जनता का फैसला सुन सियासी दल और उनके रहनुमा हैरान- परेशान हैं. खंडित जनादेश न तो झारखंड की मांग थी और न ही नेता ऐसा चाहते थे. सभी दिग्गज नेताओं को लग रहा था कि पिछले नौ सालों से ठगे और लूटे जा रहे इस राज्य की जनता स्थायी सरकार के लिए वोट करेगी तथा झूठे वादे करने वालों एवं भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाएगी, लेकिन जब नतीजे आए तो एकबारगी लोगों को अपनी आंखों-कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ. जनता का फैसला यह था कि सारे नेता कमोबेश एक जैसे हैं और झारखंड की बर्बादी के लिए बराबर के ज़िम्मेदार हैं. इसी वजह से भ्रष्टाचार और अपराध का मुद्दा लोगों को प्रभावित नहीं कर सका. लगभग सभी दाग़ी नेता चुनाव जीत गए. जनता ने स्थानीय मसलों को तवज्जो देकर स्थायी सरकार की हवा निकाल दी. यही वजह रही कि कई सूरमा चुनावी अखाड़े में पस्त हो गए. पड़ोसी राज्य के चुनाव में अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले बिहार के तीन दिग्गजों नीतीश कुमार, रामविलास पासवान एवं लालू प्रसाद को भी जनता ने उनकी हैसियत का एहसास करा दिया. बिहार की राजनीति को अपने इशारों पर नचाने वाले उक्त तीनों राजनीतिज्ञ झारखंड चुनाव में बुरी तरह मात खा गए.
सीटों के बंटवारे के समय जदयू, लोजपा और राजद में जिस तरह जोड़-तोड़ चल रही थी, उससे लग रहा था कि इन पार्टियों के प्रमुख झारखंड चुनाव को कितनी गंभीरता से ले रहे हैं. इस साल बिहार में भी चुनाव होने हैं, इस कारण भी वे सभी तरह के प्रयोग झारखंड में कर लेना चाहते थे. भाजपा की झारखंड इकाई पहले दिन से ही जदयू के साथ किसी भी तरह के तालमेल के खिला़फ थी. लोकसभा चुनाव का उदाहरण देकर भाजपाई बार-बार यह जता रहे थे कि जदयू को सीट देने का मतलब सा़फ शब्दों में बर्बादी है, लेकिन केंद्रीय नेताओं के दबाव में जदयू के लिए भाजपा ने चौदह सीटें खाली कर दीं.
इसी तरह लालू प्रसाद को भी रामविलास पासवान और वामदलों के साथ सीटों के बंटवारे में काफी पसीना बहाना पड़ा. उसके बाद सारे नेताओं ने चुनावी दौरों की झड़ी लगा दी, पर जब नतीजे निकले तो उनके होश उड़ गए. जदयू को मात्र दो सीटों तमाड़ एवं छतरपुर में ही सफलता मिली और डुमरी, पांकी एवं बाधमारा में उसके प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे. राजा पीटर की जीत पार्टी से कहीं अधिक उनकी व्यक्तिगत जीत ही कही जा सकती है. हद तो यह हो गई कि प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो और पार्टी के बड़े नेता शैलेंद्र महतो भी चुनाव नहीं जीत पाए. पांकी, विश्रामपुर, बाधमारा, बोकारो, हुसैनाबाद, भावनाथपुर, देवघर, मांडू, डुमरी, शिकारीपाड़ा, चंदनकियारी एवं सारठ में जदयू के प्रत्याशी धराशायी हो गए. पिछले चुनाव में पार्टी के खाते में छह सीटें थीं, जो अब दो रह गई हैं. नीतीश कुमार बार-बार कहते रहे कि झारखंड में बिहार मॉडल की चर्चा है और इस राज्य की जनता भी उन्हें निराश नहीं करेगी, लेकिन जनता ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया.
इस चुनाव के लिए जदयू ने अपने चार बड़े नेताओं डॉ. भीम सिंह, श्रवण कुमार, रवींद्र सिंह और उपेंद्र प्रसाद को प्रभारी बनाया था. खुद नीतीश कुमार एवं शरद यादव ने चार दर्ज़न से अधिक सभाओं के माध्यम से हवा बनाने की कोशिश की, पर सब बेकार गया. चुनाव परिणामों पर नीतीश कुमार ने कहा कि जनता का फैसला उन्हें स्वीकार है, लेकिन झारखंड को झटका लगा है. उन्होंने कहा कि वहां मेरी पार्टी बड़ी ताक़त नहीं है, पर नतीजों से निराश होने की ज़रूरत नहीं है.
