आम आदमी पार्टी की पूर्व नेता शाज़िया इल्मी भी भाजपा में शामिल हो गई हैं. समाजवादी पार्टी से जुड़ी रहीं जयाप्रदा भी भाजपा में शामिल हो सकती हैं. जैसा कि कहा जाता है कि मधुमक्खियां वहीं जमा होती हैं, जहां शहद होता है. इसलिए मैं इससे बहुत ज्यादा अचंभित नहीं हूं क्योंकि इन लोगों ने कभी अपनी विचारधारा ज़ाहिर नहीं की, क्योंकि केजरीवाल के साथ जाने का सीधा अर्थ है कि आप साफ-सुथरी राजनीति चाहते हैं, आप पानी और बिजली के दाम कम करना चाहते हैं. आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी हैं, आप सांप्रदायिक हैं या सेकुलर, कोई अपनी विचारधारा नहीं बताता.

अचानक से भाजपा में शामिल होने वालों की भीड़ उमड़ गई है. ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि फिलहाल वो सत्ता में है और अगले पांच साल सत्ता मे बनी रहेगी. लोग विचारधारा के बारे में विचार किये बगैर राजनीति में अपने पैर जमाना चाहते हैं. ऐसे में स्वाभाविक रूप से वहांजायेंगे, जहां उन्हें कोई पद या सत्ता का लाभ मिलेगा. किरण बेदी हमेशा से दिल्ली की पुलिस कमिश्‍नर बनना चाहती थीं, लेकिन उन्हें यह पद नहीं दिया गया. सिस्टम के प्रति इस निराशा की वजह से वह अन्ना हज़ारे के आंदोलन में शामिल हो गईं. इसके बाद आम आदमी पार्टी को फलने-फूलने में उन्होंने सहयोग किया. उन्होंने पिछला चुनाव नहीं लड़ा, इसकी वजह उनका स्वयं का निर्णय या उनके केजरीवाल के साथ मतभेद हो सकते हैं.
अचानक वह भाजपा में शामिल हो गईं, हालांकि इस संबंध में पिछले कुछ महीनों से अफवाहों का बाजार गर्म था कि वह इस दिशा में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि ऐसी अटकलें लगाई जा रहीं थी कि भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करेगी. लेकिन भाजपा ने अभी तक इसकी घोषणा नहीं की है, लेकिन मेरे जैसे सभी लोगों के लिए यह एक रहस्योद्घाटन होगा. किरण बेदी के लोकप्रिय होने की एक ही कहानी है. वह जब दिल्ली में डीसीपी (ट्रैफिक) के पद पर तैनात थीं, तब वह नो-पार्किंग जोन में खड़ी गाड़ियों को क्रेन की मदद से उठवा लेती थीं. उन्होंने यहां अच्छा काम किया इस वजह से उन्हें क्रेन बेदी नाम से जाना जाने लगा. इसके बाद उन्होंने ऐसा कोई शानदार काम नहीं किया. इसके विपरीत उनके द्वारा तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों पर कराये लाठी चार्ज की जांच के लिए सरकार द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति डी पी वाधवा कमेटी की जांच रिपोर्ट में उन पर गंभीर आरोप लगे. आम तौर पर जांच कमेटियां निरर्थक रिपोर्ट देती हैं, जिसमें आरोप ज्यादा गंभीर नहीं होते हैं. लेकिन डी पी वाधवा कमेटी ने बेहतरीन काम किया और 65 पृष्ठ की अपनी जांच रिपोर्ट में तीन बातें साफ तौर पर कहीं, कि साल 1988 में एक वकील को चोरी के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया, यह ठीक था. लेकिन उसे हथकड़ी बांधकर ले जाना गैरक़ानूनी था, इसी वजह से दिल्ली बार एसोसिएशन हड़ताल पर चला गया. किरण बेदी ने आरोपी वकील के हाथों में हथकड़ी लगार्ई. रिपोर्ट में कहा गया कि विरोध प्रदर्शन कर रहे वकीलों के ऊपर तत्कालीन पुलिस उपायुक्त(उत्तर) किरण बेदी द्वारा घटना के एक सप्ताह बाद लाठी चार्ज कराना अनुुचित और विवेकहीन था. उन्होंने लाठीचार्ज का आदेश दिया, उसके बाद सीढ़ियों पर फैले खून को पानी से साफ करवा दिया. यह बेहद निर्मम और क्रूर था. एक और बात जो जांच रिपोर्ट में कही गई कि बेदी निगम काउंसलर की मिलीभगत से उन लोगों की भीड़ तीस हजारी कोर्ट लाईं, जिनका वकीलों के साथ झगड़ा हुआ था. अब भी एक छोटा सा पुलिस अधिकारी जो रिश्‍वत लेता है, अपना काम सही तरीके से नहीं करता है, इस हद तक नहीं जा सकता है.

