हिंदू संस्कृति जिस धरती पर समृद्ध हुई, उसकी आबादी के बारे में हम जान चुके हैं कि वह मूलतः चार जातियों का मिश्रण रही है. इन्हीं जातियों के बीच के वैवाहिक संबंधों ने हमारी संस्कृति को बहुरंगा स्वरूप प्रदान किया. विविधता में एकता हमारी सांस्कृतिक पहचान रही है. न स़िर्फ जातीय, बल्कि भाषाई आधार पर भी भारत की विविधता ग़ौर के क़ाबिल है. अलग-अलग क्षेत्रों में अलग भाषाएं बोली जाती हैं. उत्पत्ति के लिहाज़ से उन्हें  अलग-अलग भाषाई समूहों में वर्गीकृत किया जाता है. इन भाषाओं की अपनी लिपियां हैं, अपना साहित्य है और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भी.
भाषाशास्त्रियों ने इस देश में बोली जाने वाली भाषाओं को कई वर्गों में विभाजित किया है. 76.4 फीसदी लोग आर्य भाषा समूह की बोली बोलते हैं, 20.6 फीसदी द्रविड़ और 3 फीसदी लोग शबर-कराती भाषाभाषी माने गए हैं. मंगोल जाति के लोग तिब्बती-चीनी परिवार की भाषाएं बोलते हैं. इस भाषा पर आर्य भाषाओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है. तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम द्रविड़ परिवार की मुख्य भाषाएं हैं, जो तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में बोली जाती हैं. द्रविड़ भाषाओं के अनेक शब्द और प्रयोग आर्य भाषाओं में आ गए हैं, जबकि संस्कृत के अनेक शब्द द्रविड़ भाषाओं में मिल गए हैं. फिर भी भारत के दक्षिणी राज्यों में उक्त चार भाषाएं ही प्रचलित हैं. दक्षिण भारत से बाहर भी दो जगहों पर द्रविड़ भाषा बोले जाने के सबूत हैं. यह इस बात का सबूत है कि द्रविड़ लोग कभी भारत के दूसरे हिस्सों में भी फैले थे. उदाहरण के तौर पर, बलूचिस्तान की ब्रहुई भाषा द्रविड़ समूह की भाषा मानी जाती है, जबकि झारखंड के प्रमुख आदिवासी ओरांव जो भाषा बोलते हैं, वह भी द्रविड़ों से मिलती-जुलती है.

भाषाओं के वर्गीकरण के संबंध में कई विवाद भी हैं. भाषाशास्त्रियों में इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि ब्रहुई और ओरांव भाषाएं सच में द्रविड़ परिवार की भाषाएं हैं या किसी और परिवार की. आदिवासियों के बीच और भी कई बोलियां प्रचलित हैं, जो वर्गीकरण की दृष्टि से ऑष्ट्रिक एवं आग्नेय भाषा समूह में रखी जाती हैं.

हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, उड़िया, पंजाबी, असमी और कश्मीरी आदि आर्य भाषाएं बताई गई हैं, जो संस्कृत की परंपरा से उत्पन्न हुई हैं. भारत से बाहर आर्य भाषाओं का संबंध इंडो-जर्मन भाषा समूह से है. प्राचीन पारसी, यूनानी, लातीनी, केल्ट, त्युतनी, जर्मन और स्लाव आदि भाषाओं के साथ हमारी संस्कृति का बहुत निकट का संबंध था और वह नाता आज भी है. लातीनी प्राचीन इटली की भाषा थी और अब इटली, फ्रांस और स्पेन में उसकी वंशज भाषाएं मौजूद हैं. प्राचीन केल्ट की मुख्य वंशज आजकल की गैलिक यानी आयरलैंड की भाषा है. जर्मन, ओलंदेज(डच), अंग्रेज़ी, डेन और स्वीडिश आदि भाषाएं जर्मन या त्युतनी परिवार की हैं. आधुनिक रूस एवं पूर्वी यूरोप की भाषाएं स्लाव परिवार की हैं. इन सब भाषाओं का परिवार आर्य वंश कहलाता है. इंडो-जर्मन परिवार की भाषाओं में जो समानता है, उसी से यह अनुमान लगाया गया है कि प्राय: समस्त यूरोपीय भाषाएं उसी भाषा परिवार से निकली हैं, जिस परिवार के भारतीय आर्य थे. यही नहीं, ऋग्वेद केवल भारतीय आर्यों का ही नहीं, बल्कि विश्व भर के आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ है. वेद समूची मनुष्य जाति का प्राचीनतम ग्रंथ है. 19वीं सदी में जब इस सत्य का प्रचार हुआ, तब विश्व भर के अनेक विद्वान संस्कृत का अध्ययन करने लगे और इसी अध्ययन के परिणामस्वरूप आर्य वंश के विस्तृत इतिहास की रचना की जाने लगी. संस्कृत को सभी आर्यों की मूल भाषा सिद्ध करते हुए मैक्समूलर ने लिखा था कि संसार भर की आर्य भाषाओं में जितने भी शब्द हैं, वे संस्कृत की स़िर्फ पांच सौ धातुओं से निकले हैं.
विभिन्न भाषाओं के आधार पर भारत में जातियों की जो पहचान की गई है, उसका उल्लेख करते हुए डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने लिखा है कि भारतीय जनसंख्या की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यत: तीन भाषाओं-ऑष्ट्रिक अथवा आग्नेय, द्रविड़ और इंडो-यूरोपीय (हिंद-जर्मन) में विभक्तकिए जा सकते हैं. नीग्रो से लेकर आर्य तक इस देश में जो भी आए, उनकी भाषाएं इन भाषाओं के भीतर समाई हुई हैं. असल में, भारतीय जनता की रचना आर्यों के आगमन के बाद ही पूरी हुई. उसे ही हम आर्य या हिंदू सभ्यता कहते हैं. आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ. बाद में मंगोल, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हूण और तुर्क जो भी आए, इसमें विलीन होते चले गए. सच में रक्त, भाषा और संस्कृति हर लिहाज़ से भारत की जनता अनेकता में एकता की मिसाल है.

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