पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में निर्णायक भूमिका थी

पहली मुलाकात उनसे रायपुर में हुई जब वह मध्यप्रदेश सरकार में शिक्षामंत्री थे ।मेरा संबंध भी रायपुर से रहा है ।माध्यमिक स्कूल तक की पढ़ाई मैने वहां के माधव राव सप्रे हाई स्कूल से की थी और छत्तीसगढ़ कॉलेज में दाखिला भी ले लिया था लेकिन स्नातक की डिग्री पंजाब विश्वविद्यालय से ली ।रायपुर मेरा आना जाना लगा रहता है । उन दिनों मैं ‘दिनमान’ में काम करता था ।किन्हीं कारणों से रायपुर जाना हुआ था ।मेरे पत्रकार मित्र रमेश नैयर ने बताया कि कबीर समारोह में भाग लेने के लिए अर्जुन सिंह जी आने वाले हैं ।अर्जुन सिंह जी के व्यक्तित्व और विचारों से तो मैं थोड़ा बहुत परिचित था लेकिन उन्हें रू-ब-रू देखने,मिलने, जानने और सुनने का अवसर नहीं मिला था ।कबीर पर कई विद्वानों ने गहरा अध्ययन कर बहुत से ग्रंथ लिखे हैं ।सिखों के धार्मिक गुरु ग्रंथ साहब में भी कबीर की वाणी है ।इस समारोह में भाग लेने के लिए देश विदेश से कबीरपंथी आये थे ।कुछ ऐसे विद्वान भी थे जिन्होंने उनके काव्य पर शोधकार्य भी किए थे ।कुछ लोगों को इस बात पर भी ताज्जुब हो रहा था कि कबीर समारोह में राजनीतिक नेता को बुलाने की क्या तुक है ।इसलिए कि वह शिक्षामंत्री हैं और इस नाते उन्हें आमंत्रित किया गया है ।जितने लोग उतनी बातें, उतनी टिप्पणियां और उतनी ही प्रतिक्रियाएं ।खैर अर्जुन सिंह ने उन सभी नकारात्मक सोच वालों को गलत सिध्द कर दिया जो आएं बाएं शाएं बकते थे ।उन्होंने सभी विद्वानों और श्रोताओं को यह भी जतला दिया कि राजनीतिक नेता भी पढ़े लिखे होते हैं और उस विषय की उन्हें जानकारी होती है जिस विषय पर आयोजित समारोह का उदघाटन करने के लिए वह भोपाल से चल कर रायपुर आये थे ।तब तो रायपुर भी मध्यप्रदेश का हिस्सा था ।

अर्जुन सिंह पूरी तैयारी के साथ लैस होकर आये थे यह जानते हुए कि समारोह के बाद उनसे प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं ।अपने
भाषण में अर्जुन सिंह ने कबीर को न केवल उनके समय में उनकी भूमिका और समाज सुधार के संदर्भ में उनका प्रस्तुतिकरण किया बल्कि आज के दौर में उनकी वाणी से उनकी सूक्तियों और दोहों का उल्लेख करते हुए उनकी उपयोगिता को भी निरुपित किया। कुछ कबीरपंथी और कबीर विशेषज्ञ अर्जुन सिंह के सटीक उदबोधन से इस कद्र प्रभावित हुए कि उनके मुंह से सहसा निकल पढ़ा कि क्या यह शिक्षामंत्री कबीर साहित्य का अध्येता है या विशेषज्ञ ।।उपस्थित जनसमूह को भी लगा कि अर्जुन सिंह का अपने विषय का गहन अध्ययन है तथा उनके विचार उनकी निजी गंभीर अध्ययनशीलता का प्रतिबिंब ही कहा जाएंगे । उन के विचारों में हल्कापन नहीं था और न ही किसी तरह की राजनीति ।अर्जुन सिंह का यह कहना कि कबीर जैसे संतों की प्रासंगिकता हर युग में और हर पीढ़ी के लिए सदा ही जीवंत रही है और सदैव प्रेरणा का स्रोत सिध्द होगी बहुत ही सटीक और सारगर्भित टिप्पणी थी ।कबीर ने दलितों, शोषितों, पीड़ितों और समाज के निचले और ठुकराए हुए तबकों के जागरण और उत्थान के लिए जो आवाज़ बुलंद की थी उसकी सार्थकता आने वाले हर युग में बनी रहेगी ।कबीर की वाणी को कुछ लोग भक्ति आंदोलन के अग्रणी के तौर पर भी देखते हैं । गुरु ग्रंथ साहब में भी कबीर की वाणी संकलित है ।जो भी व्यक्ति गुरु ग्रंथ साहब के समक्ष नतमस्तक होता है वह सिख गुरुओं की वाणी के साथ साथ उन सभी सोलह संतों की वाणी के सामने भी माथा टेकता है जो गुरु ग्रंथ साहब में विराजमान हैं ।इस में कबीर वाणी भी शामिल है ।

