milkकिसान आन्दोलन ने एक ऐसा मोड़ ले लिया है, जो न सिर्फ राजनीति या सार्वजानिक जीवन से जुड़े लोगों के लिए, बल्कि अख़बार के एक आम पाठक के लिए भी चिंता की बात है. ऐसा नहीं है कि यह आन्दोलन अप्रत्याशित था, क्योंकि श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में यह वादा किया था कि वे किसानों को एक ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे, जो उनकी लगत से 50 फीसद अधिक होगा. सत्ता संभालने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि यह संभव नहीं है.

सरकार के पास समुचित पैसे नहीं हैं. बाद में उन्होंने यह भी घोषणा की कि किसानों की आमदनी छह वर्षों में दोगुनी हो जाएगी. मुझे नहीं मालूम कि उनके सलाहकार कौन हैं, लेकिन वे अर्थशास्त्री नहीं होंगे, क्योंकि ये ऐसे वादे हैं जिन्हें पूरा करना असंभव है. भारत के साथ एक अच्छी बात यह है कि यहां आम आदमी, किसान और मजदूर संभावनाओं की सीमा के अन्दर रहकर काम करने के लिए तैयार रहते हैं.

बहरहाल सरकार की अपनी बाध्यताएं होती हैं. यह भी समझ में आने वाली बात है कि वे 2014 में चुनाव जीतना चाहते थे, लेकिन फिर उन्होंने साल-दर-साल ऐसे वादे क्यों किए? स्वाभाविक रूप से इससे नाराज़गी बढ़ेगी, लोगों में निराशा पैदा होगी और अशांति फैलेगी. उत्तर प्रदेश में किसानों की क़र्ज़ मा़फी ने एक दूसरी समस्या को जन्म दे दिया है. अब अन्य राज्यों से भी कर्ज़ मा़फी की आवाजें उठने लगी हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी मानते हैं कि क़र्ज़ मा़फी की मांग बेकाबू हो जाएगी.

ये बहुत ही गंभीर आर्थिक मसले हैं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों को यह श्रेय देना चाहिए कि यह जानते हुए कि लोकप्रिय योजनाओं से वोट हासिल किया जा सकता है, उन्होंने लोगों की उम्मीदों को कभी इतना नहीं बढ़ाया, जो हिंसा और अशांति का कारण बने. वे ज़िम्मेदार नेता थे और जानते थे कि कोई भी लक्ष्य हासिल करने की एक सीमा होती है.

फिलहाल प्रधानमंत्री को एक सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए या कम से कम भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलानी चाहिए और कोई ऐसा फॉर्मूला तलाशना चाहिए जो व्यावहारिक हो. केवल विपक्ष को नज़रंदाज़ करने की कोशिश से (जैसा महाराष्ट्र में या खुद उनके सहयोगी शिव सेना के साथ हो रहा है) कोई नतीजा नहीं निकलेगा. यदि विरोध प्रदर्शन जारी रहता है, तो पुणे और मुम्बई जैसे शहरों में रहने वाले लोगों की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी. आपूर्ति के अभाव में सब्जियों की कीमतें बढ़ जाएंगी.

वहीं किसानों को भी नुकसान उठाना पड़ेगा, क्योंकि उनकी उपज सड-गल जाएगी. बेशक सरकार इसके लिए किसानों को जिम्मदार ठहरा सकती है, लेकिन केवल ज़िम्मेदारी मढ़ देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. लोगों ने शासन चलाने के लिए सरकार को चुना है. यदि सरकार शासन नहीं चला सकती है, तो यह बहुत दुखद स्थिति है. जितनी जल्दी सरकार कृषि क्षेत्र की समस्याओं की ओर ध्यान देगी, उतना ही बेहतर होगा.

अब अर्थव्यवस्था के सवाल की तरफ लौटते हैं. सत्ताधारी दल की ओर से नोटबंदी की गैरज़रूरी तारीफ की गई, जैसे ये कोई क्रान्तिकारी घटना हो या जैसे इसने अर्थव्यवस्था को ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया हो. दरअसल यह एक बेमकसद और गैरज़रूरी फैसला था. इससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ, लेकिन विपक्ष और सत्ताधारी दोनों इसे चरम पर ले गए. विपक्ष कह रहा था कि अर्थव्यवस्था तबाह हो गई, ये हो गया, वो हो गया. लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार के सारे आकलन (मुझे नहीं मालूम कि किसने ये आकलन किए थे) गलत साबित हुए.

अर्थव्यवस्था में उतना काला धन नहीं था, जितनी बात की जा रही थी. प्रचलन में जितना पैसा था, सब वापस आ गया. वित्त मंत्री को ये आंकड़े जारी करने में शर्म आ रही है. लेकिन ज़ाहिर है कि नोटबंदी के तीन लक्ष्य जिनका ज़िक्र प्रधानमंत्री ने किया था, उन्हें हासिल नहीं किया जा सका. ये लक्ष्य थे काला धन, नकली नोट और आतंकवाद, लेकिन इन तीनों पर नोटबंदी का कोई खास असर नहीं दिखा. कहने का मतलब यह है कि यह एक ऐसा क़दम था, जिसे नहीं उठाया जाना चाहिए था.

