बुंदेलखंड के चित्रकूट मंडल की धरती का दर्द बहुत ही गहरा है. हर ओर यहां सिर्फ और सिर्फ सिसकियां ही सुनाई देती हैं. यहां प्रकृति रो रही है, लोग रो रहे हैं, पूरा परिवेश रो रहा है. उत्तर प्रदेश के सात जिलों में फैले बुंदेलखंड में लोग आज भी जल, जंगल और जमीन के लिए तड़प रहे हैं. महिलाओं, दलितों और वंचितों की जिंदगी तो बस बोझ बनकर रह गई है. रोजी-रोटी और पानी की समस्या इतनी विकट है कि हर साल केवल इसी वजह से हजारों लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है. सामंतवाद यहां अभी भी जिंदा है. गरीब, बेबस और लाचार लोगों के साथ यहां कानून भी सिसकियां भरता नजर आता है.

समूचे बुंदेलखंड में खुलेआम लूट मची हुई है. जंगलों में धड़ल्ले से वृक्ष काटे जा रहे हैं. पहाड़ के पत्थरों को लोग लूट रहे हैं. उद्योग-धंधों की स्थिति चौपट है. यहां औद्योगिक इकाइयों के  नाम पर अगर कुछ नजर आता है तो केवल स्टोन क्रशर की मिलें.

