kashmirवर्ष 2015 में एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी. उस तस्वीर में 11 सुन्दर और मज़बूत कश्मीरी नौजवान एके-47 राइफल के साथ नज़र आ रहे हैं. तस्वीर के बीच में बुरहान वानी है, जो उस ग्रुप की प्रेरणा है. उसने कश्मीर में मिलिटेंसी के स्वरूप को बदल दिया और भारत-विरोधी आन्दोलन को पुनः जागृत कर दिया. वर्ष 2016 में जब बुरहान मारा गया तो कश्मीर में एक अभूतपूर्व अशांति का दौर शुरू हुआ था.

इसने लगभग छह महीने तक कश्मीर को ठप कर दिया था. इस आंदोलन में करीब 100 लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकतर युवा थे. हजारों घायल हुए और पैलेट गन के छर्रों से दर्जनों लोग अंधे हुए थे. यह एक नया कश्मीर था, हालांकि एक अंतर के साथ. इस बार लोगों ने अपनी भावनाओं को नहीं छिपाया और मिलिटेंट्‌स के पीछे खड़े दिखे.

ज़ाहिर तौर पर बुरहान की मौत ने हिज्बुल मुजाहिदीन को हतोत्साहित नहीं किया. हिज्बुल मुजाहिदीन एक स्थानीय मिलिटेंट संगठन है जिसने एक दशक के बाद वापसी की थी. बुरहान के इर्द-गिर्द जमा होने वाले समूह ने हिज्बुल को फिर जिंदा कर दिया, जो पहले अपने कैडर्स के नुकसान और पाकिस्तान द्वारा विदेशियों के वर्चस्व वाले संगठनों को प्राथमिकता दिए जाने से प्रभावित हुआ था.

स्थानीय लोगों के संगठन में शामिल होने की वजह से उसे लोगों का अधिक समर्थन मिल रहा है. अक्टूबर 2015 में प्रशासन अचंभित रह गया था, जब कश्मीर में लश्कर-ए-तैयबा का नेतृत्व करने वाले अबु कसीम के अंतिम संस्कार में 30,000 लोग शामिल हुए थे. अबू कासिम पाकिस्तान का रहने वाला था.

इन 11 युवाओं में से 10 मारे जा चुके हैं. इन्होंने जम्मू-कश्मीर, खास तौर पर दक्षिण कश्मीर, में मिलिटेंसी को गति दी और अन्य युवाओं को इस ओर आकर्षित किया. इस ग्रुप के मारे जाने वाले युवाओं में बुरहान के करीबी सब्जार अहमद भट का नवां नंबर था. सब्जार सुरक्षा बलों की ज्यादतियों की वजह से इस रास्ते पर गया था. वर्ष 2015 में त्राल के जंगलों में सेना के हाथों बुरहान के भाई खालिद के मारे जाने की घटना ने उसे संगठन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था. खालिद मिलिटेंट नहीं था, वो संभवतः अपने भाई से मिलने गया था.

बुरहान की जगह लेने से सब्जार ने मना कर दिया और जाकिर मूसा के लिए रास्ता साफ कर दिया. मूसा ने हाल में एक विवादास्पद बयान दिया, जिसमें उसने कहा कि कश्मीर समस्या पर बातचीत के लिए उसका ग्रुप हुर्रियत नेताओं को फांसी पर चढ़ा देगा, यदि बातचीत धर्म पर आधारित नहीं होगी. आम कश्मीरी लोग इस बयान से आक्रोशित हो गए और मूसा को अपने शब्दों को संशोधित कर अपने बयान से सैयद अली गिलानी का नाम हटाना पड़ा.

समूह के एक सदस्य तारिक पंडित ने आत्मसमर्पण किया है और केवल सद्दाम पद्दार अभी जीवित है. 32 वर्षीय सद्दाम ही बुरहान के कोर ग्रुप का अकेला सर्वाइवर (जीवित व्यक्ति) है. अधिकतर नए रंगरूटों की तरह हथियारों के प्रशिक्षण के लिए वह पाकिस्तान नहीं गया था. आतंकवाद में शामिल होने से पहले पत्थर फेंकने के आरोप उस पर लग चुके हैं. वह शोपियान जिले से है.

