किसानों की आत्महत्या पिछले कई वर्षों से सुर्ख़ियों में है. इस दौरान कई सरकारें आईं और चली भी गईं. हालांकि सरकारों ने इस ओर ध्यान भी दिया, लेकिन मामला जहां से शुरू होता है वहीं आ पहुंचता है. आम तौर पर सरकारों की कोशिश रहती है कि मामला दबा रहे, लेकिन जब पानी सर के ऊपर पहुंच जाता है तो राहत और पुनर्वास के पैकेज की घोषणा कर दी जाती है. लेकिन आत्महत्या के पीछे के कारणों से निपटने की कोशिश नहीं की जाती. लिहाज़ा साल-दर-साल यह सिलसिला चलता रहता है.

बहरहाल, जो काम सरकारों को अपना दायित्व समझ कर करना चाहिए वह काम गैर-सरकारी संस्थाएं कर रही हैं. ऐसे ही एक मामले में मल्लिका साराभाई द्वारा स्थापित एनजीओ सिटीजन रिसोर्स एंड एक्शन इनिशिएटिव ने आरटीआई के तहत आवेदन दाखिल कर गुजरात सरकार से राज्य में 2003 और 2012 के बीच किसानों की आत्महत्या से संबंधित आंकड़े तलब किए थे. जवाब में गुजरात सरकार ने यह सूचना दी कि उस अवधि में राज्य में 619 किसानों ने आत्महत्या की थी.

एनजीओ ने 41 मामलों में किसान आत्महत्या की विस्तृत जानकारी इकट्ठा की थी. इस जानकारी के मुताबिक इन किसानों की आत्महत्या के मुख्य कारण थे- क़र्ज़ की ब़ढती हुई राशि, कम बारिश के कारण कपास की फसल की नाकामी, खराब आर्थिक हालात और ट्रैक्टर, बीज, खाद, कृषि उपकरण आदि की खरीद हेतु लिए गए क़र्ज़ और ब्याज के बोझ. इस सिलसिले में सबसे दर्दनाक घटना राजकोट जिले के डालडी गांव की थी, जहां अप्रैल 2013 में एक किसान परिवार ने चलती ट्रेन के सामने कूद कर आत्महत्या की कोशिश की थी. इस हादसे में तीन लोगों की मौके पर ही मौत हो गई थी और दो गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए थे.

सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल करने से पहले सिटीजन रिसोर्स एंड एक्शन इनिशिएटिव ने प्रभावित किसानों के परिजनों को मुआवजा दिलाने के लिए गुजरात सरकार से अपील की थी और फिर हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी. लेकिन हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई से इनकार कर दिया था. उसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने केवल गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया था.

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस एनवी रमन्ना की खंडपीठ ने टिपण्णी की कि यह बहुत अजीब बात है कि किसानों की आत्महत्या के अनेकों मामलों के सामने आने के बावजूद उनकी फसल बर्बाद होने की स्थिति में उन्हें राहत देने या उनकी सुरक्षा के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई है. कोर्ट की यह टिप्पणी सरकारों के लचर रवैये की कहानी बयान कर रही है. यह टिप्पणी यह सवाल भी ख़डी करती है कि नव उदारवादी व्यवस्था की आंधी ने बुनियादी, मानवीय और लोकतांत्रिक मुल्यों को भी उखा़ड कर कहीं दूर फेंक दिया है. इसके लिए मौजूदा सरकार के साथ पिछली सभी सरकारें तो ज़िम्मेदार हैं ही, नागरिक समाज भी अपने आपको इस ज़िम्मेदारी से अलग नहीं कर सकता.

नोटबंदी की लीपापोती

2014 के आम चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी का एक भाषण बहुत मशहूर हुआ था. उस भाषण को सभी न्यूज़ चैनलों ने लाइव दिखाया था. उस भाषण में मोदी ने बहुत बारीकी से एक एक बिन्दू पर ज़ोर देकर स्पष्ट रूप से किसानों को समझाया था कि यदि उनकी सरकार आएगी, तो वे ऐसा प्रावधान करेंगे कि किसानों को फसल उगाने में आई लागत के अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य से दो गुना ज्यादा लाभ दिया जाय. मोदी सरकार को आए लगभग तीन वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन इस सिलसिले में सरकार की तरफ से अभी तक कोई सुगबुगाहट नहीं है.

ले दे कर तान फसल बीमा पर ही टूटती है. जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है कि किसानों की आत्महत्या का मुख्य कारण होता है, मौसम की मार से फसल की बर्बादी और आर्थिक हानि. लेकिन आत्महत्या को मजबूर किसानों के लिए नीति बनाने की बात कौन करे, मौजूदा सरकार ने नोटबन्दी का ‘साहसिक’ कदम उठाकर देश के लगभग सभी किसानों को अर्थिक रूप से भारी नुक़सान उठाने पर मजबूर कर दिया.

क़ाबिल-ए-गौर बात ये है कि जब नोटबन्दी लागू की गई, उस समय खेतों में तैयार सब्जियों और फसलों के बाजारों में जाने का समय था, लेकिन जल्द खराब होने वाली वस्तु होने के कारण किसानों को उन्हें औने-पौने दामों में बेचना प़डा. ज़ाहिर है, किसानों को इसका आर्थिक नुक़सान उठाना प़डा है. कई शोध संस्थाओं के साथ खुद भारत सरकार के इकोनोमिक सर्वे में भी यह माना गया है कि नोटबंदी की वजह से कृषी क्षेत्र को नुकसान उठाना पड़ा है. लेकिन किसानों को आर्थिक राहत देने की बात अब तक सुनाई नहीं दी है. इधर सरकार यह कह कर अपनी पीठ थपथपा रही है कि नोटबंदी के बाद देश में रिकॉर्ड बुआई हुई है.

बजट का पुराना राग

हालांकि न्यायपालिका लोकतंत्र का एक प्रमुख अंग है. लेकिन यदि न्यायपालिका लोकतान्त्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को जनता के प्रति उसके उत्तरदायित्व से आगाह करने लगे, तो यह न तो सरकार के लिए ही ठीक है और न ही लोकतंत्र के लिए. हालांकि अपने बजट स्पीच में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले वर्ष की भांती इस बार भी ‘किसान’ शब्द का कई बार ज़िक्र किया, लेकिन इसमें किसान आत्महत्या का कहीं ज़िक्र नहीं आया.

किसानों की आय 5 वर्ष में दोगुनी करने की बात की गई, लेकिन धरातल पर कोई प्रयास नज़र नहीं आया. न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए कोई राशि आवंटित की गई और न ही किसानों की मांग के मुताबिक प्राकृतिक आपदा की स्थिति में मुआवज़े की राशि को 10,000 रुपया प्रति एक़ड की गई. बटाईदारों के लिए भी कोई घोषणा नहीं हुई. सबसे बड़ी बात यह है कि देश की 50 प्रतिशत आबादी, जो कृषि पर निर्भर है उसके लिए कुल बजट की 3.5 प्रतिशत राशि आवंटित करके ही अपनी पीठ थपथपा ली गई.

किसान आत्महत्या से संबंधित एनसीआरबी के ताज़ा आंकड़े सरकार के लिए चेतावनी तो थे ही, अब सुप्रीम कोर्ट की टिपण्णी के बाद यह और अधिक ज़रूरी हो जाता है कि सरकार इस संबंध में कोई राष्ट्रीय नीति तैयार करे और किसानों को मौत के अंधे कुएं में गिरने से बचाए. सरकार की तरफ से निराश किसानों के लिए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी डूबते को तिनके का सहारा है.

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