sabमीटू के लिए मंत्री समूह का गठन

हमारे देश में मीटू अभियान के जोर पकड़ने के बाद महिला उत्पीड़न और शारीरिक शोषण के जितने भी मामले हैं, उसके निराकरण हेतु केंद्र सरकार एक मंत्री समूह का गठन करने के बारे में सोच रही है. इसके पहले केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने यह प्रस्ताव सरकार के पास रखा था कि रिटायर जजों की एक कमिटी गठित की जाए, जो इन शिकायतों का निराकरण करे.

लेकिन केंद्र सरकार ने उस प्रस्ताव को ठुकराते हुए यह एक नया प्रस्ताव सामने लाया कि एक मंत्री समूह का गठन किया जाए, जिसमें एक वरिष्ठ महिला मंत्री अध्यक्ष हो, वह इन तमाम शिकायतों की जांच करेगी और उसके बाद इस पर क्या कार्रवाई हो और सरकार ऐसे उत्पीड़न को रोकने के लिए क्या कदम उठा सकती है, इसके बारे में सरकार को सुझाव देगी. उसके बाद केंद्र कुछ नए ठोस उपाय सामने लाएगी.

खबर के पीछे की खबर ये है, हमारे देश में महिला उत्पीड़न को लेकर पहले से ही बहुत कड़े कानून बने हुए हैं. लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि बने हुए कानूनों का इंप्लीमेंेटेशन सरकारें करवा नहीं पाती हैं. इसीलिए महिला उत्पीड़न के ये मामले सामने आते हैं. मीटू अभियान के तहत कोई नई बात सामने नहीं आई. जहां महिलाएं काम करती हैं, उस कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ यदि शारीरिक शोषण होता है या उनका उत्पीड़न होता है तो वो कम्पलेन कर सकती हैं. ये प्रोवीजन पहले ही कानूनों में है. लेकिन कानूनों का इंप्लीमेंटेशन इतना कमजोर है कि न्याय मिलता नहीं है. इसलिए महिलाएं आगे नहीं आतीं.

मीटू अभियान के तहत इन महिलाओं को एक आवाज देने का प्रयास हुआ. चाहे तो सरकार वर्तमान कानून के तहत ही उन तमाम अपराधियों को सजा दिलवा सकती है, लेकिन जब मंत्री समूह की गठन की बात होती है तो ये मामला और खींचता नजर आता है और हम इस केंद्र सरकार से अपेक्षा भी क्या कर सकते हैं, जिस सरकार के मंत्री पर महिला उत्पीड़न के और शारीरिक शोषण के आरोप लगते हैं, उसके बाद कई दिनों तक वो मंत्री अपने पद पर बना रहता है. बाद में वो इस्तीफा देता है, वो भी इसलिए कि सरकार की छवि खराब न हो. सरकार अपनी छवि बचाने के लिए उससे इस्तीफा लेती है न कि उन महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए. यह है खबर के पीछे की खबर.

किसानों को भिखारी बनाया शासन ने

महाराष्ट्र राज्य के वर्धा जिले के 1050 किसानों द्वारा पांच महीने पहले सरकार को बेची गई फसल का दाम अभी तक उनको नहीं मिला. इस वर्ष पांचवें महीने में जब तुअर की कीमतें एमएसपी से नीचे चली गईं, तो सरकार ने किसानों से तुअर खरीदनी शुरू की. वर्धा जिले के मात्र तीन खरीद सेंटर पर 1050 किसानों ने अपनी तुअर बेची.

सरकार ने नाफेड द्वारा इन तीन सेंटरों पर दस हजार दो सौ दो क्विंटल तुअर खरीदी, जिसका दाम पांच करोड़ बीस लाख बनता है. पिछले पांच महीने से किसान नाफेड के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें पैसा नहीं मिला. कानून तो ये कहता है कि जब किसान अपना अनाज किसी को बेचता है, तो तुरंत उसका भुगतान होना चाहिए. पूरे त्यौहार का समय निकलता गया, दीवाली सामने पर है और किसान पांच महीने पहले अपने बेची तुअर के लिए आज परेशान है.

खबर के पीछे की खबर ये है कि पूरे देश के किसानों की हालत देखी जाए, तो हर राज्य में हकीकत वही है जो वर्धा जिले के किसानों की है. केंद्र सरकार एमएसपी एनाउंस करके अपने आप को महिमामंडित करती है. पूरी तरह से इसका मार्केटिंग होता है कि सरकार किसानों को लागत की डेढ़ गुना एमएसपी दे रही है.