धनबल और सत्ताबल के गठजो़ड ने बुंदेलखंड का सत्यानाश करके रख दिया है. वनीकरण के नाम पर बस यूकेलिप्टस अथवा विलायती बबूल का रोपण हुआ है. जड़ी-बूटियों और अन्य वन्य उपजों का क्षरण हुआ है. यहां का प्राकृतिक असंतुलन बढ़ गया है. रासायनिक खादों के बेहिसाब प्रयोग से खेतों की उर्वरता नष्ट होती जा रही है. अधिक पानी की जरूरत वाली फसलों के उत्पादन पर जोर देने और प्रशासनिक निष्क्रियता की वजह से धरती बंजर होती जा रही है. चित्रकूट मंडल के पाठा क्षेत्र में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है, जबकि भूगर्भ में 12 किलोमीटर चौड़ा और 110 किलोमीटर लंबा नदी का स्रोत है. अगर कोशिश की जाए तो बुंदेलखंड में पानी की समस्या का निदान असंभव नहीं है. यह गौर करने वाली बात है कि पानी उपलब्ध कराने के मद में बुंदेलखंड में सालाना साठ से सत्तर करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं.
भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का आठवां हिस्सा खुद में समेटे हुए है. झांसी और चित्रकूट मंडलों में विभाजित बुंदेलखंड की आबादी प्रदेश की कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत है. पूरा का पूरा अंचल भूमि उपयोग व वितरण, कार्यशक्ति, जल व सिंचाई, खाद्यान्न उत्पादन और रोजगार के अवसर के मामले में हाशिए पर है. मानवाधिकार हनन की घटनाएं तो यहां आम बात हैं. बुंदेलखंड प्राकृतिक विपदा का हमेशा शिकार होता रहा है. अनावृष्टि की वजह से प्रत्येक दो-तीन वर्ष के बाद बुंदेलखंड का इलाका सूखे की चपेट में आ जाता है.
कभी खरीफ की तो कभी रबी की और कभी-कभी तो दोनों फसलें चौपट हो जाती हैं. यहां की लगभग सोलह प्रतिशत जमीनें या तो बंजर हैं अथवा गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त हैं. शिक्षा यहां बदहाली का शिकार है. बेसिक एवं हायर सेकेंडरी स्कूलों की स्थिति बदतर है. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे की जिंदगी जी रही है. चित्रकूट मंडल में हालात और भी बदतर हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं, गरीबों और वंचितों की हालत गुलामों जैसी है. खनिज संपदाओं पर सामंतों ने क़ब्जा कर रखा है. वन और राजस्व विभाग के लोग जमीन को अपने कब्जे में बताकर आदिवासियों को वहां से खदेड़ देते हैं.
हद तो यह है कि ग्रामीण विकास योजना मंत्री इसी इलाके के हैं, फिर भी यहां के गांवों की दशा अब तक सुधर नहीं पाई है. गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और पलायन जैसी विकराल समस्याएं यहां आज भी बरकरार हैं. ग्रामीणों को आज तक बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं. मजदूरों की मजदूरी हड़पना सत्ता के दलालों की नीति बन गई है. महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना बेरोजगारी की समस्या का हल कर पाने में नाकाम रही है. रोजगार के अभाव में लाखों लोग अपना गांव छोड़कर छह से आठ माह के लिए पलायन कर जाते हैं. सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत गरीबों को मिलने वाला अनाज खुलेआम बाजार में बेच दिया जाता है.
ग्रामीणों की गर्दन कर्ज के फंदे में लटकी हुई है. गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को जन वितरण प्रणाली की दुकानों से राशन नहीं मिल पाता है. विकास कार्यों में कमीशन, लेवी और चोरी आम बात है. कई ठेकेदार बताते हैं कि किसी भी निर्माण कार्य में उन्हें अफसरों को 35 प्रतिशत तक कमीशन देना पड़ता है. ग्रामीण विकास कार्य ठोस नीति और जन भागीदारी के अभाव में विफल साबित हुए हैं. अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जा सकी है, जो ग्रामीण समुदाय के लिए संरचनात्मक ढांचा उपलब्ध करा सके. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सूचनाएं आम जनता तक नहीं पहुंच पाती हैं. असंवेदनशील अफसरों की सामंती मानसिकता के कारण कई दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जाता. गरीब आदिवासी अपने पेट की आग शांत करने के लिए सामा घास की रोटी खाने को मजबूर हैं. प्रशासन भूख से हुई मौतों के मामले सामने नहीं आने देता, क्योंकि उसे अपनी कलई खुलने का डर सताता है.
पिछले एक दशक के दौरान चित्रकूट मंडल के बांदा, महोबा, हमीरपुर और चित्रकूट आदि जिलों में वर्षा औसत होती रही है. बेतवा, केन, धसान, सहजाद और मंदाकिनी जैसी नदियों के बावजूद यहां सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास नहीं किया गया, जिसके चलते यह क्षेत्र लगातार सूखे का शिकार होता रहा है. समाजसेवा की आड़ में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं बुंदेलखंड को चारागाह के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. उन्हें इस क्षेत्र के गरीबों से कोई मतलब नहीं है. इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने ऐसा एक भी काम नहीं किया है, जिसका उल्लेख किया जा सके. फर्जी सम्मेलन और गोष्ठियों के बल पर वे मालामाल हो रही हैं. चित्रकूट जिले के मानिकपुर और मऊ ब्लॉक में शुरुआती दौर में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने थोड़े-बहुत काम किए.  चित्रकूट जिले की आबादी लगभग छह लाख है, जिसमें एक लाख साठ हजार लोग अनुसूचित जाति और जनजाति के हैं. मऊ और मानिकपुर में अनुसूचित जाति और जनजाति के तिहत्तर हजार लोग रहते हैं.
इन दोनों ब्लॉकों की कुल आबादी लगभग दो लाख चालीस हजार है. इस क्षेत्र में रहने वाले ज्यादातर कोल एवं सहरिया आदिवासी पहले अपनी भूमि के मालिक होते थे, लेकिन पिछली एक शताब्दी के दौरान शोषण के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं. डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (यूपी डेस्को) के सर्वेक्षण में बताया गया था कि पाटा के अनुसूचित जाति के 7336 परिवारों में से 2316 बंधुआ मजदूर थे. पूरे क्षेत्र में डाकुओं के गिरोह भी अर्से से सक्रिय हैं. ललितपुर के मड़ावरा में आदिवासी कुपोषण के शिकार हैं. सरकारी विद्यालयों में मिड डे मील योजना के तहत बच्चों को घटिया खाना दिया जा रहा है. पेंशन के लिए भी महिलाओं को भटकना पड़ रहा है. गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे परिवारों के पास राशनकार्ड तक नहीं हैं और न ही शासन-प्रशासन को इसकी फिक्र.

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