‘दिनमान’ में रहते हुए मेरे हिन्दी,अंग्रेज़ी,पंजाबी,उर्दू तथा कई क्षेत्रीय भाषाओं के पत्रकारों से मित्रता हो गयी ।कुछ लोगों से प्रेस वार्ताओं में मिलने से,कुछ लोगों के साथ प्रेस पार्टियों में जाने से तो कुछ लोगों से दिनमान में रहते हुए ।सच्चिदानंद वात्स्यायन और रघुवीर सहाय जिन दिनों दिनमान के संपादक थे उन दिनों काफी लोगों का दिनमान में आना जाना होता था ।इनमें प्रमुख नाम जो मुझे याद पड़ रहे हैं वे हैं पंडित विद्या निवास मिश्र,असगर वजाहत,ओम प्रकाश दीपक , इन्दर लाल,कृष्णकुमार,अनुपम मिश्र, विनोद व कविता नागपाल,भानु भारती, भगवती शरण सिंह , प्रयाग शुक्ल,कमलेश जी,अशोक सक्सरिया ,राम धनी,राम गोपाल बजाज , उदयन शर्मा आदि । सभी लोग आते जाते मेरा भी अभिवादन करते जाते ।कारण यह था कि टाइम्स हाउस में मेरी मेज़ सब से पीछे थी जो अपने बड़े आकार और मेरे टाइपराइटर से पहचानी जा सकती थी तथा सभी आगंतुकों का ध्यान आकर्षित करती थी । 10, दरिया गंज में यही मेरी टेबल हाल के बीचोंबीच थी जिस की तरफ नज़र जाना स्वाभाविक होता था ।बहरहाल, प्रयाग जी, राम धनी और उदयन शर्मा मेरे पास कुछ पल बिता कर ही जाया करते थे ।कुछ समय तक प्रयाग जी ने दिनमान के लिए फ्रीलांसिंग की,बाद में वात्स्यायन जी ने दोनॉ को अपनी संपादकीय टीम में शामिल कर लिया ।रघुवीरसहाय के संपादक बनने पर राम धनी छोड़ गये और उनका स्थान लिया बनवारी ने लिया जिन्होंने कन्हैयालाल नंदन के संपादक बनने पर इस्तीफा दे दिया था ।

उदयन शर्मा के साथ मेरी equation बहुत बढ़िया थी ।हम लोग दोनों साथ साथ रिपोर्टिंग करते मिल जाया करते थे ।टाइम्स ऑफ़ इंडिया में ट्रेनिंग पूरी करने और उसके बाद वहां कुछ पत्र पत्रिकाओं में काम करने के बाद एम. जे. अकबर,सुरेन्द्र प्रताप सिंह (मित्रों के लिए एस.पी.सिंह) और उदयन शर्मा (दोस्तों के लिए पांडित जी)ने कोलकात्ता की आनंद बाज़ार पत्रिका जोइन कर ली । एम.जे.अकबर ‘संडे’के एडिटर बने। एस. पी.सिंह ‘रविवार’ के तथा पंडित जी को दिल्ली में विशेष संवाददाता नियुक्त किया गया ।यही वजह थी कि हम लोग अक्सर मिल जाया करते थे । दिल्ली की अखबारी दुनिया के अलावा भी हम लोग मिलकर कुछ मानव सेवा की योजनाएं भी बनाया करते थे ताकि गरीबों,मजलूमों,शोषितों,वंचितों के लिए कुछ किया जा सके ।उदयन के दिल में इन दबे कुचले,दीनहीन लोगॉ के लिए कुछ ठोस काम करने की मन में तमन्ना और कुलबुलाहट रहा करती थी ।अपनी कई मानवीय स्टोरियों के सिलसिले में उदयन ने कुछ गैर सरकारी संगठननो का कामकाज देखा भी था ।हम दोनों के काम करने की शैली मे एक समानता थी,घटना या दुर्घटना स्थल पर जाकर आंखों देखी रिपोर्ट दाखिल करना जिसे अंग्रेज़ी में ऑन दा स्पॉट रिपोर्टिंग कहते हैं ।