उसे घाटी में हिज्ब के नए संभावित प्रमुख के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि जाकिर मूसा का आगे क्या होगा, किसी को नहीं पता. इसकी वजह यह है कि हिज्बुल मुजाहिदीन, जिसे पाकिस्तान में बैठ इसका सर्वोच्च कमांडर सलाहुद्दीन चला रहा है, ने भी खुद को जाकिर के विचारों से अलग कर लिया है.

इस तथ्य के बावजूद कि 2016 और 2017 में हिज्ब को दो बड़े नुकसान हुए, फिर भी इसके पास अब भी सबसे ज्यादा आतंकवादी हैं. अकेले दक्षिण कश्मीर में, सरकारी सूत्रों के मुताबिक 112 आतंकवादी हैं और उनमें से 99 स्थानीय हैं. आतंकवादियों की सबसे बड़ी ढाल वे लोग हैं, जो उन्हें शरण, भोजन और यहां तक कि बचने में भी मदद करते हैं.

एक दशक पहले आतंकवादियों के लिए स्थानीय समर्थन कम हो गया था और इसी वजह से उनकी संख्या काफी कम हो गई थी. आज उनको लोगों का मौन समर्थन हासिल है. ऑपरेशन के दौरान लोग सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते हैं और उनके अंतिम संस्कार में बड़ी संख्या में घरों से बाहर निकलते हैं. आतंकवादियों की हत्या के खिलाफ लोग शटरडाउन करते है. संयुक्त हुर्रियत के लिए लोगों के क्रोध को संभालना मुश्किल हो रहा है.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, आज कश्मीर में 282 आतंकवादी सक्रिय हैं. 1990 के दशक के मध्य में आतंकवाद अपनी जड़ें कितनी गहराई तक जमा चुका था, उससे तुलना करें तो किसी को भी यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि आज ऐसा क्या हुआ, जो सशस्त्र प्रतिरोध इतना ताकतवर बन गया है कि इसने नई दिल्ली की सुरक्षा प्रतिष्ठान का पूरा ध्यान अपनी तरफ खींच लिया है.

नए युग के आतंकवाद के चारों तरफ आज एक हिस्टीरिया सा माहौल बना हुआ है, जिसमें सुरक्षा प्रतिष्ठान और राष्ट्रीय मीडिया (ज्यादातर टीवी चैनल) अपने उत्तेजित दृष्टिकोण के साथ दिखते रहे हैं. मिसाल के तौर पर, सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का एक कश्मीरी व्यक्ति का मानव ढाल के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की घटना का बचाव करना और कश्मीर की स्थिति का वर्णन एक डर्टी वार के रूप में करना, को देखना चाहिए. यह राज्य की कठिन हालात से निपटने की क्षमता पर सवाल उठाता है.

यह भी कि जब 90 के दशक में इतना शोर-शराबा नहीं था, तब कैसे इस मामले को संभाला गया था? इसमें कोई संदेह नहीं है, जनता के समर्थन की तस्वीर अब बदल गई है. यह एक युद्ध है, जो कश्मीर पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है. रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने हाल में कहा कि यह कश्मीर में युद्ध जैसी स्थिति थी और रावत ने भी आतंकवादियों के समान ही पत्थर फेंकने वालों से निपटने की बात की.

ऐसा प्रतीत होता है कि कश्मीर आतंकवाद के हाथों हार रहा है और इसे किसी तरह खत्म करना है. यह तस्वीर 1996 से काफी अलग है. महबूबा मुफ्ती द्वारा संसद में 8 अगस्त 2014 को एक सवाल पूछ गया था और उसका अजीबोगरीब जवाब मिला. मुफ्ती ने संसद सदस्य के नाते 8 अगस्त 2014 को पूछा था कि क्या जम्मू और कश्मीर में सक्रिय आतंकियों की संख्या 1995 से कम हुई है और क्या सरकार का कश्मीर के नागरिक क्षेत्रों से सुरक्षा बलों को वापस हटाने का कोई प्रस्ताव है?

जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा कि 1995 के मुकाबले जम्मू और कश्मीर में सक्रिय आतंकियों की संख्या में काफी कमी आई है. 1996 में राज्य में करीब 6800 सक्रिय आतंकवादी थे. वर्ष 2013 और 2014, जनवरी में क्रमशः 240 और 199 के बीच रह गए हैं. हालांकि, एक पूर्व आतंकवादी कमांडर का कहना है कि 1995-96 में सक्रिय आतंकवादियों की संख्या 8 हजार से दस हजार तक हो सकती है.

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 1995 में करीब 4390 आतंकियों को गिरफ्तार किया गया था और 1332 मारे गए थे. 1996 में लगभग 3453 आतंकियों को गिरफ्तार किया गया और 1332 मारे गए. 2001 में सबसे बड़ी संख्या में 2421 आतंकी मारे गए और इसके साथ ही आतंकवाद में कमी आने लगी थी. 9/11 ने कश्मीर विद्रोह के बारे में दुनिया का विचार बदल दिया था. पाकिस्तान, अफगानिस्तान के मोर्चे पर लग गया था. इस दौरान घुसपैठ में भी कमी आ गई थी. सेना ने 2015 को शून्य घुसपैठ का वर्ष बताया.

जनता से मिलने वाले समर्थन के अलावा, आज के आतंकवादी उन लोगों की तुलना में अधिक प्रतिबद्ध हैं, जो 1990 में आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हुए थे, जब आतंक के सभी रास्ते रावलपिंडी की ओर जाते थे. ज्यादातर मामलों में, आतंकवादी पहले स्टोन पेल्टर का काम कर चुके होते हैं. लोग स्टोन पेल्टर इसलिए भी बने, क्योंकि बड़े मुद्दों को हल करने के लिए कोई राजनीतिक प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. एक राजनैतिक शून्यता की स्थिति रही और जिस तरह से पुलिस उनके पीछे पड़ती है, उससे वे अंतत: आतंकवादियों की रैंक में आ जाते हैं.

एक बड़े प्रतीकात्मक नुकसान के साथ, हिज्ब के लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो सकता है. हालांकि उसके पास संख्या ठीक-ठाक है. तथ्य यह है कि जब तक लोग इनके पीछे रैली करते रहेंगे, यह राज्य में असहज माहौल बनाए रखेगा. शोपिया में सेना द्वारा इन्हें रोकने के दो प्रयासों का उलटा नजीता निकला. दक्षिण कश्मीर का आतंकवाद की राजधानी बनना, कई जटिल वास्तविकताओं का नतीजा है.

इनमें से एक है लोगों को राजनीतिक मोर्चे पर असहाय बना देना. लेकिन दक्षिण कश्मीर भी खबरों में है, क्योंकि आतंकियों ने स्वयं को सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक किया है. बुरहान एक पोस्टर ब्वॉय बन गया था. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उसकी हत्या के तुरंत बाद लिखा था कि उसने आज तक एक भी गोली नहीं चलाई थी.

दक्षिण की तुलना में उत्तर में ज्यादा गड़बड़ी है. पुलिस के अनुसार यहां 141 सक्रिय आतंकवादी हैं, जिसमें 118 विदेशी और 23 स्थानीय हैं. हालांकि, वे सोशल मीडिया से दूर रहते हैं और अपनी मौजूदगी के बारे में प्रचार नहीं करते हैं. यही दक्षिण और उत्तर कश्मीर के आतंकियों के बीच अंतर है.

ये कहना बड़ा मुश्किल है कि मौजूदा स्थिति को समाप्त करने के लिए क्या सरकार ताकत का इस्तेमाल कर सकती है. लेकिन किसी भी सरकारी एक्शन के मुकाबले टीवी चैनलों पर युद्ध का माहौल बना हुआ है, जो वस्तुस्थिति को और अधिक नुकसान पहुंचा रहा है.

–लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.

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