लेकिन वास्तविकता में किसान जब अपनी अनाज मंडी ले जाता है, तो उसे वो एमएसपी नहीं मिलती. जब किसान आंदोलित होता है तो सरकार वह अनाज एमएसपी पर खरीदना शुरू करती है और फिर किसान की दूसरी लड़ाई शुरू होती है, जो अनाज उसने बेचा उसकी कीमत सरकार से वसूलने के लिए. महाराष्ट्र के कई किसान हाईकोर्ट तक जा रहे हैं कि वो सरकार को आदेश दे कि वो हमारा भुगतान करे. उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश तमाम राज्यों में स्थिति एक जैसी है.

सवाल उठता है कि यदि राज्य सरकारों के पास किसानों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है तो क्या घोषणा करने से ही सरकार का दायित्व पूरा होता है. सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार का दायित्व मात्र इतना ही है कि वो एमएसपी का एनाउंसमेंट करे.

राज्य सरकारों के पास एमएसपी पर अनाज खरीदने के लिए पैसा नहीं है, तो क्या केंद्र सरकार का काम नहीं कि उन्हें पैसा मुहैया करवाए. राज्य सरकारों के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं है, तो क्या केंद्र सरकार का ये दायित्व नहीं कि भंडारण की क्षमता बढ़ाने के लिए राज्य सरकारों को पैसा दे. लेकिन फिर वर्तमान मोदी सरकार की समस्या वही है, नीति और नियत साफ है लेकिन क्रियान्वयन पूरी तरह से फ्लॉप है.

सबरीमाला की दोहरी नीति

केरल के सबरीमाला मंदिर में भगवान अयप्पा के दर्शन हेतु महिलाओं के प्रवेश को लेकर पूरे दक्षिण भारत में राजनीति गरमाई हुई है और कई राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र सामने आया है. सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक को हटाते हुए कहा कि महिलाओं का भी उतना ही अधिकार है जितना पुरुषों का और वो भी अपने भगवान अयप्पा के दर्शन के लिए मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं. इसके बाद केरल सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को लागू करने का प्रयास किया तो पूरे केरल में अयप्पा भक्तों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए.

भारतीय जनता पार्टी इन सभी प्रदर्शनकारियों को नेतृत्व प्रदान कर रही है. कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र में अयप्पा के भक्तों की भरमार पड़ी हुई है और इन सभी राज्यों में सभी भक्त आंदोलित हैं. आश्चर्य की बात है कि भारतीय जनता पार्टी बढ़-चढ़कर इन प्रदर्शनों में हिस्सा ले रही है. भारतीय जनता पार्टी का आरोप है कि केरल सरकार हिंदू विरोधी कार्रवाई कर रही है. यानि केरल सरकार यदि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करती है, तो वो हिंदू विरोधी है.

खबर के पीछे की खबर ये है कि महिलाओं को मातृ शक्ति के नाम से पूजने वाली भारतीय जनता पार्टी दक्षिण में महिलाओं के प्रवेश को लेकर इतनी आंदोलित क्यों है. मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति देने वाली भारतीय जनता पार्टी हिंदू महिलाओं के खिलाफ दोहरी नीति क्यों अपनाई हुई है. केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में दस करोड़ से ज्यादा अयप्पा के भक्त हैं और भारतीय जनता पार्टी इन्हें एक वोट बैंक के तहत देख रही है. भारतीय जनता पार्टी उत्तर भारत में पूर्ण रूप से व्याप्त है. कर्नाटक में उनकी सत्ता थी. लेकिन फिर सत्ता में वापस नहीं आ पाए. केरल में वो जमीन ढूंढ़ रहे हैं. तमिलनाडु के राजनीतिक समीकरण में भी वो अपनी जगह ढूंढ़ रहे हैं.

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, दोनों जगह वो संभावनाएं ढूंढ़ रहे हैं. ऐसे में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के मुद्दे को भाजपा वोट बैंक के नजरिए से देख रही है. लेकिन इससे पूरे देश में इस राजनीतिक पार्टी का दोहरा चरित्र सामने आता है. उत्तर प्रदेश में जब मुस्लिम महिलाओं का वोट लेना होता है तो तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं को आजादी देने की बात होती है. लेकिन दक्षिण में जब दस करोड़ अयप्पा भक्तों पर एक नजर जाती है, तो फिर वहां महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बन जाती हैं. उन्हें वहां प्रवेश से रोका जाता है.

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