कबीर पर इस बेमिसाल और स्मरणनीय भाषण के बाद अर्जुन सिंह जी से एक संक्षिप्त भेंट ही हो पायी ।जब मैंने उन्हें बताया कि मैं ‘दिनमान’ में काम करता हूं तो उन्होंने कहा कि जब वह दिल्ली आएंगे तो मुझ से लंबी बातचीत होगी ।वह अपने वादे पर कायम रहे ।दिल्ली आने पर मध्यप्रदेश भवन में उनसे लंबी बात हुई ।उन्होंने मध्यप्रदेश की शिक्षा प्रणाली में किये जाने वाले सुधारों के बारे में विस्तार से बताया ही अलावा इसके कुछ राजनीतिक मुद्दों पर भी चर्चा हुई ।’दिनमान’ में दो अलग अंकों में अर्जुन सिंह से जुड़े संवाद छपे-एक रायपुर के कबीर समारोह बाबत और दूसरा दिल्ली में हुई लंबी बातचीत को लेकर ।मुझे मालूम था कि अर्जुन सिंह जी ‘दिनमान’ नियमित तौर पर पढ़ते हैं इसलिए दूसरी बार जब वह दिल्ली आये तो उनके निजी सचिव ने फ़ोन करके कहा कि ‘साहब’ ने आपसे मिलने का निमंत्रण दिया है ।उन्होंने समय भी बता दिया । इस बार अर्जुन सिंह से विभिन्न विषयों पर खुलकर बातचीत हुई जिसमें से ज़्यादातर मेरी ‘निजी’ जानकारी के लिए थी ।

अर्जुन सिंह जी के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद मुलाकातों की रफ्तार कुछ बढ़ गयी ।दिल्ली के अलावा हम लोग भोपाल में भी मिलने लग गये थे ।उनमें एक सिफत थी । वह अपने वादे और वक़्त के बहुत पक्के थे ।किसी को समय दे दिया तो उसपर कायम रहना कोई अर्जुन सिंह जी से सीखे मुझे पहले ‘दिनमान’ और बाद में ‘संडे मेल’ के लिए जब भी किसी संवाद के लिए बात करनी होती तो मेरे हाथ कभी निराशा नहीं लगती थी ।कभी कभी तो किसी विषय पर यदि छोटी-सी टिप्पणी भी लेनी होती तो मनाही नहीं थी ।मैं अपने आप को उन खुशनसीब पत्रकारों में मानता हूं जिन्हें अर्जुन सिंह के अतिरिक्त न तो हरकिशन सिंह सुरजीत,अटल बिहारी वाजपेयी,इन्द्रजीत गुप्ता,बलराम जाखड़, प्रकाशवीर शास्त्री या पीलू मोदी ने कभी त्वरित प्रतिक्रिया देने से भी इंकार किया हो । अर्जुन सिंह की एक खूबी और थी,वह मेरे किसी भी प्रश्न पर ‘नो कमेंट्स’ कह कर टालते नहीं थे ।