पंजाब में आतंकवाद कवर करने के लिए उदयन शर्मा रविवार और मैं दिनमान के लिये अमृतसर जाते थे ।कभी मुलाकात हो जाती और कभी नहीं भी होती थी ।अमृतसर के मेरे सहयोगी शम्मी सरीन ने एक बार बताया कि उदयन शर्मा ऑपरेशन ब्लैक थंडर कवर करने के लिए आये थे । मैं किसी कारण तब अमृतसर नहीं जा पाया था और यह ज़िम्मेदारी शम्मी को सौंप दी थी । ऑपरेशन ब्लैक थंडर ‘ब्लैक कैट’यानी एसपीजी अर्थात विशेष सुरक्षा गार्ड और पंजाब पुलिस के सहयोग से स्वर्ण मंदिर में छुपे बचे हुए आतंकवादियों को निकालना था ।ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद कुछ आतंकवादी बच गये थे जो स्वर्ण मंदिर में असुरक्षा का माहौल पैदा कर रहे थे ।उन्हें सरकार की तरफ से सतर्क किया गया,उनपर कोई असर नहीं हुआ । पुलिस के कुछ अधिकारी सादा कपड़ों में आकर उनसे मिले,फिर भी वे नहीं माने ।बातचीत के जब सब रास्ते बंद हो गये तभी आपरेशन ब्लैक थंडर का सहारा लिया गया । लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का यह स्पष्ट निर्देश था कि एक एसपीजी या पुलिस बल स्वर्ण मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी और दूसरे जानमाल के नुकसान से बचा जायेगा । इन निर्देशों को ध्यान में रखते हुए पंजाब पुलिस प्रमुख कंवर पाल सिंह गिल ने पहले खाडकुओं यानी आतंकवादियों को आत्मसमर्पण करने और वार्ता की सलाह दी लेकिन जब उनकी ओर से सकारात्मक रवैया नहीं दीखा बल्कि एक पुलिस के डीआईजी सरबदीप सिंह विर्क पर स्वर्ण मंदिर के बाहर गोली चलाकर अपनी मौत को न्योता दे दिया । एसपीजी की सक्रियता से जब कुछ आतंकवादी मारे गये तो शेष बचे हुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया ।इस ऑपरेशन में तीस आतंकवादी मारे गये जबकि अर्धसैनिक बलों का कोई जानी नुकसान नहीं हुआ । उदयन शर्मा के साथ आम तौर पर सलीम अख्तर सिद्दीकी रहा करते थे ।

अमृतसर में शम्मी सरीन पत्रकारों के बीच एक कड़ी थे और आज भी हैं ।बेशक़ वह दिनमान के लिए काम किया करते थे लेकिन वह हर उस पत्रकार की सहायता और मार्गदर्शन करते थे जो उनसे माँगता था और अगर कोई मेरे नाम का उल्लेख कर देता तो उसकी भरपूर मदद हो जाती ।यह शम्मी सरीन की सिफत आज भी है ।उन्होँने पंडित जी की भी खूब सहायता की थी इसे उदयन भी स्वीकारते थे ।एक बार पंडित जी और मैं अमृतसर में पिंगलवाड़ा देखने के लिए गये ।यहां हर किसी अपंग,बीमार,बेघरबार,निस्सहाय,दीनहीन की न केवल सेवा की जाती है बल्कि आश्रय भी दिया जाता है ।उनकी पढ़ाई की भी व्यवस्था की जाती है । इस पिंगलवाड़ा का कामकाज देखने वाले भगत पूरन सिंह ने बताया था कि यहां बिना किसी भेदभाव के सभी ज़रूरतमंदों को आश्रय दिया जाता है ।पंडित जी के दिमाग के किसी कोने में यह बात टंक गयी और बोले,’दीप भाई हमें भी कोई इसी तर्ज का आश्रयस्थल खोलना है ।’लेकिन अपनी यह मानवीय योजना को कार्यान्वित कर पाते उससे पहले ही वह हमें छोड़ गये ।