साल 1988 में एक वकील को चोरी के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया, यह ठीक  था. लेकिन उसे हथकड़ी बांधकर ले जाना गैरक़ानूनी था, इसी वजह से दिल्ली बार एसोसिएशन हड़ताल पर चला गया. किरण बेदी ने  आरोपी वकील के हाथों में हथकड़ी लगार्ई. रिपोर्ट में कहा गया कि विरोध प्रदर्शन कर रहे वकीलों के ऊपर तत्कालीन पुलिस उपायुक्त(उत्तर) किरण बेदी द्वारा घटना के एक सप्ताह बाद लाठी चार्ज कराना अनुुचित और विवेकहीन था.

यह एक अजीब तरह की पुलिस कार्रवाई है, जहां मदद करने अथवा कड़ी कार्रवाई करने की जगह उपद्रवियों को प्रोत्साहित किया गया. यह न ही लोकतंत्र है और न ही पुलिस प्रशासन है, यह भीड़तंत्र है. यहां एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने भीड़तंत्र को प्रोत्साहित करने का काम किया और वह किरण बेदी हैं. उनके पुलिस में होने की वजह से सीबीआई रिपोर्ट वकीलों के विरोध में दायर की गई, पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ कार्रवाई का आश्‍वासन दिया गया लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई. यदि कभी कोई कार्रवाई की भी गई तो वह छोटे अधिकारियों के ख़िलाफ की गई, न कि किरण बेदी के ख़िलाफ. यदि उनके ख़िलाफ कोई कार्रवाई की गई होती तो उन्हें पुलिस सेवा से बर्ख़ास्त कर दिया गया होता और अपमान का सामना करना पड़ता. उन्होंने अपनी राजनीतिक पहुंच का लाभ उठाते हुये अपने रिटायरमेंट या वॉलेंटरी रिटायरमेंट तक स्वयं को बचाये रखा. यह हास्यास्पद है कि सभी ने इस वाकये को बहुत जल्द भुला दिया. जब वह टीवी परिचर्चा में शामिल होती थीं, तब वह उन्हीं नेताओं को, प्रशासन को भला-बुरा कहती थीं जिनका लाभ वह अपने पूरे करियर के दौरान उठाती रहीं. उनकी जो छवि बनी है, वह वास्तविक नहीं है. यह उनकी गढ़ी गई छवि है, जो टीवी पर दिखाई जाती है. उनका पुलिस अधिकारी के रूप में करियर रिकॉर्ड इतना अच्छा नहीं है कि उन्हें एक बेहतरीन पुलिस अफसर का खिताब दिया जा सके.