जब कभी भी मुझे अर्जुन सिंह से विधिवत इंटरव्यू लेना होता तो मैं अपना टेप रिकार्डर साथ लेकर जाया करता था ।मेरे टेप रिकार्डर के साथ साथ उनका टेप रिकार्डर भी चलता था ।ऐसा करना शायद उनकी आदत थी।एक बार जब मैंने उनके टेप करने का रहस्य जानना चाहा तो मेरा यह सवाल सुनने के बाद पहले मुस्कराये फिर बोले कि इसके कई फायदे हैं: पहला मेरे पास भी अपने इंटरव्यू का रिकॉर्ड रहता है कि मैंने किस दिन,कितने बजे किस पत्रकार से किस विषय पर क्या बात चीत की ।मेरे विचारों को कहीं तोड़मरोड़ कर तो नहीं छापा गया ।दूसरे आपका टेप बीच में कहीँ रुक जाये या काम करना बंद कर दे तो ऐसी स्थिति में मेरा यह टेप आपका मददगार होगा ।ऐसी हालत में आप मेरे टेप से अपना काम चला सकते हैं । वास्तव में मुझे एक-दो बार उनसे टेप उधार लेकर अपना संवाद लिखना पड़ा । ऐसा नहीं कि मुझे देने वाले इंटरव्यू ही वह टेप किया करते थे सभी पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन इंटरव्यू की कॉपी अपने ‘बचाव’ के लिहाज़ से अपने पास रखा करते थे ।न जाने उन की लाइब्रेरी में ऐसे कितने महत्वपूर्ण और संवेदनशील टेप सुरक्षित रखे होंगे जिन को ट्रांसक्राइब करने से अर्जुन सिंह जी के व्यक्तित्व के ऐसे आयाम सामने आयें जिनसे अभी तक लोग अनजान हों।संभव है उनके परिवार में इस दिशा में विचारविमर्श हो रहा हो।

अर्जुन सिंह तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे,पंजाब के राज्यपाल, केंद्र में मंत्री तथा कांग्रेस के उपाध्यक्ष भी रहे । वह कांग्रेस के शासनकाल में भी मंत्री रहे तथा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के शासनकाल में भी ।उन्होंने कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली ।दो बार मानव संसाधन विकास (वर्तमान में शिक्षा मंत्रालय) मंत्री रहे-एक बार पी. वी. नरसिंह राव के ज़माने में और दूसरी बार डॉ. मनमोहन सिंह के शासनकाल में । अब उनसे काफी करीबी हो गयी थी जिसके चलते कभी कभी मैं अर्जुन सिंह जी से लिबर्टी भी ले लिया करता था ।यों ही एक बार मैंने उनसे पूछ लिया कि आप पार्टी के वरिष्ठ,निष्ठावान,समर्पित और प्रतिभावान नेता हैं ,फिर भी ऐसी क्या बात है कि आपको आपकी गरिमा और मर्यादा के हिसाब से अतिमहत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए जाते ।मेरे इस कुतूहल भरे प्रश्न पर वह मुस्कराये और बोले कि मैं कांग्रेस पार्टी का अनुशासित सिपाही हूं ।मेरे नेता बखूबी जानते हैं कि वह मेरी सेवाओं का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं,उसी के अनुरूप वह करते हैं और मैं अपने दायित्व का निर्वाह करता हूं । यह शंका भरा सवाल इसलिए तब उठा जब उन्हें संचार मंत्रालय सौंपा गया था ।उनके कुछ समर्थकों और प्रशंसकों को लगा कि अर्जुन सिंह के कद और अनुभव के अनुकूल संचार मंत्रालय नहीं है ।इस प्रश्न पर उन्होंने कोई टिप्पणी न करते हुए मात्र इतना कहा कि आप मंत्रालय के नाम पर मत जाइये उसकी सार्थकता को जानिए और पहचानिये जिसका वास्तविक आकलन भविष्य में होगा ।अर्जुन सिंह ने अपने अनुभव और प्रतिभा से इस मंत्रालय को ऐसा रूप-स्वरूप दे दिया कि आज उस समय के समग्र संचार मंत्रालय को कई हिस्सों में बांटना पड़ गया है । बेशक़ अर्जुन सिंह की दूरदर्शिता के फलस्वरूप ही ऐसा हो पाया ।