झारखंड के नतीजों से लालू प्रसाद को भी गहरा झटका लगा है. पांच सीटों पर विजय पाकर लालू किसी तरह अपनी इज़्ज़त तो बचा ले गए, पर राज्य और दिल्ली की राजनीति में एक बार फिर अपना दबदबा कायम करने का उनका सपना चूर-चूर हो गया. उनका पुराना माय (मुस्लिम और यादव ) समीकरण तो  तार-तार हुआ ही, साथ ही बढ़ती महंगाई का उनका चुनावी मुद्दा भी नाकाम रहा. लालू प्रसाद ने पैर में मोच के बावजूद लगभग 200 चुनावी सभाओं को संबोधित किया, पर पांच सीट ही जीत पाए. पार्टी के दमदार नेता गिरिनाथ सिंह गढ़वा से चुनाव हार गए. इसी तरह विश्रामपुर से पूर्व मंत्री रामचंद्र सिंह चंद्रवंशी और मनिका से रामचंद्र सिंह हार गए. विदेश सिंह को टिकट न देकर भी लालू प्रसाद ने गलती कर दी. लालू प्रसाद झारखंड चुनाव में दमदार जीत दर्ज़ कर यह बताना चाहते थे कि न केवल बिहार, बल्कि पड़ोसी राज्य में भी उन्हें कोई दरकिनार नहीं कर सकता है. बिहार में भी इसी साल चुनाव होने हैं. इस कारण भी लालू प्रसाद ने पूरी ताक़त के साथ झारखंड में अभियान चलाया, ताकि पड़ोसी राज्य में जीत का फायदा बिहार में मिले, लेकिन जनता ने जो फैसला सुनाया, उससे सारा ताना-बाना बिखर गया. चुनाव नतीजों पर उन्होंने कहा कि सेकुलर ताक़तों के बिखराव से ऐसा हुआ. झारखंड में नीतीश मॉडल फेल हो गया.
इसी तरह लोजपा की भी दुर्गति इस चुनाव में हो गई. रामविलास पासवान के लाख प्रयासों के बावजूद पार्टी अपना खाता भी नहीं खोल सकी. झारखंड मेंं राजद-लोजपा गठबंधन के प्रदर्शन के बाद बिहार में इसे बनाए रखने को लेकर भी अंदरखाने मंथन शुरू हो गया है. नीतीश, पासवान और लालू के अलावा झारखंड के भी कई राजनीतिक सूरमाओं को इस चुनाव के नतीजों से गहरा आघात लगा है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप कुमार बालमुचू, विधायक दल के नेता मनोज यादव और विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम को जनता ने नकार दिया. इसके अलावा स्टीफन मरांडी, डॉ. रामेश्वर उरांव, फुरकान अंसारी, बागुन सुम्ब्रई, नियेल तिर्की और रामदयाल मुंडा आदि नेताओं का विधानसभा पहुंचने का सपना चकनाचूर हो गया.
इसी तरह भाजपा के थिंक टैंक सरयू राय एवं सुधीर महतो भी हार गए. इनके अलावा भानु प्रताप शाही, कमलेश सिंह, जोबा मांझी आदि को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा. मतलब यह है कि सारे किंगमेकरों को जनता ने खारिज कर दिया. अब इन नेताओं के लिए यह समय मंथन का है कि ऐसी क्या बात हो गई, जिसके चलते जनता ने उनकी बात नहीं मानी. बिहार चुनावी साल में प्रवेश कर चुका है. इसका कुछ न कुछ असर बिहार में होने वाले विधान सभा चुनाव पर ज़रूर प़डेगा. जाहिर है खुद को बिहार की राजनीति का किंगमेकर समझने वाले तीनों दिग्गजों को भी सही फैसले पर पहुंचना ही होगा.