उदयन शर्मा और मुझ में न किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा थी और न ही प्रतियोगिता की भावना । हम दोनों कमोबेश एक जैसे साप्ताहिक से जुडे थे लेकिन हम दोनों में परस्पर समन्वय की भावना रहती थी। 1989 में उन्होने रविवार से इस्तीफा दिया और मैने दिनमान से । वह संडे ऑब्जरवर के संस्थापक संपादक बने और मैं डॉ.कन्हैयालाल नंदन के साथ संडे मेल का । यहां भी हम दोनों में किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नही थी ।एस पी सिंह के नव भारत टाइम्स में चले जाने के बाद उदयन शर्मा रविवार के संपादक बने ।उन्हें काफी समय अब कोलकाता में गुज़ारना पड़ता था । रविवार से जल्दी त्यागपत्र दे दिया।कोलकाता से वापसी के बाद हम लोग अक्सर मिलने लगे ।संडे ऑब्जरवर का संपादक होने के बावजूद उनकी रिपोर्टरी उन पर हावी रहती ।शुरू शुरू में मैं प्रशासनिक कामों और कोलकाता से संडे मेल का संस्करण निकालने में व्यस्त रहा और रिपोर्टरी करना भूल गया ।कोलकाता संस्करण के लिए हमने रविवार के दो लोगॉ अनिल ठाकुर और संजय द्विवेदी का चयन किया तथा मुंबई ब्यूरो प्रमुख के तौर पर सुदीप की नियुक्ति की ।वह भी रविवार में काम कर चुके थे ।इन सभी नियुक्तियों की जानकारी उदयन को थी । दिल्ली में संडे मेल के लोकार्पण समारोह में उदयन शर्मा आये थे ।एक चित्र उसी अवसर का है । हमारे सहयोगियों से मिलने के बाद उनकी टिप्पणी थी,कमाल है भाई अनुभव और युवा में गजब का तालमेल।शायद यही संडे मेल की कामयाबी की कुंजी है ।उदयन की डॉ. बलराम जाखड , वसंत साठे,संजय डालमिया,राजेंद्र माथुर,एस. पी. सिंह ,कन्हैयालाल नंदन,रमेश बतरा, अवध नारायण मुद्गगल,एस.निहाल सिंह आदि से मुलाकातें हुईँ ।बहुत खुश होकर एक तरफ ले जाकर बोले चलो चीर्स करते हैं । एक नुक्कड़ में हम दोनों कुछ योजनाओं पर चर्चा भी करते हैं ।अचानक उदयन कहते हैं कि ‘मैं राजनीति में जाने की सोच रहा हूं ।दुखी मन से बोले ‘इतने कागज़ हम लोग काले करते रहते हैं लेकिन न तो सरकार और न ही उसके कारकूनो पर कोई असर पड़ता है ।संसद में अगर मुद्दा उठेगा तो सारा देश सुनेगा।’ आगे बोले तुम अपनी रिपोर्टरी कब शुरू कर रहे हो । मैं ने कहा,जल्दी ही ।