अपने नेताओं के प्रति अर्जुन सिंह की आस्था संदेह से परे रही ।चाहे इंदिरा गांधी रही हों या राजीव और सोनिया गांधी । उनकी प्रतिबद्धता में किसी तरह की कमी नहीं आयी ।उन्हें अपने नेताओं से समय समय पर जो भी ज़िम्मेदारियां मिलती रहीं अर्जुन सिंह शिरोधार्य करते रहे थे।बानगी के तौर पर 1985 की एक घटना को रेखांकित किया जा सकता है । 9 मार्च को उन्होंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की ।अपनी सरकार के मंत्रियों की सूची का अनुमोदन कराने के लिए वह दिल्ली पहुंचे ।जब सूची लेकर वह प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मिले तो सूची को हाथ में लेकर उन्होंने अर्जुन सिंह को पंजाब के राज्यपाल का पद संभालने
का निर्देश दिया ।इस आदेश पर न कोई गिला शिकवा और साफ सफाई ।नेता का आदेश मिलने के बाद 12 मार्च को चंडीगढ़ में राज्यपाल पद की शपथ ग्रहण कर ली ।जब किसी पत्रकार ने उनकी इस नियुक्ति की वजह जाननी चाही तो उनकी दो टूक टिप्पणी थी ‘मेरे नेता ने कुछ सोच समझकर ही मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी होगी ।’ निस्संदेह यह जोखिम भरा दायित्व था  आतंकवाद तब पंजाब में चरम सीमा पर था । राज्यपाल का पद संभालने के बाद वह अमृतसर स्वर्ण मंदिर में माथा टेकने के लिए गये और वहां की अतिथि पुस्तक में लिखा:’प्रभु के मंदिर में मेरी सेवा स्वीकार हो ।’ बाद में उन्होंने पंजाब के पत्रकारों,शिक्षाविदों, सभी दलों के राजनीतिक नेताओं से विचारविमर्श शुरू कर शांति बहाली के लिए अन्य वर्गों के विचारों से अपने आप को लैस किया ।अब उन्होंने अपनी रणनीति बनायी ।कुछ लोगों को वह एक साथ मिलते तो कुछ से अलग अलग वार्ताएं करते।उस समय शिरोमणि अकाली दल के नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल थे ।उन्हें भी ‘शांतिदूत’ माना जाता था ।अर्जुन सिंह ने संत लोंगोवाल के साथ उनकी पार्टी के नेताओं के साथ और अकेले भी कई मुलाकातें कीं ।इन देर रात की निजी मुलाकातों के फलस्वरूप पंजाब समझौते का रास्ता निकला जिस पर बाद में नई दिल्ली में राजीव गांधी और संत हरचंदसिंह लोंगोवाल ने हस्ताक्षर किये ।पंजाब समझौते की प्रक्रिया को इतना गुप्त रखा गया कि दस्तखत करने से पहले दोनों नेताओं के बीच भावी शंकओं-
आशंकाओं पर गहरा मनन और मंथन हुआ। जब तक दोनों ओर से पूरी तसल्ली नहीं हो गयी समझौते की घोषणा नहीं की गयी ।इस शांति समझौते की खबर से जहां आमजन में माकूल प्रतिक्रिया थी वहां आतंकवादी संगठनों को यह समझौता नागवार गुज़रा ।
बेशक़ पंजाब समझौते की पटकथा लिखने में पंजाब के पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने भी अहम भूमिका निभायी थी ।