लेकिन ऐसे फैसलों के राजनैतिक प्रभाव भी होते हैं. प्रधानमंत्री सोचते हैं कि नोटबंदी के कारण वे उत्तर प्रदेश चुनाव जीत गए. मुझे नहीं लगता है कि ऐसा हुआ है और यदि ऐसा हुआ भी तो सत्ताधारी दल ने एक राज्य का चुनाव जीतने के लिए देश से बड़ी कीमत वसूल की. दरअसल पिछले साल की तुलना में इस साल की मौजूदा तिमाही के आंकड़े बताते हैं कि जीडीपी नीचे गया है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो एक अर्थशास्त्री हैं, स्वाभाविक रूप से उन्हें इन चीज़ों की समझ है.

उन्होंने कांग्रेस वर्किंग कमिटी को बताया था कि देश की अर्थव्यवस्था ख़राब हालत में है और विकास में ठहराव आ गया है. सरकार अर्थव्यवस्था को लेकर क्या सोच रही है, हमें नहीं मालूम. अरविन्द सुब्रमण्यम एक योग्य आर्थिक सलाहकार हैं. यदि सरकार उनकी सुनेगी, तो उसका प्रदर्शन बेहतर होगा और आने वाले वर्षों में उसके सकारात्मक नतीजे मिलेंगे.

तीसरा मुद्दा राजनैतिक हालात का है. योगी आदित्यनाथ के पास एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था संभालना एक कठिन काम है, क्योंकि शासन की दृष्टि से उत्तर प्रदेश एक मुश्किल राज्य है. अभी तक योगी कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने में असफल रहे हैं. वे ठाकुर बिरादरी से आते हैं, इसलिए उनके सत्ता में आने से उच्च जातियों का हौसला बढ़ा है.

ये जातियां दलितों को सबक सिखाना चाहती हैं. दरअसल ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है. सहारनपुर में जो हुआ, वो उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर में हो सकता है. राज्य के नए डीजीपी एक सक्षम प्रशासक हैं. उनके साथ पिछली सरकार में अन्याय हुआ था, लिहाज़ा उसे सुधारा गया है. लेकिन वे भी क्या कर सकते हैं. पूरा तंत्र, जिसमें पुलिस और प्रशासकीय तंत्र शामिल है, इतना ढीला पड़ चुका है कि एक योग्य व्यक्ति भी काम नहीं कर सकता. पूरा पुलिस तंत्र (थाना स्तर तक) जातिवाद से ग्रसित है.

लिहाज़ा उच्च जातियों और दलितों के बीच किसी भी झगड़े के दौरान पुलिस भी बंट जाती है. इससे पहले कि उत्तर प्रदेश में हालात इतने ख़राब हो जाएं कि सरकार चलानी मुश्किल हो जाए, योगी को हर पक्ष के समझदार व्यक्तियों की एक बैठक बुलानी चाहिए और हालत को काबू में करने की कोशिश करनी चाहिए.

बदकिस्मती से हम ऐसी दिशा में बढ़ रहे हैं, जिससे देश की शासन व्यवस्था बिगड़ जाएगी और अर्थव्यवस्था बेकाबू हो जाएगी. आम चुनाव में अभी दो वर्ष बाक़ी है. श्री मोदी को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए. यदि अगला चुनाव जीतने के लिए देश को और अधिक नुकसान पहुंचाया जाता है, तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता है. अगला चुनाव वैसे भी मोदी के पक्ष में जा सकता है, क्योंकि विपक्ष कमज़ोर है.

लिहाज़ा उन्हें महज़ चुनाव जीतने के लिए देश को नुकसान पहुंचाने की ज़रूरत नहीं है. वे देश को और अधिक नुकसान पहुंचाए बिना भी चुनाव जीत सकते हैं. मह़ज इनोवेटिव होना और वो काम करना जो कारगर साबित नहीं हो सकते, उससे देश को दीर्घकालीन नुकसान हो सकता है. मान लिया कि वे एक और चुनाव जीत जाते हैं, तो उससे क्या होगा.

1970 के दशक में श्रीमती गांधी गरीबी हटाओ और बांग्लादेश युद्ध के बाद चुनाव जीतकर सत्ता में आई थीं, लेकिन तीन साल में ही अर्थव्यवस्था ऐसी स्थिति में पहुंच गई कि सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें आपातकाल लागू करना पड़ा. इतिहास से सबक सीखते हुए सरकार को अपने पास ऐसे थिंक टैंक रखने चाहिए, जो 30-40 वर्ष की राजनीति का अध्ययन कर सरकार को सही सलाह दे सकें.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here