कुछ समय बाद पता चला कि उदयन ने भिंड से लोक सभा चुनाव लड़ने का मन बना लिया है कांग्रेस पार्टी की टिकट पर ।उनसे पहले उदयन के पुराने साथी एम .जे .अकबर 1989 में बिहार के किशन गंज से कांग्रेस की टिकट पर लोक सभा पहुंच गये थे जबकि संतोष भारतीय जनता दल की टिकट पर।अपना कामकाज देखने के लिए पंडित जी ने रायपुर से रमेश नैयर को बुला लिया जो उस समय दैनिक भास्कर के संपादक थे ।शुरू में रमेश नैयर कार्यकारी संपादक रहे उदयन शर्मा के त्यागपत्र देने पर उन्हें संपादक बना दिया गया ।एक तरफ तो मैं खुश था कि मेरा छत्तीसगढ़ी भाई दिल्ली आ रहा है लेकिन उदयन के जाने का गम भी साल रहा था ।बहरहाल,उदयन ने भिंड में बहुत मेहनत की लेकिन जीत नहीं पाये ।दिल्ली लौट कर कुछ टीवी चेनलों पर काम किया,मन रमा नहीं ।उन्हें प्रिंट मीडिया ही भाता था ।अमर उजाला में भी कुछ वक़्त रहे ।

एक दिन मैं क्या देखता हूं कि इन्द्रप्रकश बिल्डिंग वाले हमारे ऑफ़िस में उदयन आकर श्रीमती नफ़ीस खान के पास बैठे हैं ।नफ़ीस जी ने बताया कि रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार चयन समिति के यह नये सदस्य हैं ।पंडित जी से मिलकर खुशी हुई थी ।विभिन्न भाषाओँ में पुरस्कार दिये जाने वालों की सूची हम सभी सदस्यों के पास थी।हरेक नाम पर चर्चा होती और सभी की सहमति पर ही पुरस्कार से सम्मानित किये जाने वाले व्यक्ति का नाम तय होता ।इस मीटिंग की समाप्ति के बाद कुछ देर तकवह मेरे कमरे में बैठे ।अगली मीटिंग हमारी संजय डालमिया के घर पर हुई । अगले दिन पुरस्कार देने से एक दिन पहले संजय डालमिया रात्रि भोज पर सभी लोगो से भेंट किया करते थे । मुख्य अतिथि शेखर गुप्ता भी आये थे । पुरस्कार समारोह के दिन जब उदयन शर्मा आये तो मैं ने उन्हें बैज लगा कर उनका स्वागत किया ।यह प्रोग्राम खासा गरिमापूर्ण रहा ।उस दिन नियमित पुरस्कारो के अतिरिक्त दो विशेष पुरस्कार दिये गये करगिल कवरेज के लिए बरखा दत्त और गौरव सावंत को ।

उदयन शर्मा की मेरी दोस्ती वैसी सार्वजनिक नहीं थी जैसी कि आम तौर पर हुआ करती हैं ।मिलते हम लोग अक्सर थे लेकिन अफवाहों से अपना बचाव करते हुए ।दिनमान और रविवार को आम पाठक समान धरातल पर रखता था जबकि दोनॉ के कलेवर मे बहुत फर्क था ।रविवार,संडे और इंडिया टुडे 1977 जन्मा पत्रिकाएँ थीं जबकि दिनमान 1964-65 में अस्तित्व में आ चुका था । उदयन और मेरी पहली मुलाकत दिनमान में ही हुई थी ।दूसरे हम दोनॉ ने 1989 में अपनी अपनी नौकरियां छोड़ कर एक जैसी अखबार की ज़िम्मेदारी संभाली थी इसे भी कुछ लोग संयोग नहीं मानते थे और न ही रमेश नैयर को रायपुर से बुलाकर उसे संडे ऑब्जरवर का दायित्व सौंपना । हक़ीक़त जान लीजिए उदयन शर्मा के दफ्तरी काम से मेरा कभी कुछ लेना देना नही रहा ।हम लोग शुद्ध मित्र थे औरहम दोनों के बीच बातचीत प्रोफ़ेशनल ही हुआ करती थी । ऐसा प्यारा और संवेदनशील मेरा दोस्त महज़ 52 बरस की उम्र में ही चल बसा अपने सीने में तमाम किस्म की मानवीय योजनाएं लिए हुए । ऐसे ज़िंदादिल दोस्त के बिछुडने का दर्द मैं सदा महसूस करता हूं और ज़िंदगी भर करता रहूंगा ।

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