संत हरचंदसिंह लोंगोवाल और राजीव गांधी के बीच हुआ शांति समझौता आतंकवादियों को नहीं भाया ।दिल्ली आने पर पंजाबी बाग स्थित गुरुद्वारा टिकाना साहब में जब संत जी से मेरी मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि ‘पंजाब को इस वक़्त शांति की बहुत आवश्कता है ।इसके लिए किसी न किसी के तो आगे आने की ज़रूरत थी ।मैंने महसूस किया कि ऐसे समझौते से ही कई बेगुनाहों की बेशकीमती जानें बचाई जा सकती हैं ।’ उन्होंने अर्जुन सिंह की ईमानदाराना कोशिशों की तारीफ करते हुए कहा कि उनकी मार्फत मुझे भी इस बात का इल्म हुआ कि सरकार भी पंजाब में अमन चाहती है और पूरी शिद्दत के साथ इस दिशा में प्रयासरत है । राजीव गांधी से अपनी निजी बातचीत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया था कि वह बहुत ही ‘बीबा’ बंदा है ।वह शक्ल से ही खूबसूरत नहीं मुझे तो उसका दिल भी साफ लगा ।’ लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जब आतंकवादियों ने संत लोंगोवाल की हत्या की उस दिन राजीव का जन्मदिन था यानी 20 अगस्त ।संत लोंगोवाल की हत्या के शोक में राजीव गांधी ने अपना जन्मदिन न मना कर उन्हें भावभीनी श्रद्धान्जलि अर्पित की । बताया जाता है उस दिन राजीव गांधी और अर्जुन सिंह दोनों ही यह सोच कर बहुत उदास थे कि देश में शांति स्थापित का प्रयास करने वालों को किस तरह की कीमतें चुकानी पड़ती हैं ।एक बातचीत में अर्जुन सिंह ने कहा था कि ‘संत जी अमन के जो बीज बो गए थे वे बड़े पेड़ का आकार लेंगे ।’ पंजाब समझौते को अमली जामा पहनाने में अर्जुन सिंह के परिश्रम और दूरदृष्टि की सर्वत्र चर्चा हुई थी ।उन्हें देश के एक कद्दावर नेता के तौर पर देखा जाने लगा । मुझे उनका स्नेह सदा प्राप्त होता रहा ।

एक बार ‘ओर्गेनाईजेशन ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग ऐण्ड फ्रेटरनिटी ‘ तथा ‘संडे मेल’ के सौजन्य से एक सेमिनार हुआ ‘चौरासी करोड़ बनाम दस हज़ार’। इस सेमिनार के मुख्य अतिथि के तौर पर अर्जुन सिंह को आमंत्रित किया गया ।आयोजक थे समाजसेवी उद्योगपति संजय डालमिया ।मुख्य मुद्दा था कि अंग्रेज़ तो चले गये लेकिन अंग्रेज़ियत की मानसिकता वाले अतिविशिष्ट वर्ग का व्यवस्था पर आज भी कब्ज़ा है ।इस व्यवस्था में दस हज़ार परिवार देश को अपनी जागीर समझते हैं तथा लूट की हद तक देश का शोषण कर रहे हैं और देश की 84 करोड़ की आबादी पर उनका शोषणचक्र केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं, सांस्कृतिक क्षेत्र में भी तेज़ी से बढ़ रहा है । यह सेमिनार 8 अगस्त, 1991 को हुआ था ।तब देश की आबादी 84 करोड़ थी ।यह बहुत ही सम्वेदनशील विषय था ।इस सेमिनार में भाग लेते हुए प्रसिध्द लेखक और वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने कहा था कि आज़ादी के बाद जिस वर्ग के हाथों सत्ता व्यवस्था आयी है वह अंग्रेजों द्वारा पैदा किया गया ऐसा वर्ग था जिसने उस विदेशी हुकूमत की रक्षा की थी और जिसका इस देश से कोई जुड़ाव नहीं था । आज़ादी के बाद भी उसकी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया ।मैं यह स्वीकार करता हूं कि समाज में,ऊंची जगह पर बैठे लोगों का ऐसा वर्ग है जो देश के प्रति न तो वफादार है और न ही जवाबदेह ।इनकी संख्या कम भी हो सकती है,ज़्यादा भी लेकिन मुश्किल काम ऐसे लोगों की शिनाख्त करना है,आप उन्हें पहचानेगे कैसे?पत्रकार गीतीश शर्मा का मत था कि अग्रेज़ीयत और भारतीयता के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा है जिसने लोगों को दो वर्गों में बांट दिया है ।एक में दस हज़ार और उनके मुखापेक्षी और दूसरे में चौरासी करोड़ आते हैं ।सांसद सैफुद्दीन सोज ने सुझाव दिया था कि शिक्षा में समाजवाद अगर लागू किया जाए तो काफी हद तक इस विषमता को दूर किया जा सकता है । मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने अपने उदघाटन भाषण में इसे सामायिक विषय बताते हुए कहा था कि वार्ताओं की ये अदालतें जिस तरह से जारी हैं सरकार भी खामोशी से नहीं बैठ सकती ।सीमाएं समाप्त होती आयी हैं,इस तरह के सेमिनार आम लोगों की भागीदारी में सहायक होंगे और देश में जागरुकता बढ़ेगी ।ये थे अर्जुन सिंह जो खरी खरी बातें करने से हिचकिचाते नहीं थे ।

