जिस तरह से इन दो मंत्रियों ने अपनी शक्ति, पद और सत्ता का दुरुपयोग किया है, वह निंदनीय है. हमें किसी भी हालत में संविधान और गणतंत्र की रक्षा करना है, क्योंकि यह हमारा फ़र्ज़ है. एक विचारोत्तजक टिप्पणी…
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पिछला हफ्ता दो मंत्रियों और उनके इस्ती़फे की मांग को लेकर ख़बरों से भरा हुआ था. अंत में, इन मंत्रियों ने मई 10 को इस्तीफ़ा दे ही दिया, लेकिन सही ढंग से इस मुद्दे को समझने में सांसद और प्रेस, दोनों ही असफल रहे. दरअसल, इस मुद्दे की गंभीरता को वे नहीं समझ सके. यह एक त्रासदी से कम नहीं है. श्री बंसल के मामले, किसी को पदोन्नत करने के लिए कुछ रिश्‍वत लेने के मामले को साबित होना बाकी है या खुद बंसल को उसके बारे में पता हो भी सकता था या नहीं भी हो सकता था. यह सब जांच का विषय है. इसकी अभी सीबीआई द्वारा जांच की जानी है, लेकिन क़ानून मंत्री के मामले में तो यह साफ़ था कि उन्होंने अपनी शक्ति, पद और सत्ता का दुरुपयोग किया है और वह भी ज़बरदस्त तरी़के से बेशर्मी और अभिमान के साथ. इस्ती़फे के बाद उन्होंने कहा कि मैंने कुछ ग़लत नहीं किया. मैं इस विवाद को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता था, इसलिए मैंने त्यागपत्र दिया.
अब सवाल यह उठता है कि अगर उन्होंने कुछ ग़लत नहीं किया है, तो प्रधानमंत्री को सार्वजनिक रूप से इस मसले पर अपनी राय बतानी चाहिए कि क्या उनकी राय में किसी क़ानून मंत्री को अदालत में पेश किए जाने वाले किसी जांच रिपोर्ट को देखने या उसमें बदलाव करने का अधिकार है. वैसे, यह क़ानूनी सवाल भी है. अगर प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि अश्‍विनी कुमार ने ग़लत नहीं किया है, तो तय मानिए कि वे गहरी मुसीबत में हैं, क्योंकि यहां खुलेआम संविधान का उल्लंघन हुआ है. कल किसी राज्य का होम मिनिस्टर पुलिस आयुक्त या एक थानेदार को कॉल करता है और हत्या की जांच रिपोर्ट को दिखाने के लिए और उसमें परिवर्तन के लिए कहता है या वित्त मंत्री कर विभाग में कॉल करके किसी व्यक्ति के कर असेसमेंट में बदलाव या उसे दिखाने को कहता है, तो क्या यह सही होगा? ज़ाहिर है, यह हमारे संविधान की योजना नहीं है. हमारा संविधान मंत्रालयों को सीबीआई या आयकर विभाग या पुलिस विभाग पर केवल प्रशासनिक नियंत्रण का अधिकार देता है. उन्हें व्यक्तिगत मूल्यांकन या जांच में दख़ल देने की कोई शक्ति नहीं मिली है. यही संविधान की योजना है.
और अगर इस सरकार के  प्रधानमंत्री या क़ानून मंत्री जांच रिपोर्ट में बदलाव के लिए कहते हैं, तो ज़ाहिर है कि हमारा संविधान और हमारा लोकतंत्र गहरी मुसीबत में है. श्री अश्‍विनी कुमार जो मुद्दा उठा रहे हैं, वह पवन कुमार बंसल के मुद्दा से ज्यादा गंभीर मसला है. कुमार ने सर्वोच्च अदालत से झूठ बोला. सर्वोच्च अदालत का यह काम नहीं है कि वह सरकार को यह बताए कि किस मंत्री को हटाना है.  सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ही काफी थी. फिर सरकार किस बात का इंतज़ार कर रही थी. सर्वोच्च न्यायालय क्या कहता है, यह महत्वपूर्ण नहीं है. प्रधानमंत्री क्या कहते हैं, यह महत्वपूर्ण है. मैं प्रधानमंत्री से जानना चाहता हूं कि वे क्या कहते हैं. क्या सोचते हैं.  प्रधानमंत्री ने कुमार के उस बयान का एक तरह से समर्थन ही किया कि उन्होंने कुछ ग़लत नहीं किया है. भाजपा ने भी परिपक्व विपक्ष की भूमिका नहीं निभाई, क्योंकि वे मामले की गंभीरता समझ नहीं पाए. उन्होंने भी चिल्लाना शुरू कर दिया कि दोनों मंत्री इस्तीफ़ा दे. कुमार ने जो किया, वह अवैध, असंवैधानिक था. इस्तीफ़ा देने का नहीं, बल्कि उन्हें उनके पद से हटाने की मांग की जानी चाहिए थी. यह रिश्‍वतखोरी का सवाल नहीं है. दरअसल, रिश्‍वतखोरी की तुलना में यह ज्यादा गंभीर मसला है.
आज की स्थिति आपातकाल की तरह है. लेकिन मुझे यकीन है कि आपातकाल में भी किसी मंत्री ने ऐसा नहीं किया होेगा. बेशक उस समय एक स्वतंत्र प्रेस नहीं था, इसलिए बहुत सी बातें सामने नहीं आई होंगी. लेकिन फिर भी ऐसा बेशर्म काम नहीं हुआ होगा, जैसा आज हुआ है. वक्त आ गया है कि श्री मनमोहन सिंह सारी स्थिति को  खुद के हाथ में ले और इसे बेहतर बनाने की कोशिश करें. आम चुनाव नज़दीक है. फिर से यूपीए-३ की सरकार बनाने के लिए लाबिंग शुरू हो गई है. अगर सचमुच यूपीए-३ इस सिद्धांत के साथ सत्ता में आ जाती है कि उसका कोई मंत्री किसी जांच या मूल्यांकन में हस्तक्षेप कर सकता है, तो हमें 1950 में अपनाई गई इस संविधान को अलविदा कहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. गणतंत्र क्या है? जनता की संपत्ति, यही गणतंत्र है.
कांग्रेस अध्यक्ष को क्रेडिट देना चाहिए कि वह इस बात को ले कर डट गईं कि गलत छवि के साथ कांग्रेस चुनाव में नहीं जा सकती और इसलिए उन दो मंत्रियों को मजबूरन मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा. लेकिन अब जो भी सत्ता में आए, वह गणतंत्र को उसके मूल व उचित स्वरूप में बहाल करने के लिए काम करे. हर पांच साल बाद लोग मतदान करेंगे और सरकार आती-जाती रहेगी. लेकिन संविधान और इस गणतंत्र की रक्षा की जानी चाहिए.
क़ानून मंत्री के मामले में तो यह साफ था कि उन्होंने अपनी शक्ति, पद और सत्ता का दुरुपयोग किया है और वह भी ज़बरदस्त तरीके से, बेशर्मी और अभिमान के साथ. इस्तीफे  के  बाद उन्होंने कहा कि मैंने कुछ गलत नहीं किया. मैं इस विवाद को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता था, इसलिए मैंने त्यागपत्र दिया.

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