4-mmmतमिलनाडु, ओडिशा, सीमांध्रा एवं तेलंगाना ऐसे राज्य हैं, जहां 16वीं लोकसभा के चुनाव में सामूहिक रूप से क्षेत्रीय क्षत्रपों का दबदबा रहा और वह भी ऐसे समय में, जब नरेंद्र मोदी का देश के विभिन्न भागों में प्रभाव था. तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जयललिता की पार्टी ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक (एडीएमके) का जादू चला, तो ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के नेतृत्व में बीजू जनता दल ने अपना प्रभाव दिखाया. वहीं सीमांध्रा में तेलुगु देशम पार्टी ने एन चंद्रबाबू नायडू और तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति ने के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में विजय पताका फहराई. तमिलनाडु को छोड़कर बाकी तीन राज्यों में संसदीय चुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी संपन्न हुए और दोनों चुनावों में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव रहा. इससे यह अंदाजा होता है कि वहां की जनता क्षेत्रीय दलों में अब भी विश्‍वास रखती है.
तमिलनाडु में एडीएमके ने कुल 39 संसदीय सीटों में से 37 पर अपना आधिपत्य जमा कर यह सिद्ध कर दिया कि द्रविदियाई (ऊीर्रींळवळरप) राजनीति पर सबसे अधिक प्रभाव उसी का है. इस चुनाव में डीएमके का पत्ता ही साफ़ हो गया. एडीएमके को 44.3, डीएमके को 23.6, पीएमके को 4.4, कांग्रेस को 4.3 एवं भाजपा को 5.5 प्रतिशत वोट मिले. इससे पता चलता है कि यहां कांग्रेस का ग्राफ नीचे गिर रहा है और भाजपा का ग्राफ ऊपर की ओर जा रहा है. ज्ञात रहे कि एडीएमके इस समय द्रविदियाई राजनीति का केंद्र बनी हुई है. यह दरअसल, सी एन अन्नादुरई के निधन के बाद दो भागों में विभाजित पार्टी के एम जी रामचंद्रन के नेतृत्व वाले धड़े की अमानत है. एमजीआर के बाद जयललिता इसका लगातार नेतृत्व करती आ रही हैं.
ओडिशा में नवीन पटनायक का पूरी तरह प्रभाव रहा. यहां बीजद ने विधानसभा की कुल 147 सीटों में से 117 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस को 16, भाजपा को 10 एवं अन्य को चार सीटें मिलीं. पटनायक चौथी बार ओडिशा के मुख्यमंत्री बने. उनका जादू संसदीय चुनाव में भी देखने को मिला. राज्य की कुल 21 सीटों में से 20 पर बीजद के उम्मीदवार सफल रहे. विशेष बात यह है कि अपने राज्य से बाहर रहकर शिक्षा-दीक्षा पाने के कारण नवीन पटनायक उड़िया भाषा से अनभिज्ञ हैं. उनके पिता बीजू पटनायक उन्हें एवं परिवार के अन्य सदस्यों को राजनीति से दूर रखते थे, परंतु पिता बीजू पटनायक के निधन के बाद जब नेतृत्व की ज़िम्मेदारी नवीन के कंधों पर आ गई, तो उन्होंने उड़िया भाषा न जानते हुए भी राज्य के विकास, उड़िया भाषा एवं संस्कृति के मुद्दों पर भरपूर ध्यान दिया. राज्य को विशेष दर्जा दिलाने के लिए और दिल्ली में रैली की, जनकल्याण के कई काम किए और जनता का दिल जीत लिया.
2009 में उन्होंने ग़रीबों को दो रुपये प्रति किलो चावल देने की योजना शुरू की और फिर 2013 में एक रुपये प्रति किलो चावल देना शुरू कर दिया. अपने इन कार्यों के चलते वह आम जनता के नायक बन गए. उनका सबसे बड़ा काम यह है कि उनके दौर में राज्य का वित्तीय आधार पर विकास हुआ और वह सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाले राज्यों में गिना जाने लगा. इन्हीं कारनामों के कारण योजना आयोग ने ओडिशा को एक ऐसा राज्य घोषित किया, जहां निर्धनता काफी तेजी से कम हुई. सीमांध्र में 175 सीटों वाली विधानसभा में तेलुगु देशम पार्टी ने 107 सीटें जीत कर बहुमत हासिल किया. यह वही पार्टी है, जो अविभाजित आंध्र प्रदेश में कई बार सत्ता में रही है. गत कई वर्षों से इस पार्टी पर ग्रहण लगा हुआ था, परंतु नए राज्य सीमांध्र के बनने से इसमें नई जान आ गई. यहां वाईएसआर कांग्रेस को 66 सीटें मिलीं एवं अन्य के हिस्से में मात्र दो सीटें आईं. यहां टीडीपी को लोकसभा की 16 सीटों पर सफलता मिली, जबकि वाईएसआर कांग्रेस को नौ, भाकपा को तीन और आरएसपी को दो सीटें मिलीं.
मालूम हो कि टीडीपी ने तेलंगाना के मुद्दे पर यू टर्न ले लिया था. पार्टी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने शुरू में तेलंगाना का समर्थन किया, फिर अचानक विरोध करने लगे. उनके इस क़दम को तेलंगाना में पसंद नहीं किया गया, परंतु तेलंगाना में उन्हें जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई सीमांध्र में हो गई और वह बहुमत के साथ वहां सत्तारूढ़ हो गए. सीमांध्र विधानसभा में दूसरे नंबर पर आने वाली पार्टी वाईएसआर कांग्रेस को 66 सीटें मिलीं, वह आठ संसदीय सीटों पर भी कामयाब रही. यहां टीडीपी ने भाजपा से 13 विधानसभा एवं चार संसदीय सीटों पर गठबंधन किया था, जिसका उसे लाभ मिला. 119 सीटों वाली तेलंगाना विधानसभा की 63 सीटें जीतकर तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीएसआर) ने बहुमत हासिल किया, वहीं उसने कुल 17 संसदीय सीटों में 11 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया. देश के इस 29वें राज्य में टीडीपी- भाजपा गठबंधन 21 विधानसभा सीटों पर सफल रहा, जबकि कांग्रेस गठबंधन को 22 एवं अन्य को 13 सीटें मिलीं. तेलंगाना विधानसभा चुनाव में मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने भी सात सीटों पर सफलता प्राप्त की. यही नहीं, उसने अपने अध्यक्ष असदुद्दीन को एक बार फिर लोकसभा में भेजा. वह लोकसभा में नए राज्य तेलंगाना के एकमात्र मुस्लिम सांसद हैं. इन दोनों नए राज्यों में सबसे ज़्यादा झटका कांग्रेस को लगा. विडंबना यह कि इन नए राज्यों को बनाने वाली कांग्रेस नगण्य हो गई और दोनों जगह क्षेत्रीय दल सत्ता में आ गए. इस तरह कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के विभाजन से न ख़ुदा मिला, न विसाले सनम.

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