1993 में मुझे मीडिया अवार्ड प्राप्त हुआ जिसे अर्जुन सिंह जी ने ही प्रदान किया था। हर साल दिये जाने वाला यह पुरस्कार मीडिया से जुड़ी कई विधाओं को प्रदान किया जाता है जैसे प्रिंट मीडिया, जनसम्पर्क, मार्केटिंग,कला- संस्कृति, आदि ।मेरे अतिरिक्त उस वर्ष जिन लोगों को पुरस्कृत किया गया वे थे: विनोद मेहता, योगी सहाय,सेरेना डी सूज़ा, कुमकुम चडढा , नितीश चक्रवर्ती और डॉली ठाकोर। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने अपने भाषण में देश में मीडिया के महत्व पर जोर देते हुए कहा था कि देश के स्वाधीनता आंदोलन में जितनी इसकी सक्रिय, सार्थक और सकारात्मक भूमिका थी आज देश के निर्माण और विकास में भी उसकी महती भूमिका है । मुझे प्रसन्नता है कि मीडिया की सभी विधाओं का आज इस दिशा में रचनात्मक योगदान है ।सभी पुरस्कृत विभूतियां अपने अपने क्षेत्र में अभिनव योगदान दे रही हैं,उन सभी को मेरी शुभकामनाएं और साधुवाद ।बाद में सभी लोगों के साथ अर्जुन सिंह ने चाय पी और हरेक को अलग अलग बधाई भी दी ।मेरे साथ वह काफी देर तक रहे और ‘संडे मेल’ के अपने अनुभवों के बारे और पत्र की प्रगति बाबत भी जानकारी लेते रहे ।

‘संडे मेल’ का प्रकाशन स्थगित हो जाने के बाद अर्जुन सिंह जी से मुलाकातें कम हो गयीं । सितम्बर, 2010 में लोदी एस्टेट स्थित चिन्मय मिशन में अर्जुन सिंह से जब भेंट हुई तो अच्छा लगा ।डॉ. कन्हैयालाल नंदन की याद और सम्मान में आयोजित प्रार्थना सभा में वह शामिल होने के लिए आये थे ।हर्पीज़ रोग का शिकार होने के बाद वह ‘वाकर’ से धीरे-धीरे चला करते थे। प्रार्थना सभा की समाप्ति के बाद जब वह निकलने लगे तो एक पल मेरे पास खड़े होकर बोले,’कैसे हैं,बहुत दिनों से मिले नहीं, ठीक तो हैं ।’ उनकी आत्मीयता मुझ से सदा ही रही है ।मैंने कहा कि जल्दी आऊंगा लेकिन मुलाकात हो नहीं पायी।वह बीमार हो गये थे और मुलाकातियों से मिलने की मनाही थी ।कोशिश मिलने की मैंने इसलिए भी की थी क्योंकि उन्होंने चलते चलते मुझ से कहा था ‘कभी मिलिये’। चाह कर भी मैं उनसे मिल नहीं पाया ।4 मार्च,2011 को उनके निधन का समाचार मुझे बहुत व्याकुल कर गया था ।ऐसा लगा कि मैंने अपनी कोई अनमोल निधि खो दी हो ।

उनकी मधुर स्मृति कोसादर नमन ।

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