सूचना के अधिकार के दायरे में राजनीतिक दलों के होने का फैसला केंद्रीय सूचना आयोग ने सुना दिया है, लेकिन कांग्रेस ने एक अध्यादेश के माध्यम से आयोग के इस फैसले को पलटने का मन बना लिया है. ऐसे में, कांग्रेस का हाथ-आम आदमी के साथ कैसे हो सकता है? इस पर सवाल उठना लाजिमी है.
लगता है, कांग्रेस ने अब आम आदमी का सबसे बड़ा हथियार, यानी सूचना का अधिकार को और अधिक कमजोर करने का मन बना लिया है. ग़ौरतलब है कि कांग्रेस शुरू से ही कांग्रेस का हाथ-आम आदमी के साथ का दावा करती आ रही है. आरटीआई एक्टिविस्ट सुभाष अग्रवाल की अपील पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय सूचना आयोग ने यह आदेश दिया है कि राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आते हैं. इस फैसले के पीछे आयोग ने यह आधार गिनाए थे कि राजनीतिक दल केंद्र सरकार से बहुत ही कम क़ीमत पर ज़मीन लेते हैं, उन्हें बंगला मिलता है, आयकर में छूट मिलती है, वे जनता का काम करते हैं और चुनाव आयोग से रजिस्टर्ड होते हैं. आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका, उनके कामकाज और चरित्र आदि भी उन्हें आरटीआई क़ानून के दायरे में लाते हैं. संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधानों में भी उनका चरित्र सार्वजनिक संस्थाओं का है. इन सारी वजहों से राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आते हैं.
दरअसल, इस फैसले के आते ही राजनीतिक गलियारों में भूकंप आ गया और राजनीतिक दलों को उनका अस्तित्व ख़तरे में दिखने लगा. जाहिर है, इस फैसले से लोग उन पैसों के बारे में भी नेताओं से जानकारी मांग सकते हैं, जिनका हिसाब उनके पास नहीं होता. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि सरकार ने अब एक अध्यादेश के जरिए केंद्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को निरस्त करने का मन बना लिया है. व्यवस्था में बैठे नेताओं और नौकरशाहों को यह बात हजम नहीं हो रही है कि कल तक जिन लोगों के लिए हम माई-बाप हुआ करते थे, वही लोग हमसे आंख मिलाकर आने वाले दिनों में सवाल पूछेंगे. इस देश में आज भी अंग्रेजों के बनाए हुए कई क़ानून लागू हैं, जो हमें गुलामी के दिनों की याद दिलाते हैं. आज़ादी के 65 सालों बाद भी ऐसे क़ानूनों को हटाने, बदलने या उनमें संशोधन की ज़रूरत देश के कर्णधारों को कभी महसूस ही नहीं होती. वहीं दूसरी ओर 5 साल पुराना आरटीआई क़ानून उनकी आंखों में ऐसा चुभ रहा है कि जिसे देखो, वही इसमें संशोधन की बात कर रहा है.
सरकार इससे पहले भी इस क़ानून को कमजोर करने की साजिश करती रही है. सूचना का अधिकार क़ानून बनने के पहले ही साल में कुछ नौकरशाहों की सलाह पर सरकार ने इसमें संशोधन कर फाइल नोटिंग जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान को ख़त्म करने की कोशिश की. हालांकि, सिविल सोसायटी, वामपंथी पार्टियों और कुछ संगठनों के भारी विरोध के बाद सरकार ने यह फैसला वापस ले लिया था.
सितंबर 2009 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने एक पत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा था. अपने पत्र में उन्होंने न्यायपालिका को आरटीआई क़ानून के दायरे से बाहर रखने का आग्रह किया था. तर्क यह दिया गया कि इस क़ानून की वजह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है. हालांकि, वर्तमान में बालाकृष्णन एनएचआरसी के अध्यक्ष हैं और वह अभी भी इस संशोधन की वकालत कर रहे हैं. अब तो सीबीआई को भी इससे बाहर कर दिया गया है. कुछ समय पहले केंद्र सरकार के कार्मिक विभाग ने आरटीआई नियमों में संशोधन की तैयारी की थी, ताकि इस देश के ग़रीब, अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए यह क़ानून बेमानी हो जाए. उस संशोधन के मुताबिक़, एक आरटीआई आवेदन को 250 शब्दों में ही सीमित करना होगा और एक आवेदन में एक ही विषय शामिल करना होगा. इसके अलावा, सूचना उपलब्ध कराने में जो डाक ख़र्च आएगा, वह भी आवेदक को ही देना होगा. इस बार केंद्र सरकार केंद्रीय सूचना आयोग का यह फैसला पलटने को लेकर जिस तरह से गंभीर दिख रही है, उससे लगता है कि आम आदमी के जीने और जानने के अधिकार से जुड़ा यह क़ानून पंगु हो जाएगा. हो सकता है, आगे इसमें ऐसे-ऐसे संशोधन किए जाएं, जिनसे फिर कोई आम आदमी सवाल ही न पूछ सके. वैसे सवाल, जो उसे ताक़त देते हैं, सम्मान देते हैं. सरकार के इस दांव-पेंच में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस का हाथ-आम आदमी के साथ का नारा महज़ एक नारा बनकर रह जाएगा?
 
 

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