अब भाजपा अपने विवेक के आधार पर उनका चुनाव कर रही है. यदि पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करती है तो इससे उसका दीवालियापन ही ज़ाहिर होगा. इस सीधा सा मतलब यह है कि इतने सालों तक दिल्ली में काम करने के बावजूद, वह एक ऐसा नेता नहीं बना सकी जो उसके मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बन सके. वह पार्टी में हाल ही में शामिल हुए एक व्यक्तिको यह पद देना चाहते हैं. यह भाजपा की वास्तविक सोच को दर्शाता है कि वह पार्टी के फासीवादी रवैये को आगे ले जाने के लिए बिल्कुल सही शख्सियत हैं. यदि वकीलों पर लाठीचार्ज हो सकता है तो आम जनता के साथ ऐसा कभी भी हो सकता है, उसकी क्या हैसियत है? यदि भाजपा ताकत से सत्ता चलाना चाहती है तो किरण बेदी इस काम के लिए बिल्कुल उपयुक्त साबित होंगी. यह वाकई एक रहस्योद्घाटन है कि अन्ना हजारे और केजरीवाल के राजनीति में प्रवेश के बाद वह भी राजनीतिक मैदान में कदम रख चुकी हैं. लेकिन उनका एजेंडा क्या है?
पहला काम जो एक सरकार को करना चाहिए वह यह है कि डी पी वाधवा कमेटी की रिपोर्ट पर कार्रवाई की मांग करे, क्योंकि तीस हजारी दिल्ली सरकार के प्रशासनिक कार्यक्षेत्र में आता है. एक बड़ी घटना 1988 में घटी थी लेकिन अब तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. अब किरण बेदी से इस घटना पर कार्रवाई करेेंगी, आप ऐसा कैसे सोच सकते हैं. मैं नहीं जानता कि दूसरे राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं. सबको एकजुट होकर वाधवा कमेटी की रिपोर्ट को अंजाम तक पहुंचाने के लिए आवाज़ उठानी चाहिए. यदि ऐसा होता है तो किरण बेदी किसी भी पद पर बने रहने की अर्हता खो देंगी.
आम आदमी पार्टी की पूर्व नेता शाज़िया इल्मी भी भाजपा में शामिल हो गई हैं. समाजवादी पार्टी से जुड़ी रहीं जयाप्रदा भी भाजपा में शामिल हो सकती हैं. जैसा कि कहा जाता है कि मधुमक्खियां वहीं जमा होती हैं, जहां शहद होता है. इसलिए मैं इससे बहुत ज्यादा अचंभित नहीं हूं क्योंकि इन लोगों ने कभी अपनी विचारधारा ज़ाहिर नहीं की, क्योंकि केजरीवाल के साथ जाने का सीधा अर्थ है कि आप साफ-सुथरी राजनीति चाहते हैं, आप पानी और बिजली के दाम कम करना चाहते हैं. आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी हैं, आप सांप्रदायिक हैं या सेकुलर, कोई अपनी विचारधारा नहीं बताता. इसलिए सुविधाजनक तरीके से वे किसी भी विचारधारा को अपना लेते हैं. जयाप्रदा वास्तव में एक सेकुलर पार्टी के साथ थीं, अब उन्हें अपने अचानक हुए हृदय परिवर्तन को स्पष्ट करना होगा. राजनेता दल बदलने के लिए अच्छे बहाने ढूंढ लेते हैं. अंततः वह भी कोई न कोई बहाना अवश्य ढूंढ लेंगी.
अब किरण बेदी के मसले पर वापस आते हैं, भाजपा को गंभीरता से विचार करके पार्टी के अंदर से मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में किसी उपयुक्त नेता का चुनाव करना चाहिए. भाजपा में सुषमा स्वराज से लेकर हर्षवर्धन तक कई ऐसे लोग हैं जो समय-समय पर दिल्ली की राजनीति से जुड़े रहे हैं. वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते हैं. ऐसे लोगों के बजाये किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना यह साबित करता है कि आठ महीने बाद ही भाजपा भी आसान विकल्प चुनने के लिए बाध्य हो गई है. मुझे आशा है कि उन्हें इस निर्णय के लिए सद्बुद्धि मिले.

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