स्थायी सरकार और भ्रष्टाचार का मुद्दा नहीं चला
झारखंड की जनता ने एक बार फिर खंडित जनादेश देकर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति को बरक़रार रखा. यूपीए और एनडीए में से कोई भी गठबंधन चुनाव पूर्व तालमेल के आधार पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ सका. पिछले नौ वर्षों के अंदर छह सरकारों के कार्यकाल देख चुकी जनता से इस बार स्पष्ट जनादेश की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन उसने चुनाव में यूपीए-एनडीए दोनों को झटका दिया है. बाहुबली और माफियाई पृष्ठभूमि के नेताओं को जनता ने सिर-आंखों पर बैठाया. जेलों में बंद छह माओवादियों में से मात्र तोरपा से झामुमो के टिकट पर पौलूस सुरीन ही जीत पाए. पलामू के कई विधानसभा क्षेत्रों से खड़े माओवादियों को जनता ने नकार दिया. मतलब यह निकलता है कि चुनाव में न तो स्थायी सरकार का मुद्दा चला और न मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का. दाग़ी और अपराधी छवि वाले नेताओं का जनता ने साथ दिया. एक सकारात्मक संकेत यह मिला कि आर्थिक मंदी और औद्योगिक रुग्णता के बावजूद ट्रेड यूनियन मोर्चे इंटक के 10 उम्मीदवारों में से 8 अपनी सीटें निकालने में सफल रहे. इनमें बेरमो से इंटक के राष्ट्रीय महामंत्री राजेंद्र प्रसाद सिंह, धनबाद से मन्नान मल्लिक और विश्रामपुर से ददई दुबे आदि शामिल हैं. क्षेत्रीय दलों में आजसू ने अपनी ब़ढत बनाई है. पिछली बार उसने दो सीटों पर जीत हासिल की थी. इस बार पांच सीटें उसके खाते में गईं. केंद्रीय मंत्री और कांगे्रस की चुनाव अभियान संचालन समिति के अध्यक्ष सुबोधकांत सहाय अपना किला बचाने में सफल रहे. खिजरी, हटिया और ईचाग़ढ में अपने गठबंधन के प्रत्याशियों को जिताकर उन्होंने अपनी संसदीय सीट को मज़बूत किया है. सहाय के नेतृत्व में सूबे में पार्टी की सीटों में इजाफा हुआ है. दूसरी तरफ भाजपा की चुनावी कमान थामे सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का निशाना इस बार चूक गया. अपने संसदीय क्षेत्र में भी वह पार्टी को ब़ढत दिलाने में सफल नहीं हो सके. पार्टी के कद्दावर नेता सरयू राय, डॉ. दिनेश शाडंगी, रवींद्र राय जैसे प्रत्याशियों को हार का सामना करना प़डा. बाबूलाल मरांडी ने यह सिद्ध कर दिया है कि जिसे भाजपाइयों ने वोट कटवा पार्टी की संज्ञा दी थी, वह आज सब पर भारी प़डी. अपने गृह जनपद गिरिडीह में छह में से चार सीटों पर जीत दर्ज़ कर उन्होंने राजनीतिक परिदृश्य ही बदल दिया. झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन का दुर्ग संथाल परगना अभेद्य रहा. प्रमंडल की 18 सीटों में से दस पर उन्हें जीत हासिल हुई. इनमें गुरुजी के बेटे-बहू ने पहली बार जीत का स्वाद चखा. इस बार के चुनाव में लाल लहर नहीं चली. माओवादी नेता विभिन्न दलों के बैनर तले चुनावी मैदान में कूदे ज़रूर, लेकिन एक सीट के अलावा बाकी जगहों पर जनता ने उन्हें ठुकरा दिया. वामपंथी दलों में बगोदर से सीपीएमएल के विनोद सिंह और निरसा से मार्क्सवादी समन्वय समिति के अरूप चटर्जी ने जीत दर्ज की. पलामू प्रमंडल में सत्ता विरोधी लहर हावी रही. कई दलों के बने-बनाए समीकरण बिगड़ गए. पलामू प्रमंडल में बदलाव की बयार ने उन्हें चारों खाने चित्त कर दिया. प्रमंडल की नौ सीटों पर कहीं जातिवाद हावी हुआ तो कहीं भ्रष्टाचार मुद्दा बना. आठ सीटों पर नए  प्रत्याशियों ने क़ब्ज़ा जमाया. कोयलांचल में कुंती सिंह भाजपा की लाज बचाने में सफल रहीं. कोल्हान में रघुवरदास को छोड़कर सभी दिग्गज मात खा गए. उत्तरी छोटा नागपुर में कांग्रेस-झाविमो गठबंधन का जादू चला. प्रमंडल के सात ज़िलों की 25 विधानसभा सीटों पर इस गठबंधन को 13 सीटें मिलीं. छोटे दलों ने भी बेहतर प्रदर्शन किया. राज्य गठन के बाद पहली बार महिला प्रत्याशियों की संख्या ब़ढी. सबसे अधिक भाजपा की तीन, झामुमो, जदयू, राजद और कांग्रेस की एक-एक तथा एक निर्दलीय.

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