pashu melaचार दशक पूर्व उत्तर बिहार के सीतामढ़ी में लगने वाला पशु मेला सोनपुर के बाद दूसरे नंबर पर रहा है. मेले के प्रति सरकारी व प्रशासनिक उदासीनता ने अब इसके अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है. फलस्वरूप अब पशुपालकों को अपने बैल की अदला बदली के लिए छोटे-छोटे बाजारों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. वहीं मेला से सरकारी राजस्व नहीं मिलने का नुकसान भी हो रहा है. मां जानकी की पावन जन्म स्थली सीतामढ़ी में प्रति वर्ष राम नवमी व विवाह पंचमी के मौके पर पशु मेला लगता रहा है. मगर अब यह महज एक खानापूर्ति बनकर रह गया है. अब कोई ठेकेदार भी मेले का ठेका लेने को तैयार नहीं होता है. वहीं प्रशासनिक स्तर पर भी मेले को लेकर उदासीनता का माहौल है.

यह मेला सूबे के तकरीबन सभी जिलों के अलावा पड़ोसी देश नेपाल के लोगों के लिए भी लाभप्रद रहा है. चार दशक पूर्व तक मेले का विशाल परिक्षेत्र हुआ करता था. तब  सीतामढ़ी के अलावा पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, किशनगंज व पटना समेत अन्य जिले से भारी संख्या में पशुपालकों व किसानों का आना होता था. अलग-अलग प्रांतों से यहां आने वाले पशु व्यापारियों से किसान बैलों की खरीद बिक्री करते थे. उन दिनों महीनों तक सीतामढ़ी में सड़कों पर लोगों का पैदल चलना मुश्किल हो जाता था. अब तो आलम यह है कि मेला कब लगा और कब समाप्त हो गया, इसका भी पता लोगों को नहीं चलता है. कुछ साल पहले तक सरकार   मेला उद्घाटन को लेकर प्रचार भी करती थी, लेकिन अब वह भी समाप्त हो गया है.

जानकारों का कहना है कि सीतामढ़ी के मेले में पहले बेहतर नस्ल के बैल व अन्य पशु-पक्षियों की खरीद-बिक्री के लिए कारोबारी यहां आते थे. किसान इस मेले में महीनों तक पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए रुकते थे. उस वक्त शहर के पश्चिमी हिस्से में रिंग बांध के किनारे से लेकर रेलवे लाइन के दोनों ओर खड़का की सीमा तक वृहद क्षेत्र में मेला लगता था. किसानों की सुविधा के लिए रोशनी, पेयजल व सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए जाते थे. वहीं मनोरंजन के लिए थियेटर व नाटक कलाकारों की टोली भी महीनों यहां जमी रहती थी. हाल में सरकारी प्रावधानों की अनदेखी कर मेला परिक्षेत्र की जमीन की व्यापक स्तर पर बिक्री कर दी गई है. यहां अब घनी बस्ती दिखने लगी है. अब मेला परिक्षेत्र सिकुड़ कर बहुत ही कम दायरे में रह गया है.

ग्राहकों की कमी को देखते हुए अब अन्य प्रांतों से आने वाले पशु व्यापारियों ने भी अपनी दिशा बदल ली है. अब सीतामढ़ी व आस-पास के कुछ जिलों से ही पशुपालक किसान मेला में आ रहे हैं. वह भी बहुत कम समय के लिए. स्थानीय जनप्रतिनिधियों की संवेदनहीनता के कारण भी यह मेला अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. ऐतिहासिक मेले के अस्तित्व को बचाने के लिए अब न तो सरकारी स्तर पर कोई पहल की जा रही है और न ही प्रशासनिक महकमा इस ओर ध्यान दे रहा है.

मेला में मवेशियों के लिए डोरी, घंटी, कौड़ी समेत अन्य सामानों का दुकान लगाने वालों का कहना है कि मां जानकी की जन्म भूमि के प्रति सरकार की उपेक्षा के कारण आज मेला का अस्तित्व खतरे में है. केंद्र व राज्य सरकार को ऐतिहासिक मेले के अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए. एक तरफ राज्य सरकार सीतामढ़ी को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का ख्वाब संजोए है, तो वहीं इसके  सांस्कृतिक व ऐतिहासिक महत्व के आयोजनों को लेकर आंख मूंदे है. केंद्र व राज्य सरकार को मेले के अस्तित्व की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here