दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीखें अभी घोषित नहीं हुई हैं, लेकिन सभी राजनीतिक दलों ने अपनी चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं. इन तैयारियों के बीच, सभी राजनीतिक दलों की नज़र मुस्लिम वोटों पर भी है. भाजपा जहां एक ओर मुसलमानों के घर-घर जाकर उन्हें पार्टी में शामिल करने की कोशिश कर रही है, वहीं आम आदमी पार्टी को लगता है कि पिछली बार की तरह इस बार भी मुसलमानों के अधिकतर वोट उसे मिलने जा रहे हैं. लेकिन, दिल्ली में 11 फ़ीसद हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिम मतदाताओं के मन में विधानसभा चुनाव को लेकर क्या चल रहा है, यह जानने के लिए चौथी दुनिया टीम ने विभिन्न इलाकों में दौरा कर लोगों से बातचीत की. पेश है, उसी पर आधारित यह रिपोर्ट… 
muslimsदिल्ली में विधानसभा चुनाव का रास्ता साफ़ हो चुका है और कुछ ही दिनों में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा भी हो सकती है. इसी को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं. अगली सरकार किसकी होगी, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है. पिछली बार दिसंबर 2013 में जब दिल्ली विधानसभा चुनाव हुए थे, तो यहां अरविंद केजरीवाल का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था, लेकिन इस बार मोदी की जय-जयकार हो रही है. कांग्रेस न तो तब कहीं मुकाबले में थी और न अब है. इसलिए आम लोगों में बात स़िर्फ दो ही दलों की हो रही है यानी आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी. कुछ लोग यह मान रहे हैं कि पिछली बार तो आम आदमी पार्टी सरकार बनाने में सफल हो गई थी, लेकिन इस बार दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाएगी. हालांकि, यह भी सच्चाई है कि पिछली बार जब पूरी दिल्ली पर अरविंद केजरीवाल का बुखार चढ़ा हुआ था, उस समय भी चुनाव में आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और सरकार बनाने के लिए उसे कांग्रेस का समर्थन लेना पड़ा था. इसलिए पूरे विश्‍वास से यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस समय जब पूरे देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का डंका बज रहा है, तो भाजपा दिल्ली में अगली सरकार बनाने में सफल हो ही जाएगी. अगर पिछले चुनाव की बात करें, तो 70 सदस्यीय विधानसभा के लिए 4 दिसंबर, 2013 को हुए मतदान में भाजपा को 31, आप को 28 और कांग्रेस को केवल 8 सीटें मिली थीं. इस प्रकार कोई भी पार्टी बहुमत लाने में असफल रही थी. कांग्रेस से समर्थन मिलने के बाद आम आदमी पार्टी सरकार बनाने में सफल तो हो गई थी, लेकिन 49 दिनों के बाद अरविंद केजरीवाल देश को जीतने के चक्कर में दिल्ली छोड़कर भाग गए थे.
दिल्ली के लगभग एक करोड़ 20 लाख मतदाताओं में 11 फ़ीसद मतदाता मुस्लिम हैं. लिहाजा हर बार के चुनाव की तरह इस बार भी सभी राजनीतिक दल मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. भाजपा ने इसके लिए बीते 11 नवंबर से दिल्ली में एक बड़ी मुहिम शुरू की है. पार्टी का फोकस विशेष रूप से ओखला, चांदनी चौक, सीलमपुर, जाफ़राबाद और नागलोई जैसे क्षेत्रों पर है, जहां मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं. भाजपा नेता-कार्यकर्ता मुसलमानों के घर-घर जाकर उनसे पार्टी में शामिल होने की अपील कर रहे हैं. साथ ही उन्हें समझा रहे हैं कि मोदी केवल हिंदुओं के नहीं, बल्कि सभी भारतीयों के नेता हैं. दिल्ली भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष आतिफ रशीद की मानें, तो अब तक 20 हज़ार मुस्लिम मतदाता भाजपा में शामिल हो चुके हैं. लेकिन, इन दावों के विपरीत आम मुसलमान की सोच भाजपा के प्रति अब भी पूरी तरह से बदली नहीं है. ओखला विधानसभा क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले शौकत अली का कहना है कि भाजपा तो किसी भी तरह सरकार बनाने के क़ाबिल नहीं है, क्योंकि जहां-जहां उसकी सरकार है, वहां आरएसएस का दिमाग़ चढ़ा हुआ है. रही बात कांग्रेस की, तो वह फिर भी ठीक है, लेकिन इस समय उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है, जो जनता के निचले वर्ग की बात सुन सके. ऐसी स्थिति में एक आम आदमी पार्टी रह जाती है, जो ग़रीब आदमी से मिलकर उसका दु:ख-दर्द सुनती है. लेकिन, यह भी बता दूं कि वह केवल दु:ख-दर्द सुनती है, लेकिन उसका कोई हल नहीं निकालती. हो सकता है, इसकी वजह यह हो कि उसे 49 दिनों के अलावा कुछ करने का मौक़ा नहीं मिला. इसलिए उसे एक बार फिर मौक़ा देकर देखना चाहिए.

मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में से एक सीलमपुर विधानसभा क्षेत्र में कुल एक लाख 60 हज़ार मतदाताओं में 60 फ़ीसद मुसलमान हैं. वे यहां किसी भी उम्मीदवार की हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यहां कांग्रेस के चौधरी मतीन अहमद पांच बार से चुनाव जीतते आ रहे हैं. इस बार भी सीलमपुर के मुसलमानों का रुझान चौधरी मतीन अहमद की ओर दिखाई देता है.

यह बात सच है कि जिस समय देश में लोकसभा चुनाव हो रहे थे, उस समय कुछ मुसलमानों और खासकर मुस्लिम नौजवानों ने भाजपा के पक्ष में वोट डाले थे. मुसलमानों के इस वर्ग को नरेंद्र मोदी से काफ़ी उम्मीदें थीं और प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने भी अपने सभी भाषणों में देश के 125 करोड़ लोगों को साथ लेकर चलने और सबके विकास की बात कही, लेकिन दूसरी ओर लव-जिहाद या अन्य मुस्लिम विरोधी गतिविधियों पर वह मौन साधे रहे, जिसके चलते मुसलमानों का भाजपा समर्थक तबका भी इस पार्टी को लेकर संदेह की स्थिति में आ गया. दिल्ली के भी कुछ मुसलमान भाजपा को इसी नज़रिये से देखते हैं. इस लिहाज से ओखला विधानसभा क्षेत्र के मुस्लिम मतदाताओं का रुझान आम आदमी पार्टी की ओर अधिक दिखाई देता है. हालांकि, यह भी सच है कि पिछली बार यहां से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार इरफान उल्ला खां को केवल 17 फ़ीसद वोट मिले थे और वह हार गए थे. जबकि जीत हासिल करने वाले कांग्रेस के उम्मीदवार आसिफ मोहम्मद खां को 36 फ़ीसद से अधिक वोट मिले थे. इरफ़ान दूसरे स्थान पर भले ही रहे, लेकिन उनकी हार 27 हज़ार वोटों के भारी अंतर से हुई थी. लिहाज़ा, इस बार आम आदमी पार्टी यहां से चुनाव जीत ही जाएगी, ऐसा कहना बहुत मुश्किल है.
ओखला के विपरीत बाबरपुर, चांदनी चौक और मटिया महल विधानसभा क्षेत्रों के मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की ओर अधिक दिखाई देता है. हालांकि, इन क्षेत्रों में मुसलमानों का एक वर्ग आम आदमी पार्टी के भी पक्ष में जाता हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन कांग्रेस समर्थकों के मुकाबले उनकी संख्या कम है. बाबरपुर में मुसलमानों की आबादी लगभग 48 फ़ीसद है. पिछले चुनाव में यहां मुसलमानों का वोट कांग्रेस, बसपा, पीस पार्टी और आम आदमी पार्टी में विभाजित हो गया था, जिसके चलते भाजपा के उम्मीदवार नरेश गौड़ जीत गए थे. दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस के जाकिर खां को 25.81, तीसरे नंबर पर रहे आम आदमी पार्टी के गोपाल राय को 22.37, चौथे नंबर पर रहे पीस पार्टी के फुरकान कुरैशी को 8.71 और पांचवें नंबर पर रहे बसपा के भूरे खां को कुल 4.37 फ़ीसद वोट मिले थे. बाबरपुर विधानसभा क्षेत्र के मतदाता शाहीन उर्फ बब्लू कहते हैं कि कांग्रेस के विनय कुमार इस बार यहां से टिकट हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर कांग्रेस उन्हें यहां से उतारती है, तो वह बुरी तरह हारेंगे, लेकिन अगर कांग्रेस की ओर से जाकिर को दोबारा टिकट मिलता है, तो वह चुनाव जीत जाएंगे. बब्लू कहते हैं कि फुरकान कुरैशी भी बसपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. वह जनता के किसी काम के नहीं हैं, लेकिन पैसे वाले हैं. अगर कांगे्रस उन्हें यहां से लड़ाती है, तो वह भी जीत सकते हैं.
