एक अहम सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी को ये पता है कि उनके सामने किस तरह की और कितनी चुनौतियां हैं. सीधे-सीधे तो ये दिखाई देता है कि उन्हें अवश्य पता होगा, उनके सामने क्या चुनौतियां हैं और उन्हें उन चुनौतियां का सामना कैसे करना होगा? लेकिन जब हम पिछले दस से पंद्रह वर्षों का आकलन करते हैं, तब ऐसा लगता है यह सोचना कि उन्हें सारी समस्याओं का ज्ञान है, सही नहीं है.

कार्यकर्ताओं से दूर हैं राहुल

राहुल गांधी को लेकर देश में एक सामान्य धारणा है कि उन्हें देश की समस्याओं का ज्ञान नहीं है और वो उन समस्याओं से रूबरू भी नहीं होना चाहते हैं. राहुल गांधी का उनके कार्यकर्ताओं से कोई संपर्क नहीं है. इतने दिनों में राहुल गांधी कार्यकर्ताओं से कम मिले, अपने पसंद के लोगों से ज्यादा मिले. उन समाजशास्त्रियों से मिले, जो सतही किस्म के समाजशास्त्री रहे हैं, जिन्हें स्वयं इस देश के छुपे हुए शक्तिशाली स्रोतों का पता नहीं है. पिछले छह से आठ साल का तो अनुभव या जानकारी हमलोगों के पास है. जब भी उनका कार्यकर्ता उनसे मिलने के लिए समय मांगता है, उसे समय नहीं मिलता और जिसे समय मिलता है, उनकी बातों से समस्या की जड़ तलाशने में उनकी रुचि नहीं है. दो-तीन-चार मिनट बात सुनने के बाद उनका कहना होता है कि इस बात को लिखकर दे दीजिए या कभी कहते हैं कि ये कनिष्क (राहुल टीम के महत्वपूर्ण सदस्य) को बता दीजिए. जो कार्यकर्ता उनसे बात करने जाता था, वो मायूस होकर लौट आता था. राहुल गांधी ने कभी इस बात का महत्व नहीं जाना कि अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं को वे उनके नाम से जानें. वे आज के जमाने के राजनेता हैं. उनके अध्यक्ष बनने से पहले जब भी कोई उनसे मिलने जाता था, तो उसकी तरफ उनका ध्यान कम अपने मोबाइल और आईपैड पर ज्यादा होता था.

राहुल टीम ईमानदार, पर जानकार नहीं

राहुल गांधी के पास बहुत अच्छे गुण भी हैं. राहुल गांधी जहां पुराने लोगों पर विश्वास नहीं करते, वहां अपने मित्रों के ऊपर, जो राहुल टीम कहलाती है, पर बहुत विश्वास करते हैं. यद्यपि उस टीम में हिंदुस्तान को जानने वाले कम लोग हैं, लेकिन जो हैं, वे ईमानदार हैं. लेकिन ईमानदार होना काफी नहीं, जानकार होना भी आवश्यक है. राहुल गांधी सूचना और ज्ञान का फर्कनहीं समझ पाए. वो सूचना के आधार पर फैसले लेते हैं. जिसे विषयों का बुनियादी ज्ञान नहीं हो, वो सूचनाओं को कसौटी पर नहीं कस सकता. वो सूचनाओं के जाल में फंस जाता है और गलत फैसले भी ले लेता है. राहुल गांधी को नॉलेज और इन्फॉर्मेशन का फर्कसमझना चाहिए. राहुल गांधी ईमानदार हैं. अभी तक कोई ऐसी जानकारी नहीं है कि उन्होंने किसी भ्रष्ट व्यक्ति को बचाया हो या अपनी सरकार से किसी बड़े बिजनेस हाउस के लिए काम करने के लिए कहा हो. शायद इसीलिए, उनका और रॉबर्ट वाड्रा का कोई रिश्ता जनता के सामने नहीं है. कांग्रेस के लोग अच्छी तरह से इस बात को समझते हैं कि राहुल गांधी किन्हीं कारणों से रॉबर्ट वाड्रा को पसंद नहीं करते क्योंकि रॉबर्ट वाड्रा भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत आसान लक्ष्य हैं और वो उन्हें या उनके किए गए कामों को इसीलिए बड़ा बना रहे ताकि वक्त आने पर वाड्रा को राहुल गांधी के सामने इस्तेमाल कर सकें. जो भी लोग राहुल गांधी से पिछले एक साल में मिले हैं, उनका ये आकलन है कि उनमें बहुत बदलाव आया है. ये बदलाव क्या है, इसी की परीक्षा बाकी है.

आस-पास के घेरे को थोड़ा ढीला करें

अब तक राहुल गांधी औसतन 8 महीने बाहर और 4 महीने देश में रहे हैं. इस मामले में उन्हें मूडी माना जाता है और उनका जब मन होता है वे छुट्टी मनाने या अपने मित्रों से मिलने विदेश चले जाते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के खुद के लिए पहली बड़ी चुनौती ये है कि वे देश में कितने दिन रहते हैं या वो विदेश जाने की अपनी आदत को बिना बदले पुन: विदेश चले जाते हैं. भारत जैसे देश में राजनीतिक पार्टी का संचालन थोड़ा मुश्किल है. इसके लिए 25 घंटे का राजनीतिज्ञ होना पड़ता है. सारे प्रमुख कार्यकर्ताओं से सीधे संपर्क रखना पड़ता है, सारे पुराने लोगों को सम्मान देना पड़ता है और अपनी पार्टी जैसे विचारधारा वाले दलों के लोगों से भी संपर्क रखना पड़ता है. लोग इस बात पर नजर गड़ाए बैठे हैं कि क्या राहुल गांधी में परिवर्तन होगा या जिस तरह वे पहले अपने चंद साथियों के साथ बैठ कर फैसला करते थे, उसी रास्ते पर वो आगे बढ़ने में यकीन रखते हैं. किसी भी नेता या पार्टी अध्यक्ष के लिए आवश्यक है कि पार्टी के भीतर जितने समूह हैं, सबसे संपर्क रखे और सबके लिए काम तलाशे. अगर ऐसा नहीं होगा तो सब कमजोर हो जाएंगे और बिखर जाएंगे. राहुल गांधी को समझना चाहिए कि बिल्कुल सटीक समय पर सटीक फैसला लें. उससे पहले पूर्ण विमर्श और पूर्ण विश्लेषण और इस फैसले के क्या परिणाम होंगे और उन परिणामों का कैसे सामना करना है, ये पहले से पता होना चाहिए.

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