rahulकर्नाटक का चुनाव भी देश के लिए एक नई सीख लेकर आने वाला है. लगभग सभी लोग मान रहे थे कि इस बार कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार बना सकती है. लेकिन पहली बार भारतीय जनता पार्टी को कर्नाटक में लिंगायत समाज के लिए आरक्षण को लेकर ऐसे सवालों का सामना करना पड़ा कि भारतीय जनता पार्टी चकरा गई है. स्वयं येदियुरप्पा, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है, लिंगायत समाज के नेता हैं.

सारे लिंगायत उनके साथ थे, लेकिन अब लिंगायत का एक बड़ा तबका उनसे दूर चला गया है और वोट सीधे कांग्रेस की झोली में जाता दिख रहा है. इस सवाल पर येदियुरप्पा को कांग्रेस सरकार के फैसले का समर्थन करना पड़ा और भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता इसे अपने पक्ष में घुमाने में नाकामयाब रहा. इन दिनों कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से अमित शाह ने मोर्चा संभाला है और वे येदियुरप्पा की तारीफ में कसीदे पर कसीदे पढ़ रहे हैं. साथ ही यह कह रहे हैं कि अगर येदियुरप्पा जी मुख्यमंत्री बनते हैं, तो सभी को पक्के मकान मिलेंगे.

येदियुरप्पा को लेकर पूरे देश में एक बड़ा सवाल और खड़ा हुआ है कि आखिर येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोप में भारतीय जनता पार्टी ने दल से निकाला क्यों था? अगर भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार को लेकर इतनी गंभीर थी, तो फिर उसने येदियुरप्पा को वापस दल में लिया क्यों? भारतीय जनता पार्टी ने येदियुरप्पा के मुद्दे के सहारे यह साफ कर दिया कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं हैं. इसीलिए उसने सत्ता के रास्ते में आने वाली एक बड़ी बाधा, जो येदियुरप्पा थे, उन्हें वापस पार्टी में लेकर दूर कर दिया.

इस सवाल का उत्तर कर्नाटक के लोग कैसे देते हैं, ये भी देश के लिए अध्ययन करने वाला अध्याय होगा. लेकिन भ्रष्टाचार का मुद्दा इस देश के लिए है भी या नहीं, इस पर भी संदेह पैदा हो गया है. देश में ज्यादातर ऐसे लोग चुनाव में उतर रहे हैं या चुनाव जीत रहे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप प्रमाणित हो चुके हैं और संभवतः कोई भी राज्य इसका अपवाद नहीं है. देश के लोगों की नजर में जाति-संप्रदाय अवश्य एक मुद्दा है, लेकिन भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है. फिलहाल, तो ऐसा ही दिखाई दे रहा है.

भारतीय जनता पार्टी के विरोध में तेलुगू वोट एक बड़ी ताकत के रूप में सामने आया है. चंद्राबाबू नायडू के प्रति केंद्र सरकार के व्यवहार से या चंद्राबाबू नायडू ने उसका जिस तरह से सामना किया, उसे लेकर कर्नाटक का समस्त तेलुगू समुदाय नाराज है. अब तक यह भारतीय जनता पार्टी का कट्‌टर समर्थक वोट माना जाता था, लेकिन इस चुनाव में तेलुगू वोट भारतीय जनता पार्टी से दूर जा रहा है और वो कांग्रेस के पक्ष में पड़ता दिखाई दे रहा है. एक तरफ लिंगायत समुदाय में बंटवारा और दूसरी तरफ तेलुगू वोटों का कांग्रेस की तरफ जाना, भारतीय जनता पार्टी के सामने ये दो बड़े पहाड़ खड़े हो गए हैं.

श्री एचडी देवेगौड़ा वोक्कालिगा समाज के नेता हैं और उनके पुत्र कुमारस्वामी भी लोकप्रिय नेता हैं, जिन्हें कर्नाटक के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लगभग दो साल बैठने का मौका मिला. उनकी सभाओं में अपार भीड़ हो रही है, लेकिन यह भीड़ कर्नाटक के उन्हीं हिस्सों की सभाओं में हो रही है, जहां वोक्कालिगा समाज का प्रभाव है. कुमारस्वामी के बारे में यह अनुमान है कि वो करीब पच्चीस सीटों पर अपनी शक्ति दिखा पाएंगे.

लेकिन खुद कुमारस्वामी का मानना है कि वे 40-45 सीटें जीतेंगे. जीतने के बाद कुमारस्वामी कहां जाएंगे, यह भी एक सवाल है, क्योंकि देश के बाकी प्रदेशों की तरह कर्नाटक में भी मुख्यमंत्री पद ही सरकार बनाने की चाबी है. अगर भारतीय जनता पार्टी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री नहीं बनाती है और यदि भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आती है और कुछ वोट कम रह जाते हैं, तो कुमारस्वामी कांग्रेस के साथ चले जाएंगे. हालांकि कुमारस्वामी के कांग्रेस में जाने में भी एक बड़ी बाधा है. कांग्रेस के वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया देवेगौड़ा जी के विश्वस्त साथियों में या शिष्यों में थे. लेकिन उन्हें कांग्रेस ने पिछले चुनाव में तोड़ लिया. इसमें सबसे बड़ी भूमिका अहमद पटेल की थी.

कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया. सिद्धारमैया को लेकर देवेगौड़ा इस समय भी बहुत सख्त हैं और नाराज भी हैं. लेकिन परिस्थितियों का दबाव नाराजगी के बावजूद कुछ काम करवा देता है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी के सामने एक चक्रव्यूह बन गया है कि यदि उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिला, तो फिर उसे कुमारस्वामी या देवेगौड़ा का समर्थन शायद ही मिल पाए, क्योंकि पेंच मुख्यमंत्री के सवाल पर खड़ा होगा. सिद्धारमैया एक कुशल प्रशासक साबित हुए और उन्होंने बहुत नपे-तुले कदमों से अपने पांच साल का सफर तय किया. सरकार पर जो भी आरोप लगे हों, लेकिन सिद्धारमैया के अपने स्वभाव ने और व्यवहार ने कर्नाटक में एक छाप छोड़ी है. कर्नाटक में सरकार बनवाने में निर्णायक भूूमिका निभाने वाले लिंगायत और वोक्कालिगा समाज के अलावा सिद्धारमैया ने सभी वर्गों को इकट्‌ठा कर अपने साथ खड़ा करने में सफलता पाई है. यह काम एक बार देवराज उर्स कर चुके हैं.

वे न वोक्कालिगा थे, न लिंगायत थे. लेकिन इन दोनों समुदायों के अलावा जितने समुदाय थे, उनको इकट्‌ठा कर देवराज उर्स ने सरकार बनाई थी. इंदिरा गांधी को दोबारा सत्ता में लाने में उनका बहुत बड़ा योगदान था. उस समय इंदिरा गांधी को जितनी भी आर्थिक मदद या सरकारी मदद, जो पार्टी के लिए की जा सकती है, वो देवराज उर्स ने जी-जान लगाकर उपलब्ध कराई थी. नतीजे के तौर पर, 1980 में श्रीमती गांधी दोबारा सत्ता में आ गई थीं. सिद्धारमैया एक मुख्यमंत्री के नाते ही नहीं, एक नायक की तरह कर्नाटक में उभरे हैं. कर्नाटक में मुख्यमंत्री तो और भी हुए हैं, लेकिन उनका नाम कर्नाटक के बाहर नहीं जाना जाता, जैसे धर्म सिंह. उन्हें कर्नाटक के बाहर लोग नहीं पहचानते, लेकिन सिद्धारमैया की पहचान सारे देश में उनके काम करने के तरीके से बन चुकी है.

कर्नाटक में कांग्रेस के भीतर के दांव-पेंच कांग्रेस के लिए महंगे साबित हो सकते हैं. कर्नाटक कांग्रेस का एक तबका जीत की स्थिति में सारा श्रेय राहुल गांधी को देने के लिए अभी से इस तरह से शोर मचा रहा है, जिससे सिद्धारमैया को चुनाव प्रचार में थोड़ी पेरशानी हो सकती है. वस्तुस्थिति यह है कि कर्नाटक में अगर कांग्रेस दोबारा जीतती है, तो उसका कारण राहुल गांधी नहीं होंगे, बल्कि उसका कारण सिद्धारमैया होंगे. कांग्रेस में एक ऐसी मानसिकता छायी हुई है, जो चाहे जीत किसी भी कारणों से हो, वो सारा श्रेय राहुल गांधी को ही देना चाहती है.

यद्यपि, कनार्टक में राहुल गांधी ने सिद्धारमैया को पूरी छूट दे दी है और कांग्रेस के किसी नेता को यह अनुमति नहीं है कि वो सिद्धारमैया के रास्ते में परेशानी पैदा करे. लेकिन कुछ चीजें स्वाभाविक तरीके से उत्पन्न हो जाती हैं. इसलिए कांग्रेस के भीतर जितने भी सिद्धारमैया विरोधी तत्व हैं, वो राहुल गांधी के नाम से सिद्धारमैया के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं.

कर्नाटक का चुनाव अगर भारतीय जनता पार्टी दस या पंद्रह विधायकों के बहुमत से जीतती है और सरकार बनाती है, तो भारतीय जनता पार्टी को 2019 में भावनात्मक रूप से कितना फायदा होगा, यह तो भारतीय जनता पार्टी जाने. लेकिन अगर कर्नाटक में कांग्रेस यह चुनाव साधारण बहुमत से जीतती है, तो कांग्रेस को इससे बहुत फायदा होगा और राहुल गांधी अपने नेतृत्व को स्थापित करने और राजनीतिक अनुभव की नई पारी खेलने के प्रयास में जिन झटकों को झेल रहे हैं, उनसे उभरने में भी उन्हें बहुत सहायता मिलेगी.

इस समय देश के विभिन्न दलों के अधिकांश नेता कर्नाटक में डेरा डाले हुए हैं और स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ अपने-अपने दल का प्रचार कर रहे हैं. पहले कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय फलक पर बहुत असर नहीं छोड़ता था. लेकिन 2019 का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और 2019 का चुनाव एकतरफा नहीं होने वाला है. इसलिए कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रव्यापी महत्व का चुनाव हो गया है. स्वयं येदियुरप्पा को कितने मत मिलते हैं या वे कितने मतों से जीतते हैं या फिर वे अपनी पार्टी के कितने लोगों को जीता पाते हैं, ये भी एक राजनीतिक अध्ययन का विषय बन कर उभरेगा, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी अपने उस साथी को मुख्यमंत्री बना रही है, जिसे उसने भ्रष्टाचार के आरोप में पार्टी से निकाल दिया था.

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