सेंट्रल दिल्ली के पटेल नगर विधानसभा क्षेत्र में लगभग पांच हज़ार घर मुसलमानों के हैं, जिनमें लगभग 15 हज़ार मतदाता हैं. ज़ाहिर है, किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह एक बड़ा वोट बैंक है. यहां के अधिकतर मुसलमान पहले कांग्रेस को वोट देते थे, लेकिन पिछली बार अधिकतर ने आम आदमी पार्टी को वोट दिए. शायद यही वजह थी कि पिछली बार यहां से आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी वीना आनंद लगभग 38 फ़ीसद वोट पाकर जीतने में कामयाब हुई थीं, जबकि कांग्रेस तीसरे नंबर पर पहुंच गई. इस बार यहां के मुसलमान क्षेत्रीय विधायक से नाराज़ नज़र आ रहे हैं. उनकी शिकायत है कि वीना आनंद ने क्षेत्र और ख़ासकर यहां के मुसलमानों के लिए कुछ भी नहीं किया. स्थानीय निवासी अलीम अख्तर चौथी दुनिया से कहते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में हमने इस आशा के साथ आम आदमी पार्टी को वोट दिया था कि यह नई पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से अलग साबित होगी. वादे भी इसने बड़े लंबे-चौड़े किए थे, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह भी अन्य दलों जैसी निकली. यहां पिछले 15 वर्षों से जल बोर्ड का मीठा पानी नहीं आता. यहां की सड़कें अपने जनप्रतिनिधि की शिकायत खुद बयान करती नज़र आती हैं. प्रतिदिन सुबह बिजली गायब हो जाती है और तीन-चार घंटे नहीं आती. 2013 के चुनाव से पहले हमने हमेशा कांग्रेस को वोट दिया, लेकिन कांग्रेस सरकार ने हमें क्या दिया? यहां हर समाज के लिए चौपालें बनाई गईं, लेकिन मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कालोनी, न्यू रंजीत नगर को चौपाल तो क्या, बारात घर या एक सामुदायिक केंद्र तक नहीं दिया गया. यहां के पार्क कूड़ाघर बने हुए हैं. बिजली-पानी से हम महरूम होकर रह गए हैं. ऐसी स्थिति में हम किससे उम्मीद करें, कौन-सी पार्टी को वोट दें? हम स्वयं असमंजस में हैं, इसलिए भविष्य का फैसला भविष्य में ही करेंगे.
मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में से एक सीलमपुर विधानसभा क्षेत्र में कुल एक लाख 60 हज़ार मतदाताओं में 60 फ़ीसद मुसलमान हैं. वे यहां किसी भी उम्मीदवार की हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यहां कांग्रेस के चौधरी मतीन अहमद पांच बार से चुनाव जीतते आ रहे हैं. इस बार भी सीलमपुर के मुसलमानों का रुझान चौधरी मतीन अहमद की ओर दिखाई देता है. आम आदमी पार्टी का चूंकि यहां कोई प्रभाव नहीं है, इसलिए यहां मुस्लिम वोटों के विभाजन की कोई संभावना नहीं है. दूसरी ओर, अगर मुसलमानों के कुछ वोट भाजपा की ओर चले जाते हैं, तो भी कोई खास तब्दीली होती नज़र नहीं आती. सीलमपुर से संबंध रखने वाले हकीम फहीम बेग का कहना है कि यहां (सीलमपुर) का मुसलमान चौधरी मतीन अहमद से संतुष्ट नहीं है, लेकिन उसके पास कोई विकल्प भी नहीं है. मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है और अगर वह चौधरी मतीन अहमद को वोट देगा, तो केवल उनके जाने-पहचाने मुस्लिम चेहरे होने के कारण. सीमापुरी में भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी रहती है. पिछली बार यहां के अधिकतर मुसलमानों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया था और इस बार भी वे इसी पार्टी के समर्थन में खड़े दिखाई देते हैं. सीमापुरी में ट्रांसपोर्ट का कारोबार करने वाले मोहम्मद इजरायल ने बताया कि वह आप के लिए वोट करने जा रहे हैं, क्योंकि आप की 49 दिनों की सरकार के दौरान ग़रीब आदमी ख़ुशहाल हो गया था. उस दौरान आरटीओ में धांधली ख़त्म हो गई थी, अस्पतालों में सफाई रहती थी, दवाएं मुफ्त मिलने लगी थीं और पानी-बिजली की क़ीमतें कम हो गई थीं. कांग्रेस ने तो स़िर्फ कहा, लेकिन मुसलमानों की बेहतरी के लिए 15 सालों में कुछ नहीं किया. हमारे बच्चों को अच्छी तालीम चाहिए, जो आम आदमी पार्टी की सरकार में संभव है.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दिल्ली के मुसलमानों का वोट इस बार भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच बंटने की पूरी संभावना है. अब उनकी पसंद का झुकाव किस तरफ़ ज़्यादा होगा और किस तरफ़ कम, यह तो आने वाला समय ही बताएगा.


मुसलमान कांग्रेस से नाराज़
पिछले 40 वर्षों से हम कांग्रेस को वोट देते आ रहे हैं, लेकिन 2013 के विधानसभा चुनाव में हमने आम आदमी पार्टी को वोट दिया. कारण यह कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता छोटे कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं देते थे. मैं दिल्ली में कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का उपाध्यक्ष रहा हूं. मैंने न केवल पटेल नगर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस की सेवा की, बल्कि दिल्ली के अन्य क्षेत्रों और बाहर जाकर भी पार्टी का प्रचार-प्रसार किया, लेकिन कांग्रेस ने हमारी कौम के लिए कुछ नहीं किया. इसकी एक मिसाल यह है कि मैं पिछले 10 वर्षों से अपने क्षेत्र के लिए कब्रिस्तान की लड़ाई लड़ रहा हूं. दिल्ली सरकार एवं क्षेत्रीय सांसद के कार्यालय और घर के चक्कर काटते-काटते थक चुका हूं. केंद्र और राज्य में यानी दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन अफ़सोस कि कामयाबी हाथ नहीं लगी. इसके लिए मैंने राहुल गांधी से मिलने के लिए समय मांगा, लेकिन उनके इर्द-गिर्द बैठी मंडली ने उनसे मिलने का समय नहीं दिया. हां, कांग्रेस की शीला सरकार ने दिल्ली में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने की घोषणा ज़रूर की, लेकिन व्यवहारिक रूप से देखें, तो न स्कूलों में उर्दू पढ़ाई जा रही है, न वहां उर्दू शिक्षक हैं, न सरकारी विभागों में उर्दू में लिखे आवेदन स्वीकृत किए जा रहे हैं और न उर्दू को रोजी-रोटी से जोड़ा गया. 2013 के विधानसभा चुनाव में पटेल नगर क्षेत्र से कांग्रेस ने अपने मौजूदा विधायक को फिर टिकट दिया, तो हमने खुलकर विरोध किया, लेकिन इसके बावजूद उसी को उम्मीदवार बनाया गया, तो हमने अपना वोट एक बिल्कुल नई पार्टी को दे दिया और वह पटेल नगर विधानसभा सीट से सफल भी हो गई, लेकिन आम आदमी पार्टी की विधायक भी हमारी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं. हमें एक बार फिर वोट के लिए पुनर्विचार करना है और कौन-सी पार्टी कौन-सा उम्मीदवार ला रही है, यह सब देखकर हम अंतिम निर्णय लेंगे. -मुख्तार अहमद, पटेल नगर, दिल्ली.


 

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