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भारत के दारिद्र का तथा उसके निवारण के लिए हमने अब तक आंदोलन-संबंधी जो विवेचन किया, उसका मुख्य हिस्सा लोगों को जंच जाता है, लेकिन कुछ शंकाएं दिमाग में उठती रहती हैं. एक प्रश्‍न यह किया जाता है कि इस  किसान-आंदोलन में मजदूर क्यों शामिल होंगे? वाजिब दाम मिलने से किसानों को शक्ति बढ़ेगी और उससे मजदूर का शोषण बढ़ सकता है, यह तर्क भी यदा-कदा उछाला जाता है. इसका उत्तर साफ है. यह आंदोलन केवल किसानों का आंदोलन नहीं है. इस आंदोलन के उद्देश्य में किसान को लागत-ख़र्च पर आधारित उचित दाम, मजदूर को जीवन-यापन के लिए आवश्यक उचित मजदूरी, कारीगर को गांव में पूरा काम और उपभोक्ता को वाजिब दाम में शुद्ध वस्तु की आपूर्ति-इन चारों का यह सम्मिलित यानी पैकेज कार्यक्रम है. चूंकि मजदूरों को उचित मजदूरी मिले, यह इस आंदोलन का एक प्रमुख हिस्सा है, अत: मजदूरों को इसमें शामिल होने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी. कई किसान-नेताओं ने मजदूरों की वाजिब मजदूरी को अपने आंदोलन के उद्देश्यों में दाखिल भी किया है. जैसे-महाराष्ट्र कपास उत्पादक संघ ने ऊपर की मांगों को लेकर आंदोलन चलाया है और बढ़ाई हुई मजदूरी के आधार पर लागत-खर्च गिन कर कपास के लिए उचित दाम की मांग की है. इसलिए बढ़ाई हुई मजदूरी इस आंदोलन की मांग का एक अंग हो गया है. अनुभव भी यह बतलाता है कि एक बार किसानों को उचित दाम मिले, तो मजदूरी भी बढ़ जाती है. न बढ़ी, तो मजदूर आंदोलन करके उसे ले सकते हैं. उस समय आर्थिक न्याय चाहने वाले सब लोग मजदूरों की जायज मांग के लिए चलाए जानेवाले आंदोलन में शामिल होंगे, यानी इसमें कई किसान भी शामिल होंगे. इसलिए यह प्रश्‍न समाप्त हो जाता है. कोई यह नहीं कहता कि आज मजदूर-किसान में मनमुटाव या संघर्ष नहीं है, लेकिन इन दोनों को उनका हक़ मिले, इसलिए यह ज़रूरी है कि कृषि के उत्पादन को वाजिब मूल्य मिलना चाहिए. अन्यथा कल का बड़ा किसान आज छोटा किसान और आने वाले कल में मजदूर बनेगा, यह बताने के लिए ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं है.
किसान को वाजिब दाम देने से कच्चे माल के भाव बढ़ेंगे. फलस्वरूप पक्के माल के दाम बढ़ेंगे. इससे कृषि उपज का उत्पादन-खर्च बढ़ेगा और कृषि-उपज के भाव और बढ़ाने होंगे. अतः एक दुश्‍चक्र निर्माण होगा और महंगाई बढ़ेगी. अतः किसान को वाजिब दाम दिए जाने से महंगाई बढ़ेगी, यह हौवा खड़ा किया जाता है. नागपुर के किसान-नेता डॉ. बोकरे ने पक्का माल बनाने वाली कंपनियों द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से ही आंकड़े लेकर निम्न तथ्य प्रकाश में लाए हैं
बिहार में आलू का लागत-खर्च गत वर्ष 62-50 रुपया प्रति कुंतल आया था. उत्पादकों ने उसे 55 रुपया प्रति कुंतल की दर से बेचा. उसे तीन महीने शीतगृह में रखने पर उपभोक्ता को वह 142 रुपया प्रति कुंतल बेचा गया. इन आंकड़ों से यह सिद्ध होता है कि कई वस्तुओं की कीमत कम कर के ही उत्पादक को मूल्य अधिक दिया जा सकता है. कई वस्तुओं के बारे में शायद कीमत कम न की जा सके, लेकिन वह बढ़ेगी भी नहीं. सचमुच पक्के माल के उत्पादन-खर्च में कच्चे माल की कीमत का एक बहुत छोटा हिस्सा होता है. कपड़े में कपास की कीमत 10 प्रतिशत है. अतः कच्चे माल की कीमत बढ़ जाने से कारखाने के मालिक को या व्यापारियों को अपना मुनाफा थोड़ा-सा घटाना होगा, इतना ही फर्क पड़ेगा. वास्तव में कृषि-माल के भाव न बढ़ने पर भी या नाममात्र बढ़ने पर भी पक्के माल की कीमतें आकाश को छू रही हैं. कपास की कीमत पिछले पांच-सात वर्षों में विशेष नहीं बढ़ी, कभी-कभी तो घटी. इसी अवधि में कपड़े की कीमतें दुगुने से ज्यादा बढ़ गईं. रासायनिक खाद की कीमतें, कीटनाशकों की कीमतें कई गुना बढ़ गईं. इस महंगाई के दुष्परिणामों को देहाती सहन कर ही रहा है, लेकिन इसके लाभ से वह वंचित रखा गया है. मुद्रास्फीति न हो, इसलिए किसान लागत से कम भाव स्वीकार करे और हमेशा घाटे में खेती चलाए, यह निष्कर्ष निकलता हो, तो 80 प्रतिशत भारतीयों के हितों को 20 प्रतिशत के स्वार्थ पर न्योछावर करनेवाली अर्थ-व्यवस्था जितनी जल्द समाप्त हो, उतना अच्छा.

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